दीनदयाल उपाध्याय और अंत्योदय

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-विजय कुमार-

deen dayal upa.

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक तथा भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष श्री दीनदयाल उपाध्याय का जन्मशती वर्ष 25 सितम्बर, 2015 से प्रारम्भ हो रहा है। इस अवसर पर उनके जीवन और विचारों पर नये सिरे से चिंतन और मंथन होना ही चाहिए। इससे प्राप्त नवनीत का उपयोग निःसंदेह देश के भले के लिए ही होगा।
इन दिनों केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार है। भारतीय जनसंघ को भा.ज.पा. का पूर्वावतार कहा जाता है। दीनदयाल जी जनसंघ के मुख्य कर्ताधर्ता थे। यद्यपि वे पृष्ठभूमि में रहकर ही काम करना चाहते थे; पर सब कार्यकर्ताओं के आग्रह पर उन्हें अध्यक्ष का पदभार संभालना पड़ा; लेकिन कुछ समय बाद ही उनका दुखद निधन हो गया। उनका निधन दुर्घटना थी या हत्या, यह विषय शायद सदा अनिर्णीत ही रहेगा।
दीनदयाल जी के चिंतन को मुख्यतः ‘अंत्योदय’ के रूप में याद किया जाता है। यद्यपि इस शब्द का प्रयोग विनोबा भावे ने भी किया है। यह विचार से अधिक क्रियान्वयन की एक पद्धति है। कांग्रेसियों ने गांधी और विनोबा के नाम की माला तो जपी; पर उनके विचारों की ओर से वे सदा उदासीन ही रहे। अब भा.ज.पा. वाले भी ‘अंत्योदय राग’ गा रहे हैं; पर जब तक वे इसे समझेंगे नहीं, तब तक दीनदयाल जी का यह सपना धरातल पर नहीं उतर पाएगा।
निर्धनों तथा वंचितों के आर्थिक विकास के लिए दुनिया में मुख्यतः रिसाव सिद्धांत (ज्तपांस कवूद जीमवतल) प्रचलित है। इसे दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। एक जंगल का है, तो दूसरा मानव समाज का। माना जंगल में शेर ने एक हिरन को मारा। हिरन के बड़े-बड़े टुकड़े शेर और उसके परिवार ने खाये। फिर गीदड़, सियार, कुत्ते, बिल्ली आदि ने आकर छोटे टुकड़ों की दावत उड़ाई। इसके बाद गिद्ध और कौए आदि का नंबर आया। उनके जाने के बाद चूहे, दीमक, चींटी आदि ने बचेखुचे माल पर हाथ साफ किया। इस प्रकार एक बड़े शिकार से जंगल की कई प्रजातियों को लाभ हुआ।
अब दूसरा उदाहरण लें। एक सेठ के यहां भव्य दावत हुई। वह दावत उसके पिता के श्राद्ध पर भी हो सकती है और उसके बेटे के जन्मदिन पर भी। दावत में लाखों रु. खर्च हुए। ऊपर से देखने पर यह फिजूलखर्ची कही जाएगी; पर ‘रिसाव सिद्धांत’ के अनुसार इससे दुकानदार, हलवाई, टैंट वाले, सफाइकर्मी, मजदूर, बैंड वाले, गाड़ी वाले, बिजली वाले, दरजी, मोची, नाई, माली, कहार, सुनार, बुनकर,  सब्जी विक्रेता, भांड… आदि को रोजगार मिला। भीड़ में कुछ भला जेबकतरों और उठाइगीरों का भी हो गया। जो खाना बचा, उसे कुछ कर्मचारी ले गये और कुछ भिखारी। नगर के अनाथालय में भी कुछ खाना भेजा गया और बाकी को सड़क पर डाल दिया। इससे आवारा पशुओं का भी पेट भर गया। अर्थात इस दावत से भी बहुतों को भला हुआ।
लेकिन मानव समाज में यह ‘रिसाव सिद्धांत’ तब ही लागू होगा, जब समाज के ऊपरी वर्ग के पास खूब पैसा होगा। इसलिए इसकी समर्थक सरकारें ऐसी योजना बनाती हैं, जिससे धनवानों के पास खूब पैसा आये। उनके पास जितना पैसा आएगा, वे उतना अधिक खर्च करेंगे, और उससे क्रमशः नीचे वालों को भी लाभ होगा। पंूजीवादी चिंतन मुख्यतः इसी तरह काम करता है। आप इसके समर्थक भी हो सकते हैं और विरोधी भी; पर रिसाव प्रक्रिया से जंगल में पर्यावरण का संरक्षण होता है, जबकि शहरी जीवन में प्रदूषण का विस्तार। अधिकांश गरीबों के मन में उस सेठ के प्रति घृणा पैदा होती है, जिसने उनका शोषण कर लाखों रु. इस दावत में खर्च कर दिये।
निर्धन और वंचितों के उत्थान का दूसरा तरीका ‘अंत्योदय’ है। इसे भी एक उदाहरण से समझ सकते हैं। माना सर्दियों में कोई भला आदमी 12 कम्बल बांटने निकला। वह एक जगह गया, तो देखा कि झोपड़ी में एक आदमी दो कंबल ओढ़कर और दो बिछाकर बैठा है। आगे बढ़ा, तो एक आदमी और मिला। वह झोपड़ी में एक कम्बल ओढ़ और एक बिछाकर बैठा था। कुछ दूर आगे बढ़ने पर तीसरा आदमी मिला। वह पेड़ के नीचे एक कंबल ओढ़कर और एक बिछाकर बैठा था। आगे एक चौथा आदमी खुले में बैठा था। उसके पास न ओढ़ने को कुछ था और न बिछाने को।
उस भले आदमी ने देखा कि चारों ही सर्दी से कांप रहे हैं। यहां दो विचार मन में आते हैं। वह चारों को तीन-तीन कंबल देकर घर जा सकता था, क्योंकि चारों ही परेशान थे; पर उसने सबसे पहले चौथे व्यक्ति को छह कंबल दिये। फिर तीसरे को तीन, दूसरे को दो और अंत में पहले को एक। बस, यही है अंत्योदय। अर्थात सबसे पहले और सबसे अधिक सहायता उसे मिले, जिसकी जरूरत सबसे अधिक है। जहां सौ वाट का बल्ब जल रहा हो, वहां 25 वाट का एक और बल्ब लगा देने से कुछ लाभ नहीं होगा; पर जहां घुप अंधेरा है, वहां 25 वाट के बल्ब से ही बहार आ जाएगी।
रिसाव सिद्धांत और अंत्योदय में कुछ नीतिगत अंतर हैं; फिर भी उनमें समन्वय करना होगा। ये सच है कि सड़क, पुल, बांध आदि तो बड़े ठेकेदार ही बनाएंगे। उद्योग लगाना और चलाना भी उद्योगपतियों के ही बस की बात है। सरकार ये काम करेगी, तो अंततः हानि ही होगी। नेहरू जी ने सोवियत रूस से प्रभावित होकर बड़े-बड़े सरकारी उद्योग लगाये; पर रूस की तरह भारत में भी ये प्रायः विफल ही हुए। इनमें से कुछ अटल जी की सरकार ने बेच दिये। अब मोदी सरकार भी इस दिशा में आगे बढ़ रही है।
जैसे ‘बाइफोकल’ चश्मे में निकटदृष्टि और दूरदृष्टि दोनों के लैंस होते हैं। ऐसे ही देश की प्रगति के लिए बड़ी और छोटी; दीर्घकालीन और अल्पकालीन, दोनों योजनाएं जरूरी हैं; पर ‘सबके साथ और सबके विकास’ के लिए पहले वे योजनाएं लागू हों, जिनसे समाज में सबसे पीछे रह गये अधिकतम लोगों का हित हो। साथ ही इनमें रोजगार भी उन्हें मिले, जिन्हें इसकी सर्वाधिक जरूरत है। यही है अंत्योदय।
मोदी सरकार इन दिनों ‘स्मार्ट नगर’ योजना पर बहुत जोर दे रही है। कई सर्वेक्षकों का मत है कि वर्ष 2050 तक दुनिया के आधे लोग नगरों में रहने लगेंगे। इसलिए नगरों का स्मार्ट होना अच्छा ही है; पर यहां यह भी सोचना चाहिए कि लोग अपना गांव छोड़कर नगरों में क्यों आते हैं ? इसका मुख्य कारण है गांव में रोजगार की कमी। खेती अब घाटे का सौदा हो चुकी है। अतः नगर में मेहनत-मजदूरी से पुरुष और घरों में झाड़ू-पोंछा कर महिलाएं अपना पेट भरना चाहती हैं। यदि उन्हें रोजगार तथा जीवन की मूलभूत सुविधाएं सम्मानजनक रूप से गांव में ही मिल जाएं, तो फिर कोई नगर में धक्के खाने नहीं आएगा। इसलिए ‘स्मार्ट नगर’ से पहले ‘स्मार्ट गांव’ पर विचार होना चाहिए। ऐसा गांव, जहां बिजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा, मनोरंजन और यातायात के सामान्य साधन उपलब्ध हों। कांग्रेस ने ‘मनरेगा’ द्वारा सौ दिन काम देने का कार्यक्रम चलाया था। इससे ग्रामीण क्षेत्र से पलायन रुका भी था। 2009 का लोकसभा चुनाव भी इसी बल पर जीता गया था; पर फिर इस योजना ने दम तोड़ दिया और 2014 के चुनाव पर उसका भी परिणाम हुआ।
मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कर देशी व विदेशी निवेश द्वारा गांवों में ही बड़ी संख्या में उद्योग स्थापित करना चाहती है, जिससे लोगों को अपने घर से आठ-दस कि.मी. की दूरी पर ही काम मिल सके। ये सच है कि बड़े उद्योग से आसपास वालों की आर्थिक दशा सुधरती है; पर कोई भी उद्योग स्थापित होने में, भूमि मिलने के बाद भी कई साल लग जाते हैं। इतने समय में वे लोग, जिनकी भूमि और घर अधिग्रहण की चपेट में आ गये हैं, फिर काम की तलाश में नगरों की ओर भागेंगे। ऐसे में वे तथाकथित स्मार्ट नगर भी झुग्गियों से पट जाएंगे। अतः स्मार्ट नगर से पहले स्मार्ट गांव तथा भूमि अधिग्रहण से पहले उजड़ने वालों के निवास और रोजगार की योजनाएं लागू करनी होंगी। अंत्योदय का विचार यहां भी सहायक हो सकता है।

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