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एक शब्द झरना संस्कृति का (१)

words-डॉ. मधुसूदन

सारांश:

(१) ===>शब्दों के मूल ढूंढने का छंद बडा मनोहारी होता है।
(२)===>गौ के, बछडे को ही वत्स कहा जाता है।
(३)===>सरगम के स्वरों में भी रँभाने के स्वर को स्थान दिया है।
(४)===>पाषाण-हृदयी जन अभागे हैं।
(५)===>संवेदनक्षम कवि ही, इस भाव को समझ सकता है।
(६)===>कितने परदेशी भाषा वैज्ञानिक इस मिठास का आस्वाद ले सकेंगे?
(७)===>भाषा गयी, तो शब्द गए, पीछे भाव गया, तो भावहीन हो जाएँगे।
(८)===>धन्य हैं हम, पर अज्ञानी भी हैं।
(एक) एक शब्द में, संस्कृति की झलक :

एक आचार्य शिष्य को *वत्स वत्स* पुकार कर समझा रहे थे। और यह शब्द तितली की भाँति उड उड कर मेरे मस्तिष्क में, मँडरा रहा था; कुतूहल जगा रहा था। शब्दों के मूल ढूंढने का छंद बडा मनोहारी होता है। सोचते सोचते अनायास गहरा उतरता गया; तो, शब्द का आयाम द्रौपदी की साडी की भाँति, विस्तरित होता गया। विस्तार देख, अवाक रह गया; यह अतिशयोक्ति नहीं है। आप पढकर ही परखें; शायद ही आप असहमत होंगे।

(दो) वत्स शब्द का मूल क्या ?

शब्दकोश के अनुसार, गौ के, बछडे को ही वत्स कहा जाता है। और शब्द का मूल है, वद्+सः=> वत्सः। वद का अर्थ है पुकारना, वदना, यहाँ रँभाना। बछडा रँभा कर ही पुकारता है माँ को। माँ भी सामने से रँभाती है। दृश्य बडा सुहाना होता है; आपने शायद देखा होगा।
गौओं को चरकर संध्या को वापस लौटते देखा होगा। थोडा स्मरण कर लीजिए। क्या मनोरम दृश्य होता है। संध्या की बेला है; सूरज डूब रहा है; और गाँव की सीमा पर धूलि-रज उडती देख कर ही, बछडा माँ को पुकारने (रँभाने) लगता है। दिनभर का बिछोह रँभाने में फूट पडता है। खूँटी से बँधी रस्सी खीचता है, सामने के खुर उछालता है।और हम्माऽऽ हम्मा ऽऽ का स्वर विलम्बित ताल में, वातावरण भर देता है। यही रँभाना है वत्सः का मूल, या उस शब्द की व्युत्पत्ति।

(तीन) सरगम के स्वर:

वैसे, हमने सरगम के स्वरों में भी रँभाने के स्वर को स्थान दिया है। सरगम के स्वरों में रिषभ या रे गौ के रँभाने की कंपन-संख्या पर रचा गया है, और कोमल रिषभ वत्स के कोमल स्वर पर। रे के दो स्वर होते हैं, एक शुद्ध रिषभ गौ का, और दूसरा कोमल रिषभ बछिया का।
ध्यान से सुनने पर पता चलता है, गौ का स्वर कुछ रूखा और बछिया का स्वर कोमल होता है।
ऐसे आमने सामने, गौ और बछिया के रँभाने को आप कोमल और शुद्ध रे की, युगल-बंधी (जुगल बंदी)कह सकते हैं।बारी बारी से दोनों रँभाते रहते हैं। कितना आह्लादक और भाव-विभोरक दृश्य होता है?

(चार) कभी सोचा आपने?

सोचिए, जो प्रेम की अनुभूति गौ को होती होगी, बछिया के प्रति; कैसी उत्कट होती होगी। उसे आर्तता से रँभाने और स्पर्श कर, जीभ फेरने के अतिरिक्त, नियंता ने और कोई क्षमता नहीं दी है।
बछिया पर, प्रेम बरसाने, जिह्वा के अतिरिक्त क्या प्रयोग में ला सकती है गौ? कितनी करूणामय स्थिति है? न हाथ है, न शब्द; न कोई और पर्याय।
पर, इस अपत्य प्रेम की अपार करूणा गौ की आँखों में देखी जा सकती है। देखनेवाला संवेदनक्षम होना चाहिए। पाषाण-हृदयी जन अभागे हैं; ऐसी अनुभूति उनके भाग में कहाँ? गौ, न आलिंगन दे सकती है, न शब्दों से व्यक्त कर सकती है; न हमारी भाँति बालक को उठा कर दुलार।

(पाँच )गौ के मानस में प्रवेश:

कोई गौ के मन में प्रवेश कर सके, तो इस अवरुद्ध अवस्था का अनुमान हो। संवेदनक्षम कवि ही, इस भाव को समझ सकता है। शायद वह भी पूरा नहीं समझ सकता। *जहाँ न पहुंचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि।*–यह उक्ति भी शायद ही सार्थक हो। कवि की संवेदन-क्षमता से अधिक इस पामर मनुष्य के पास कुछ नहीं।

(छः) संस्कृति की झलक।

पर, हमारी संवेदनक्षम संस्कृति ने इस असहाय प्राणी के सन्तान के प्रति प्रेमवाचक, *वत्स* शब्द को उठाकर भाषा में घोल कर, चमत्कार सर्जा है। इस बिन्दू पर रुक रुक कर जब अपनी भाषा का, पीयूष चखता हूँ, तो? तो, आपको बाध्य नहीं करता; पर मैं, अंतरबाह्य भाव-विह्वल हो, भावुक हो जाता हूँ।
कोई बताए, मुझे , कितने परदेशी भाषा वैज्ञानिक इस मिठास का आस्वाद ले सकेंगे? और भाषा को प्रमाण पत्र दे सकेंगे? मैं नहीं जानता। क्या मॅक्समूलर या विलियम जोन्स या आपके टॉम, डिक या हॅरी इस मिठास का अनुभव कर सकेंगे? ऐसी और कोई भाषा भी नहीं है। पर हमारी सारी भाषाएँ ऐसी अभिव्यक्ति कर सकती हैं।

इस एक ही बिन्दू पर, मैं जुआरी की भाँति दाँव लगाने तैयार हूँ। कोई बता दे, मुझे ऐसी कोई और भाषा भी है; मैं हार मान लूँगा। बस, एक संस्कृति का नाम दीजिए, जिसने एक मूक (शब्द-हीन) पशु के अपत्य-प्रेम को, मनुष्य के लिए अनुकरणीय, सराहनीय ही नहीं पर आदर्श माना। और एक लम्बी शब्द श्रृंखला भी खडी कर दी।

(सात) भाषा की धरोहर।

धन्य हैं हम, पर अज्ञानी भी हैं।पता भी नहीं, कि, कितने भागवान हैं हम? हम ही है, इस भाषा की धरोहर को संजो कर रखने के अधिकारी और उत्तरदायी भी। विनम्रता से कहना चाहता हूँ, बंधुओं ऐसी संवेदनशील भाषा खोने पर साथ संस्कृति भी खो जाएगी। भाषा गयी, तो शब्द गए, शब्दों के पीछे का भाव गया, भारत भावहीन हो जाएगा।
यह संस्कृति को मारने की विधा है।हमारे भावोंपर संस्कृति खडी होती है। भावहीन होना संस्कृतिहीन होने बराबर है। संवेदन खोना संस्कृति की नहीं विकृति की अधोगामी दिशा है।
क्या ऐसा घृणित कृत्य करना चाहेंगे? क्या भविष्य के, इतिहास में हम संस्कृति के हत्त्यारे कहलवाना चाहेंगे?क्या श्रेष्ठ संस्कृति के रखवाले हम, संस्कृति को, सिक्कों की खन खन में डुबा देंगे?
आगे दूसरे भाग में पढने का अनुरोध: