भारतीय संस्कृति के उपासक – सर्वपल्ली राधाकृष्णन

पूर्व राष्ट्रपति डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी को एक आदर्श शिक्षक के रूप में स्मरण करते हुए उनका जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है | भारतीय दर्शन, हिन्दू धर्म,हिंदुत्व और विश्व बंधुत्व पर केन्द्रित उनके विचारों पर उतना विमर्श नहीं किया गया जितना कि शिक्षा जगत से अपेक्षित था | वे एक ऐसे शिक्षक थे जिन्होंने भारतीय दर्शन पर विशद अध्यन कर इसाई मिशनरियों के इस झूठ को अनावृत किया कि हिन्दुओं के पास कोई धर्म-दर्शन है ही नहीं | ईसाइयों के विद्यालय और महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करते समय ही उन्होंने ईसाईयों के मिथ्या प्रचार को एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर लिया था |

     डॉ.राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी द्वारा लिखित जीवनी में इस वाक्य को उद्धृत किया गया है “मैंने इसाई पादरियों द्वारा हिन्दू धर्म के विश्वासों एवं कर्म-काण्डों के विरुद्ध कटु आलोचनाएँ भी सुनीं | स्वामी विवेकानन्द के जोरदार व्याख्यानों का मेरे ऊपर बहुत ही गहरा  प्रभाव पड़ा | उसने मेरे सुषुप्त हिंदुत्व को जागृत कर दिया ….फलस्वरूप मैंने हिन्दू धर्म और दर्शन के अध्ययन का संकल्प लिया |” राधाकृष्णन जी ने बीस वर्ष की आयु में ‘वेदान्त की नैतिकता’ विषय पर एम.ए की थीसिस  लिखकर उन पादरियों को करारा प्रतिउत्तर दिया जो कहते थे ‘वेदान्त-दर्शन में नैतिकता और लोक व्यवहार के लिए कोई स्थान नहीं है |’ ईसाइयों के शासन में, ईसाईयों के कॉलेज में और  इसाई प्रोफ़ेसर के समक्ष वेदान्त की श्रेष्ठता को सिद्ध करने का प्रयास करना और उसमें  सफलता प्राप्त कर लेना कोई साधारण घटना नहीं थी | आगे चलकर उन्होंने ईसाईयों के देश इंग्लैण्ड में जाकर इसाई पादरियों की सभा में भारतीय दर्शन की श्रेष्ठता को सिद्ध कर भारत का मान बढ़ाया |       डॉ.राधाकृष्णन जी ने कट्टरपंथी विचारधारा और कठमुल्लापन को कभी भी स्वीकार नहीं किया | क्या आज के शिक्षक राधाकृष्णन जी के इन विचारों को अंगीकृत कर सकते हैं ?

संसार के अनेकों विश्वविद्यलयों ने राधाकृष्णन जी को व्याख्यान देने और सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया | भारत के दार्शनिक के रूप में उनका सम्मान इस बात की स्वीकार्यता का संकेत देता है कि दुनिया के सभी दार्शनिक यह मानने और जानने लगे हैं कि भारतीय दर्शन समस्त संसार का मार्ग प्रशस्त करने में सक्षम है | जब 

राधाकृष्णन जी यह कहते हैं कि “मनुष्य को पूर्णत्व की प्राप्ति का पूर्ण अधिकार है और यह अधिकार और इसे प्राप्त करने का मार्ग उसके रक्त में है |” तब वे मनुष्य और उसके जीवन के संबध में भारतीय द्रष्टि को ही बताने का प्रयास कर रहे होते हैं |

राधा कृष्णन जी के हिन्दू दाम्पत्य जीवन और स्त्रियों के विषय में प्रस्तुत विचारों पर यदि शिक्षक दिवस के दिन ही सही हमारे महाविद्यालयों और विश्वविद्यलयों में चार्चा होने लगे तो समाज में बढ़ती हुई तलाक/विवाह विच्छेद  की घटनाओं को नियंत्रित करने में सहायता मिल सकती है |  लगभग नौ वर्ष तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में और कुल मिलाकर  लगभग तीस वर्ष से अधिक समय तक शिक्षकीय कार्य के विशाल अनुभव का हम उतना लाभ नहीं उठा सके जितना उठाना चाहिए था |  शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए आपने जो-जो सुझाव दिए वे अव तक पूर्ण रूपेण लागू नहीं हो सके हैं | 5 दिसंबर सन 1953 के दिन दिल्ली विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बोलते हुई राधाकृष्णन जी ने कहा था “देश की योग्यतम प्रतिभाओं को शिक्षक-व्यवसाय में खींचने का हर संभव प्रयत्न किया जाना चाहिए |”  यह प्रश्न तो अभी भी अपने स्थान पर ज्यों-का-त्यों खड़ा है ,क्या समाज की योग्यतम प्रतिभाएँ इस ओर आकृष्ट हो रही हैं ? यदि नहीं तो क्यों ? स्वाधीनता से पहले देश की अधिकांश योग्यतम प्रतिभाएँ अँगरेजों की सेवा में संलग्न थीं और स्वाधीनता के पश्चात भी देश की अधिकांश योग्यतम प्रतिभाएँ विदेश जाकर अँगरेजों के यहाँ ही नौकरी करना चाहती हैं क्यों ? जो भारत में रहना चाहते हैं उनमें से भी ऐसे कितने हैं जो स्वेच्छा से शिक्षक बानना चाहते हैं ? इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि मँहगे कॉन्वेंट विद्यालयों में शिक्षित, कोटा, दिल्ली आदि शहरों में लाखों रुपये देकर इंजिनियरिंग, मेडिकल व अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले विद्यार्थी समस्त विकल्प समाप्त होने पर ही शिक्षक बनना पसंद करते हैं | नई पीढ़ी शिक्षक के रूप में  कैरियर बनाने के प्रति अधिक आकर्षित क्यों नहीं हो रही ! राधाकृष्णन जी कहते थे कि मूर्धन्य विद्वानों को विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर बनाया जाना चाहिए किन्तु देश के कई विश्वविद्यालयों में अभी भी विचारधारा और धर्म विशेष के आधार पर ही नियुक्तियाँ होती हैं | भारत के राष्ट्रपति के रूप में भी राधाकृष्णन जी इस बात पर बल देते रहे कि विश्वविद्यालय, विद्यापीठ हैं उन्हें किसी संप्रदाय की स्थापना का केंद्र नहीं बनाया जाना चाहिए |

  शिक्षक दिवस मनाते समय शिक्षाविदों को राधाकृष्णन जी के इस वाक्य को भी स्मरण करना चाहिए “सच्चा शिक्षक हमारी दृष्टि को और गहराई तक लेजाने में हमारी सहायता करता है | वह हमारे दृष्टिकोण को बदलता नहीं है |” स्वाधीनता के पश्चात हमारे विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों के दृष्टिकोण को बदलने के भी कई प्रयास होते हुए देखे गए हैं और अभी भी हो रहे हैं | भरतीय संस्कृति और भरतीय दृष्टिकोण को बदलने का विचार रखने वाले शिक्षाविदों को अभी राधाकृष्णन जी से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है |

डॉ.रामकिशोर उपाध्याय

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

15,470 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress