यहां तहजीब बिकती है यहां फरमान बिकते हैं

राकेश कुमार आर्य

हमारे देश के किसी भी राजनीतिक दल के चुनावी घोषणा पत्र को आप उठा कर देखिए , सभी भ्रष्टाचार मिटाने का वायदा देश के मतदाताओं से करते हैं ,परंतु जब सत्ता में आते हैं तो भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाते हैं , और जो पूर्ववर्ती सरकार होती है उसके भ्रष्टाचार की कहानियों को उघाड़कर उसी के पदचिन्हों का अनुकरण करते हुए स्वयं भी उससे अधिक देश या किसी प्रदेश को लूटने का काम करते हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों के द्वारा संकल्प तो लिया जाता है भ्रष्टाचार मिटाने का , परंतु काम किए जाते हैं भ्रष्टाचार में डूब जाने के । 

बेईमान नेता किसी तवायफ से कम नहीं है ।
इनको बस वोट चाहिए इनको किसी की फिक्र नहीं है।।

जो लोग भ्रष्टाचारी रहे हैं उन्हें इसलिए बचाने का काम भी राजनीतिक दलों के द्वारा किया जाता है कि यदि कल को उनकी सरकार सत्ता में आती है तो वह भी हमारे साथ उदारता का व्यवहार करें । सारे देश के राजनीतिक दल आपस में लड़ते – झगड़ते दिखाई देते हैं , परंतु एक ‘ न्यूनतम साझा कार्यक्रम ‘ पर सरकारें चलाते हैं कि जब मेरी सरकार आएगी तो आप के पापों को मैं नहीं उघाडूंगा और जब आप की सरकार आए तो आप मेरे पापों को मत उघाड़ना । राजनीतिक दलों के इसी ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम ‘ पर चलते रहने के कारण पिछले 70 वर्ष में देश ने उतनी उन्नति नहीं की जितनी उसी समय अर्थात 1947 में आजाद हुए अन्य देशों ने की है।
21 दिसंबर 1963 को देश की संसद के भीतर भ्रष्टाचार पर बड़ी व्यापक बहस हुई थी । तब भारत की संसद में डॉ राम मनोहर लोहिया जैसे इस देश की मिट्टी से बने तपस्वी साधक राजनीतिज्ञ हुआ करते थे । 21 दिसंबर की उस चर्चा में भाग लेते हुए डॉक्टर लोहिया ने जो अपना भाषण दिया था उसमें बड़े सटीक शब्दों का प्रयोग किया गया था । उन्होंने जो कुछ भी उस समय बोला था वह आज भी उतना ही सत्य है । उन्होंने कहा था कि सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत में जितना दूषित ,भ्रष्ट और बेईमान हो गया है , उतना विश्व के इतिहास में कहीं भी नहीं हुआ है । 

यहां तहजीब बिकती है यहां फरमान बिकते हैं ।
जरा तुम दाम तो बोलो यहां ईमान बिकते हैं ।।

भारत के जिन राजनीतिज्ञों ने डॉक्टर लोहिया के नाम पर समाजवाद की बातें की , उन्होंने भी डॉक्टर लोहिया के इन विचारों का सम्मान नहीं किया और जब वह सत्ता में आए तो उन पर भी करोड़ों के घोटालों के आरोप लगे । इतना ही नहीं अपने गांव को चमकाने के लिए ‘महोत्सव ‘ मनाने लगे और उस पर जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपया को पानी की भांति बहाने लगे । वे भूल गए कि सिंहासन और व्यापार के बीच क्या संबंध होते हैं ? – और उनके बीच का धर्म निभाना शासक के लिए कितना अनिवार्य होता है ? उन्होंने व्यवस्था को दूषित , भ्रष्ट और बेईमान बनाने में तो सहायता की ,उसे उन्नत , जनप्रिय और सर्वग्राही बनाने में सहयोग नहीं दिया । यह भारत के समकालीन इतिहास की एक बहुत बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण विसंगति है ।

यह जो हालात हैं यह सब सुधर जाएंगे ।
पर कई लोग निगाहों से उतर जाएंगे ।।

शासन के प्रति प्रमाद के भाव ने और देश को लूट कर अपनी तिजोरी में भरने की राजनीतिक अपसंस्कृति के चलते राजनीतिज्ञ अपने कर्तव्य से विमुख हो गए । फलस्वरूप देश में बड़े-बड़े घोटाले होने लगे । इन घोटालों में बोफोर्स घोटाला 64 करोड़ , यूरिया घोटाला 133 करोड़ , चारा घोटाला 950 करोड , शेयर बाजार घोटाला 4000 करोड़ , सत्यम घोटाला 7000 करोड़ , स्टांप पेपर घोटाला 43000 करोड , कॉमनवेल्थ गेम्स 70000 करोड , अनाज घोटाला दो लाख करोड़ , कोयला खदान घोटाला 12 लाख करोड़ जैसे घोटाले सम्मिलित हैं । इनकी लंबी सूची है , जो आज भी बढ़ती ही जा रही है । सत्ता को अपनी सुविधा संतुलन के लिए उपयोग करने वाले राजनीतिज्ञों ने यह सोच लिया कि चाहे तुम कितने ही बड़े बड़े घोटाले करो , पर जब सत्ता में मैं आऊंगा तो तुम पर कोई भी ऐसी कार्यवाही नहीं करूंगा ,जिससे तुमको कष्ट होता हो । यह राजनीतिज्ञों के बीच हुआ एक ऐसा अदृश्य समझौता रहा है जिसने इस देश के पिछले 70 वर्ष के इतिहास को कलंकित करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। 

जंगल जंगल ढूंढ रही है मृग अपनी कस्तूरी को ।
कितना मुश्किल है तय करना खुद से खुद की दूरी को ।।

राजनीतिक दल अपने वर्चस्व को स्थापित किए रखने के लिए और अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अपने समर्थक पैदा कर रहे हैं । लोगों को अपने संगठनों मे जिलाध्यक्ष से लेकर राष्ट्रीय स्तर के पद देकर देश को लूटने के लिए समझो कि प्रमाण पत्र बांट रहे हैं । पदों का लालच दे देकर ये दल यहां पर सामंती प्रथा को लागू कर रहे हैं । हर पार्टी के पास इस समय एक ऐसा तंत्र विकसित हो चुका है जो मौन रहकर बाबर और नादिरशाह जैसे विदेशी लुटेरों की सेनाओं के रूप में देश को लूट रहा है । बाबर और नादिर शाह जैसे विदेशी आक्रांताओं ने तो शोर मचा कर और खून बहाकर देश को लूटा था , परंतु आज के बाबर और नादिरशाह तो मौन रहकर देश को लूट रहे हैं । इसके उपरांत भी देश की जवानी सोई हुई है तो यह देखकर निश्चित रुप से आश्चर्य और दुख होता है । इन्हें देखकर लगता है कि देश को इस समय दूसरे स्वाधीनता संग्राम की आवश्यकता है । गांधीवाद और नेहरूवाद में विश्वास रखने वाले देश को लूट रहे हैं ,और सुभाष और पटेल की परंपरा में विश्वास रखने वाले मौन साधे बैठे हैं , यह कैसा विरोधाभास है ? – कुछ समझ नहीं आता । 
हमने उन विदेशी सत्ताधीशों से तो देश को स्वतंत्र करा लिया , जिनका यहाँ दीर्घकालिक शासन रहा , परंतु उनके स्थानापन्न के रूप में जिस व्यवस्था को हमने अपने देश में लागू किया उससे चाहकर भी मुक्त नहीं हो पा रहे हैं । यही कारण है कि यह व्यवस्था आज हमारे लिए प्राणलेवा सिद्ध हो रही है । जिसका परिणाम यह हुआ है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में 40% माल का रिसाव हो रहा है । हम महाशक्ति इसलिए नहीं बन पा रहे हैं कि हमने भ्रष्टाचार को अपनी व्यवस्था का एक आवश्यक अंग बना लिया है । 
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि देश जब आजाद हुआ था तो उसी समय देश के राजनीतिज्ञों ने भ्रष्टाचार को अपनी कार्यशैली का एक आवश्यक अंग बना लिया था । 1962 में भ्रष्टाचार मिटाने के लिए संस्तुति देने के लिए लाल बहादुर शास्त्री जी द्वारा संथानम समिति गठित की गई थी । उस समिति ने अपनी टिप्पणी में कहा था कि पिछले 16 वर्षों में मंत्रियों ने अवैध रूप से धन प्राप्त करके बहुत सारी संपत्ति बना ली है । यदि उस समिति की इस टिप्पणी पर विचार करें तो पता चलता है कि देश जब आजाद होने के लिए तैयारी कर रहा था तब 2 सितंबर 1946 को देश की राष्ट्रीय सरकार के प्रधानमंत्री बने पंडित नेहरू की सरकार के मंत्री देश को लूटने की तैयारी करने लगे थे । उन्होंने यह मन बना लिया था कि हम ‘भारत ‘ के उत्तराधिकारी नहीं होंगे ,अपितु उसी भ्रष्ट ,निकृष्ट , स्वार्थी और क्रूर विदेशी सत्ता के उत्तराधिकारी होंगे जिसके विरुद्ध हम आजादी के लिए लड़ रहे हैं । यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण मानसिकता थी जिसे हमारे राजनीतिक लोग अपना रहे थे । इसी दुर्भाग्यपूर्ण मानसिकता के चलते 1948 में ही देश में जीप घोटाला हो गया था । यह भी कम दुखद नहीं है कि देश के उस समय के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने जीप घोटाले को अधिक गंभीरता से नहीं लिया था , अपितु उन्होंने यह कहकर अपने मंत्रियों या भ्रष्ट साथियों का बचाव करने का प्रयास किया था कि अब देश का पैसा देश में ही है , बाहर तो नहीं जा रहा , अर्थात देश के मंत्री या अधिकारी यदि देश को लूट रहे हैं तो वह अंग्रेजों की भांति देश के धन को बाहर न ले जाकर देश में ही रख रहे हैं ।
समाजवाद की बात करने वाले लोग देश में घोटाले करने लगे , पिछड़े या दलित ,शोषित और उपेक्षित की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल और राजनीतिज्ञ देश में घोटाले करने लगे ,जाति ,बिरादरी , वर्ग ,संप्रदाय ,समुदाय आदि की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर काम करने की शपथ उठाने वाले लोग देश में घोटाले करने लगे , सब के प्रति समानता का भाव रखने की कसम उठा कर देश को आगे बढ़ा कर ले चलने का संकल्प व्यक्त करने वाले लोग देश में घोटाले करने लगे । ऐसे में किस पर विश्वास किया जाए ? – किस पर भरोसा किया जाए ? -सभी तो हमाम में नंगे दिखाई दिए।
राजनीतिक दलों के नेताओं की भाषा में कहें तो आज सभी राजनीतिक दल यह मान रहे हैं कि भ्रष्टाचार देश के लिए पड़ा मुद्दा है ,और हम इसे मिटाकर ही रहेंगे । अब यदि सभी राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों का एक सांझा लक्ष्य देश को भ्रष्टाचार मुक्त करना है तो फिर इस महारोग पर विजय प्राप्त करने के लिए एक राष्ट्रीय नीति का निर्माण यह लोग क्यों नहीं करते हैं ? – ऐसा न करने का एकमात्र कारण यही है कि इनको पता है कि यदि राष्ट्रीय नीति का निर्माण कर भ्रष्टाचार से लड़ा गया तो इन सबको अपना अस्तित्व बचाना कठिन हो जाएगा । अपने पाप को छुपाए रखने के लिए यह नहीं चाहते कि देश में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कोई राष्ट्रीय संकल्प लिया जाए या राष्ट्रीय नीति का गठन किया जाए । यह भ्रष्टाचार में डूबे रहना चाहते हैं और देश की छाती पर जोंक की तरह चिपटे रहकर इसके खून को चूसते रहने के अपने अधिकार को निर्विवाद बनाए रखना चाहते हैं।
यदि ऐसा नहीं है तो फिर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अपने यहां सीबीआई के आने से क्या आपत्ति है ? यदि भारत देश को भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने के लिए ममता कृतसंकल्प हैं और देश से इस महामारी को भगाने के लिए भी अपने आप को समर्पित कर देना चाहती हैं तो उन्हें सीबीआई को प्रदेश में निस्संकोच आने देना चाहिए । मोदी राजनीतिक विद्वेष के भाव को हृदय में रखकर अपने विरोधियों को यदि खुड्डे लाइन लगाने के लिए ऐसा कर रहे हैं कि वह सीबीआई के माध्यम से उन्हें उत्पीड़ित करना चाहते हैं तो इसका भी पता देश की जनता को उस समय लग जाएगा , जब किसी भी विरोधी नेता के यहां ऐसा कुछ भी नहीं मिलेगा जो आपत्तिजनक हो । इस देश की जनता सब कुछ जानती है । इसका अब और अधिक मूर्ख नहीं बनाया जा सकता । प्रधानमंत्री मोदी की नियत पर इसे कोई संदेह नहीं है , परंतु ममता दीदी या उन जैसा कोई भी विपक्षी दल का नेता अब चाहे वह अखिलेश यादव हों , चाहे बहन मायावती या तेजस्वी यादव या कोई और राजनीतिज्ञ हो , सब के सब जब भ्रष्टाचार मिटाने का संकल्प लेने के उपरांत भी भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए आने वाली केंद्रीय जांच एजेंसियों के साथ सहयोग करते हुए नहीं दिखाई देते हैं तो वह स्वयं ही संदेह के घेरे में आ जाते हैं । तब देश की जनता समझने लगती है कि कहीं ना कहीं दाल में काला है । ऐसे में देश के राजनीतिज्ञों को देशवासियों को यह विश्वास दिलाना ही होगा कि यह जो मोदी नाम का भूत उनके पीछे पड़ा हुआ है , उसकी ही दाल काली है , हम तो सफेद दूध का व्यापार करते हैं और देख लो हमारे पास सब कुछ साफ-साफ सफेद सफेद है।

Previous articleहालात-ए-इमरजेन्सी
Next articleवाड्रा पर ई डी का शिकंजा
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,015 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress