यशोदानंदन-२३

 

श्रीकृष्ण जैसे-जैसे बड़े हो रहे थे, यमुना के प्रति आकर्षण वैसे-वैसे ही बढ़ रहा था। यमुना का किनारा ही उनके खेल का मैदान था। गोकुल के सारे ग्वाल-बाल उनके सम्मोहन में बंधे थे। वय में उनसे बड़े ग्वाले भी बिना किसी तर्क के उनकी बातें मानते थे। एक दिन श्रीकृष्ण, बलराम एवं अन्य बालकों के साथ यमुना के तट पर खेल रहे थे। खेलने में सभी इतना रम गए कि समय का ध्यान ही नहीं रहा। दिन काफी चढ़ आया। माता रोहिणी कृष्ण और बलराम को बुलाने पहुंचीं। उनके बार-बार आग्रह करने के बाद भी न बलराम टस से मस हुए और न श्रीकृष्ण। वे दोनों खेल में इतने मगन थे कि खेल छोड़कर वापस जाने से मना कर दिया। माता रोहिणी थक-हारकर चली गईं। अब माता यशोदा की बारी थी। पास जाकर उन्होंने गुहार लगाई –

“हे कृष्ण! हे राजीवनयन! मेरे प्यारे पुत्र! घर चलो बेटा। तुम्हारे कलेवे का समय हो चुका है। आओ और दूध पी लो। सवेरे से खेल रहे हो। अब बहुत हो चुका, मेरे लाल! तुम्हें भूख लगी होगी। बेटा बलराम! तुम कृष्ण को लेकर आ जाओ। नन्दराज तुम दोनों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तुम दोनों के बिना उन्होंने कभी कलेवा किया है क्या? अपने साथ उन्हें भी क्यों भूखा मार रहे हो? आ जाओ, मेरे साथ चलो ताकि वे भी भोजन कर सकें।”

नन्द बाबा का नाम सुनते ही कृष्ण-बलराम खेलना छोड़ माता के पास आ गए। परन्तु अन्य ग्वाल-बाल उलाहना देने से कहां चूकने वाले थे –

“देखो कृष्ण, तुमने अपनी पारी तो खेल ली और जब हमारी बारी आई, तो भाग चले। अगली बार आओगे तो तुम्हें खेलने नहीं देंगे।”

कन्हैया भला कब माननेवाले थे। मित्रों की चुनौती स्वीकार की और माता से हाथ छुड़ाकर पुनः मैदान में पहुंच गए। जसुमति मैया की सहन-शक्ति अब समाप्त हो गई। उन्होंने बच्चों को डांटा और श्रीकृष्ण से कहा –

“तुम सवेरे से ही खेल रहे हो। तुम्हारा शरीर मलीन हो गया है। चलो घर चलकर स्नान करो। क्या तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है कि तुम्हारे मित्रगणों को उनकी माताओं ने विभिन्न अलंकारों और सुन्दर वस्त्रों से किस तरह सुसज्जित कर रखा है। एक तुम हो कि सवेरे से ही धूल में लोट रहे हो। लोग तो मेरी ही खिल्ली उड़ायेंगे न – कैसी माँ है, बच्चे पर तनिक भी ध्यान नहीं देती है। क्यों मेरा लोक-उपहास कराने पर तुले हो? तुम्हें तो कुछ याद रहता नहीं। आज तुम्हारा जन्मदिन है। शीघ्र आओ, घर चलकर स्नान करो, सुन्दर वस्त्र और अलंकारों से अलंकृत हो ब्राह्मणों को स्वर्ण और गौवों को दान करने के पश्चात्‌ पुनः खेलने आ जाना। मेरे लाल! मुझे अधिक तंग मत करो।”

सभी बच्चों ने अपना विरोध वापस ले लिया। श्रीकृष्ण  ने माता का दायां हाथ पकड़ा और बलराम जी ने बायां। माता यशोदा की प्रसन्नता कि सीमा नहीं रही। घर पहुंचकर नहलाने-धुलाने के बाद श्रीकृष्ण  का दिव्य शृंगार किया गया, ब्राह्मणों को बुलाकर जन्मदिवस के पावन अवसर पर उनके हाथ से अनेक स्वर्ण-मुद्रायें तथा गौवें दान कराई गईं। सभी ग्वाल-बाल प्रसन्नता से ताली बजा रहे थे।

मातु यशोदा को भलीभांति याद होगा कि पूर्णिमा की रात में श्रीकृष्ण  को चन्द्रमा का दर्शन कराना कितना महंगा पड़ा था …….। चन्द्र-दर्शन तो उन्होंने क्रीड़ा भाव से कराया था, परन्तु बाल कृष्ण ने उसे पाने का ही हठ कर दिया। अब भला माता चन्द्रमा को पृथ्वी पर कैसे उतारतीं? श्रीकृष्ण  को उन्होंने तरह-तरह से समझाया, परन्तु सारे प्रयास असफल। श्रीकृष्ण को तो चन्द्र खिलौना चाहिए था। इससे कम या ज्यादा कुछ भी नहीं। मातु ने जब निर्णायक रूप से चन्द्र खिलौना लाने में अपनी असमर्थता व्यक्त की, तो कन्हैया ने धमकी देना आरंभ कर दिया –

“मैं चन्द्र खिलौना ही लूंगा, वरना मैं तुम्हारी गोद से उतरकर पृथ्वी पर लेट जाऊंगा और दुबारा तुम्हारी गोद में कभी नहीं आऊंगा। मैं न तो गाय का दूध पीऊंगा और न अपनी चोटी ही गुथवाऊंगा। मैं नन्द बाबा का पुत्र बन जाऊंगा और तुम्हारा पुत्र कभी नहीं कहलाऊंगा।”

परेशान माता ने अपने श्याम सुन्दर को बहलाने के कई यत्न किए। उन्हें चांद सी दुल्हन लाकर देने का वादा किया। कन्हैया ने कहा – अभी लाओ। अब माता बिचारी क्या करतीं? एक युक्ति समझ में आई। कठौते में स्वच्छ जल भर लाईं। चन्द्रमा कठौते में आ चुका था। बालकृष्ण घंटों प्रतिबिंब से खेलते रहे।

कान्हा जैसे-जैसे बड़े हो रहे थे, उनकी शिकायतें भी बढ़ती जा रही थीं। कभी मित्रों की शिकायतें करते, तो कभी गोपियों की। एक दिन क्रीड़ा के समय कान्हा घर में ही मुंह फुलाए बैठे रहे – एकदम अकेले। माता ने दुलारते हुए मुंह फुलाने का कारण क्या पूछा, कान्हा तो विफर ही गए –

“मैया, अब मैं खेलने नहीं जाऊंगा। बलदाऊ मुझे बहुत चिढ़ाते हैं। वे मुझसे कहते हैं कि तुमलोगों ने मुझे मोल लिया है। मैं तुम्हारा असली पुत्र नहीं हूँ। वे मुझसे ही पूछते हैं कि सच-सच बता तेरे माता-पिता कौन हैं? नन्द बाबा भी गोरे हैं, माता यशोदा भी गोरी हैं। उनका पुत्र तुम्हारी तरह काला हो ही नहीं सकता। दाऊ नित्य ही ऐसा कहकर मुझे चिढ़ाते हैं और सारे ग्वाल-बाल ताली बजाकर हंसते हैं। आज तुम्हें बताना ही पड़ेगा कि मेरे असली माता-पिता कौन हैं? कही दाऊ ही तो तुम्हारे पुत्र नहीं हैं? तभी तो मेरी छोटी सी गलती पर भी तुम सोंटा लेकर मुझे मारने के लिए दौड़ाती हो और दाऊ को सदैव प्यार करती हो।”

कान्हा की शिकायत पर माता कभी प्रसन्न होतीं, तो कभी उदास। जबतक उनकी शिकायत का उचित समाधान प्रस्तुत नहीं किया जाता, वे रुठे ही रहते। माता को एक और प्रसन्नता होती कि उनका लाल इतना बड़ा और समझदार हो गया है कि शिकायत भी करने लगा है, परन्तु दूसरे ही पल कान्हा के रुठने से जो कष्ट होता, वह उदासी भर देता। माता से कान्हा एक पल के लिए भी रुठे, यह उन्हें स्वीकार नहीं था। श्रीकृष्ण की शंका को दूर करने के लिए उन्होंने स्पष्टीकरण दिया –

“हे कान्हा! देख मैं गोधन की सौगंध खाकर कहती हूँ कि मैं ही तेरी माँ हूँ और तू मेरा ही पुत्र है। बलराम जन्म का झूठा है। आने दो घर; मैं उसकी खबर लेती हूँ।”

“माते! दाऊ को सोंटे से मारना नहीं, सिर्फ डांट देना,” कान्हा हंसते हुए खेलने के लिए दौड़ जाते। माता अपने लाल को दौड़ते हुए दूर तक देखती रहतीं। प्रसन्नता से मुखमंडल कमल की भांति खिल उठता। वात्सल्य से स्तन से दूध उतर आता।

 

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