यशोदानंदन-२७

 

श्रीकृष्ण-वध के लिए दृढ़ संकल्प अघासुर शीघ्र ही वृन्दावन के उस स्थान पर पहुंच गया जहां श्रीकृष्ण अपने ग्वाल-बालों के साथ नित्य गोधन लेकर आते थे। उसने ‘महिमा’ नामक योगसिद्धि के द्वारा अपने शरीर का अद्भुत विस्तार किया और श्रीकृष्ण तथा उनके मित्रों को रोक अचानक प्रकट हुआ। अघासुर ने स्वयं को आठ योजन तक विस्तारित कर एक मोटे सर्प का रूप धारण कर लिया। ऐसा आश्चर्यजनक शरीर प्राप्त करके उसने अपना मुंह पर्वत की गुफा के समान खोल लिया और श्रीकृष्ण-बलराम समेत सभी बालकों को जीवित निगल जाने की इच्छा से रास्ते पर बैठ गया।

उस असुर ने भारी मोटे सर्प के रूप में होंठ पृथ्वी से आकाश तक फैला लिए। उसका निचला होंठ पृथ्वी पर था और उपरी होंठ बादलों को छू रहा था। उसके जबड़े एक विशाल अन्तहीन पर्वत की गुफा जैसे लग रहे थे और उसके दांत पर्वत-शिखरों की भांति प्रतीत हो रहे थे। उसकी जिह्वा राजमार्ग जैसी लग रही थी और वह अंधड़ की भांति सांस ले रहा था। बालकों ने समझा कि वह कोई मूर्ति है। कुतुहलवश बलराम के साथ सारे बालक अघासुर के मुख में प्रवेश कर गए। श्रीकृष्ण ने ऊंचे स्वर में अपने मित्रों को पास बुलाने का प्रयास किया, परन्तु समस्त ग्वाल-बाल आनन्द से करतल ध्वनि करते हुए बछड़ों के साथ अघासुर के मुख में आगे बढ़ते चले गए। कोई अन्य विकल्प सामने न देख श्रीकृष्ण ने भी उस विशालकाय सर्प के मुख में प्रवेश किया। सर्प के गले तक पहुंचकर श्रीकृष्ण ने स्वयं को विस्तारित करना आरंभ किया। असुर का गला रुद्ध होने लगा और उसकी आँखें तीव्रता से घूमने लगीं। उसका दम घुटने लगा और शीघ्र ही उसके प्राण-वायु मस्तक के उपरी भाग में छिद्र कर बाहर आ गए। श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य दृष्टि से समस्त बालकों और गोधन को सचेत किया और सबके साथ असुर के मुख से बाहर आ गए।

 

कैसी विडंबना है, क्या रहस्य है! अज्ञानी तो परम सत्य से सदा अनभिज्ञ रहते हैं, ज्ञानी भी कभी-कभी भ्रम का शिकार हो जाते हैं। अघासुर के वध के पश्चात्‌ देवताओं ने आकाश से पुष्प-वृष्टि कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की थी। सभी ने अपने नेत्रों से वह अद्भुत दृश्य देखा था। ब्रह्मा जी भी उस दृश्य के प्रत्यक्षसाक्षी थे। उनके मन में पता नहीं क्यों और कैसे यह संदेह उत्पन्न हो गया कि वह नन्हा सा बालक वस्तुतः भगवान विष्णु का अंश है भी या नहीं?

अघासुर-वध के पश्चात्‌श्रीकृष्ण ने नीले गगन की ओर दृष्टि उठाई। सभी देवता पुष्प-वृष्टि कर रहे थे। उन्होंने नेत्रों से पुष्प-वृष्टि के लिए आभार प्रकट किया और पुनः गाय-बछड़ों तथा अपने मित्रों के साथ रेतीले तट पर लौट आए। उस समय यमुना के स्वच्छ जल में कुछ विशेष आभा समेट असंख्य कमल खिल रहे थे। उनके दिव्य सुगंध से चारों दिशायें परिपूर्ण हो रही थीं। पक्षियों का कलरव, मयूरों की केका, पत्तियों की सरसराहट अद्भुत संगीत का सृजन कर रहे थे। भांति-भांति के वृक्ष अकस्मात्‌ दुल्हन की भांति स्वयं सज गए। श्रीकृष्ण ने एक विहंगम दृष्टि पूरे परिवेश पर डाली और एक मधुर मोहिनी स्मित से सबके प्रति धन्यवाद-ज्ञापन किया। मित्रों के साथ उन्होंने एक मंडल बनाया और कलेवा के लिए बैठ गए। समीप ही गायें, बछड़ों के साथ कोमल घास चरने लगी।

श्रीकृष्ण केन्द्र में बैठे थे। वे कमल के पुष्प के मध्य भाग जैसे प्रतीत हो रहे थे और सारे ग्वाल-बाल उनकी पंखुड़ियों जैसे दीख रहे थे। सभी बालक कलेवा के साथ हंसी-ठट्ठा भी कर रहे थे। सभी दही-माखन, चावल तथा फलों के खंड से तैयार किए गए भोजन का आनन्द ले रहे थे, साथ में श्रीकृष्ण के सुन्दर आनन का दर्शन भी कर रहे थे। अपनी इस क्रिया में सभी इतने मगन थे कि कुछ देर के लिए उन्हें अपनी गायों और बछड़ों की सुधि ही नहीं रही। बछड़े अपनी माताओं के साथ चरते-चरते दूर निकल गए थे। दृष्टि से ओझल भी हो गए थे। कलेवा समाप्त करने के पश्चात्‌ जब सभी को अपने गोधन की याद आई, सब विकल हो उठे। सब यही सोचने लगे कि पता नही अब कौन सी विपदा आनेवाली है। मित्रों के मन की बात श्रीकृष्ण ने ताड़ ली। उन्हें धैर्य बंधाते हुए बोले –

“मेरे मित्रो! तुम तनिक भी चिन्तित मत हो। हमारा गोधन यही कही घास चर रहा होगा। तुम सभी यहां शान्ति से बैठो। मैं अभी उन्हें ढूंढ़ कर लाता हूँ।”

श्रीकृष्ण गायों और बछड़ों को ढूंढ़ने निकल पड़े। उन्होंने उन्हें पर्वत की गुफाओं में ढूंढ़ा, दरारों में ढूंढ़ा, झाड़ियों में खोजा, घने वनों में तलाशा, लेकिन वे कहीं नहीं मिले। निराश होकर जब वे यमुना के तट पर वापस लौटे, तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ – उनके मित्र भी वहां नहीं थे। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि उनका गोधन और उनके मित्र किसी असुर या देवता की माया के शिकार हुए हैं। क्षण भर के लिए उन्होंने अपने नेत्र बंद किए, ध्यान लगाया, फिर सारा घटना क्रम उनकी आंखों के सामने था।

सृष्टि के रचयिता परम पुरुष ब्रह्मा ने अपने संदेह के निवारण हेतु स्वयं अपनी माया से श्रीकृष्ण-बलराम को छोड़, उनके सभी मित्रों एवं गोधन का अपहरण कर लिया था। ब्रह्मा जी के इस कृत्य पर श्रीकृष्ण मुस्कुराये। अकेले घर लौटना उन्हें स्वीकार नहीं था। वे जानते थे कि अपने पुत्रों और गोधन को न पाकर वृन्दावन की समस्त मातायें शोक के सागर में डूब जायेंगी। उन्होंने अविलंब गायों, बछड़ों और अपने मित्रों के रूप में अपना विस्तार किया और गोधूलि-वेला में बलराम के साथ वृन्दावन में प्रवेश किया। वंशी की मधुर ध्वनि सुन सारी मातायें अपने-अपने पुत्रों के स्वागत में घरों से बाहर निकल आईं। सबने अपने बालकों को आलिंगन में बद्ध किया। उनके स्तनों से बरबस दूध की धारायें बह निकलीं। सभी ने अपने पुत्र को स्तन-पान कराया। मातु यशोदा और रोहिणी ने भी श्रीकृष्ण-बलराम को दुग्ध-पान कराया। श्रीकृष्ण के जन्म के पश्चात्‌ ही गोकुल की मातायें जब यशोदा जी को श्रीकृष्ण को दुग्ध-पान कराते देखतीं, तो उनके हृदय में यह लालसा जन्म ले लेती – काश! हम भी श्रीकृष्ण को स्तन-पान करा पाते। अन्तर्यामी श्रीकृष्ण ने उस दिन समस्त माताओं की इच्छा-पूर्ति कर दी। श्रीकृष्ण ने एक वर्ष तक गोधन और ग्वाल-बालों के रूप में स्वयं को विस्तारित रखा और नित्य की भांति मित्रों के साथ चारागाहों में गायें चराते रहे।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,698 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress