मिथक से यथार्थ बनी ययाति कन्या माधवी की गाथा

—–विनय कुमार विनायक
हे माधवी!
जिन आठ सौ अश्वमेधी/श्यामकर्णी
श्वेतवर्णी घोड़े के लिए तुम बेच दी गई
चार-चार पुरुषों के हाथों में,
वे महज घोड़े नहीं औकात के पैमाने थे
एक कुंवारी कन्या के पिता के,
चक्रवर्ती-महादानी होने के मिथ्या दंभ के!

जो सहस्त्रों गौ-हाथी-घोड़े दान करके
रिक्त हस्त हो चुके चतुर्थाश्रमवासी ययाति थे
जो समय रहते एकमात्र कन्या तुझ माधवी को
ब्याहने से चूके लाचारी में संन्यासी हुए थे!

हां माधवी! ये तुम्हारे पिता ययाति हीं थे
जिनकी मिटी नहीं थी आकांक्षा
पूरे राजकीय तामझाम से दान-दहेज देकर
किसी चक्रवर्ती से कन्या ब्याहने की,
चक्रवर्ती दौहित्रों के नाना कहलाने की!

हे माधवी!
जिन आठ सौ अश्वमेधी/श्यामकर्णी
श्वेतवर्णी घोड़े के लिए
तुम ढकेल दी गई थी तीन अधबूढ़े राजे
और चौथेपन में राजर्षि से ब्रह्मऋषि बने
बूढ़े गुरु विश्वामित्र के शयन कक्ष में,
वे महज घोड़े नहीं तत्कालीन,
दमित वासना-कामना के आईने थे
राजभोगी से ब्रह्मयोगी बने गुरु के गुरूर के!

जिन्होंने एक ब्राह्मण शिष्य गालव से
मांगी थी अब्राह्मणोचित गुरु दक्षिणा में
उन आठ सौ अश्वमेधी-श्यामकर्णी
श्वेतवर्णी घोड़े को जो समस्त आर्यावर्त के
सभी अश्वमेधी घोड़ों की गिनती थी!

जो राजर्षि गुरु विश्वामित्र के पिता गाधी से
उनके पुरोहित ऋचिक ने चालाकी वश दान में लिए
और लगे हाथ बनियों की भांति
कई राजे-महाराजे को बेच दिए थे!

उन घोड़ों की गृहवापसी के लिए
यजमान जाति से याचक जाति बने थे
विश्वरथ से गुरु राजर्षि विश्वामित्र!

हे माधवी!
जिन आठ सौ अश्वमेधी/श्यामकर्णी
श्वेतवर्णी घोड़े के लिए
तुम थमा दी गई थी एक महत्वाकांक्षी
स्नातक ब्राह्मण ब्रह्मचारी गालव के हाथों
वे महज घोड़े नहीं मतलब परस्ती के आखिरी इंतहा थे
एक सर्टिफिकेट जुगाड़ू शिष्य के!

जिसे तुमने मन ही मन पति वरण कर ली थी,
जिनकी गुरु दक्षिणा शुल्क उगाही हेतु,
जिनके कहने पर तुमने कई बार
कई राजपुरुषों को अपनी अस्मत बेची थी!

उस गालव ने भरी स्वयंवर सभा में
तुम्हारी उसी देह को अपवित्र कहकर
ठुकरा दिया था जिससे तुमने
कई अवश्यंभावी चक्रवर्ती राजकुमार जने थे!

जिसे कई चक्रवर्ती राजा थामने को लालायित थे
और प्रलोभन दे रहे थे तुम्हारे ही परित्यक्त बालकों को
अपनी गोद में बिठाकर कि तुम जयमाला पहना दो
अपने चक्रवर्ती लक्षणयुक्त पुत्रों के किसी एक चक्रवर्ती पिता को
किन्तु देहधरे को दंड मिलना ही था
अहल्या/द्रौपदी—से लेकर और न जाने किस-किस को!

मिथक से यथार्थ बनी
एक स्त्री की यह गाथा है तबकी जब
‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमंते तत्र देवता’ की
घोषणा हो चुकी थी,
काफी जद्दोजहद के बाद क्षत्रिय राजर्षि से
ब्रह्मऋषि ब्राह्मण बन चुके विश्वामित्र ने
गायत्री मंत्र की ऋचाएं सृजित कर ली थी,
वस्तुत: हे माधवी ये तुम्हारी नहीं
गुरु और शिष्य की पतन कथा थी!
—–विनय कुमार विनायक

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here