ये नौकर

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घर का कोई पुराना नौकर,
ईमानदार वफ़ादार सा नौकर,
हर व्यक्ति की सेवा करता
मुश्किल से मिलता था ये नौकर
लैण्ड लाइन सा ना कोई नौकर
अब बूढा होकर ये नौकर
पड़ा है इक कौने में नौकर
कितना सुन्दर था ये नौकर
मालिक का सर गर्व से उठता
जिसके घर होता ये नौकर।
मेज़पर सजाहुआ ये नौकर
नम्बर घुमाये जाते थे तबतो
फिर बटन दबाने वाले आये कुछ नौकर
जब कौर्डलैस बने लैन्डलाइन
मानो हो गये हाफ मोबाइल!
काम अभी भी आजाता ये नौकर
जब बिगड़ा हो कोई नया नौकर।

अब हर इक के पास मोबाइल नौकर
कोई रक्खे दो दो नौकर
नौकर हुऐ मंहगे स्मार्ट
तीन साल चलें ये नौकर
उसके बाद लाओ नया नौकर
पर ये नौकर बड़े ज़रूरी
इनके बिना दुनियां है अधूरी
अपनी हैसियत का रखलो नौकर
मंहगे हों या सस्ते नौकर
स्मार्ट फोन अब हुए ज़रूरी
ये नहीं हम हुए इनके नौकर

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मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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