ये संकल्प करें तो चमत्कार हो जाए

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नए साल पर आम तौर से लोग दूसरे को बधाइयां देते हैं और शुभकामनाएं करते हैं। पत्रकार, विशेषज्ञ, नेतागण और आम लोग भी अपनी सरकारों से कई आशाएं और अपेक्षाएं करते हैं। यह एक ढर्रा बन गया है लेकिन क्या इस मौके पर हर आदमी कोई शुभ-संकल्प करता है? क्या हम 2015 के मुकाबले 2016 को एक बेहतर साल बनाने के लिए कमर कसेंगे? क्या हम ऐसी प्रतिज्ञा करेंगे कि इस नए साल में हम ये-ये काम करेंगे और ये-ये काम नहीं करेंगे? तो आइए, सरकारों से उम्मीद हम बाद में करेंगे, पहले हम 2016 में जो खुद कर सकते हैं, वे संकल्प लें।

सबसे पहला संकल्प यही करेंगे कि न तो हम रिश्वत देंगे और न ही लेंगे। यह अत्यंत कठिन संकल्प है। प्रायः रिश्वत तभी दी जाती है, जब हम कोई गलत काम करवाना चाहते हैं। तो संकल्प यह भी करें कि थोड़ा नुकसान भुगत लें लेकिन किसी से भी कोई नियम-विरुद्ध काम न करवाएं। यदि किसी नियमपूर्ण काम के लिए भी रिश्वत मांगी जाए तो उसके विरुद्ध लड़ें। पत्रकार-जगत को सचेत करें। यदि किसी बेहद नाजुक मसले पर रिश्वत देनी ही पड़ जाए तो उसका कसकर भांडाफोड़ करें। यदि सिर्फ दस करोड़ लोग ही यह संकल्प कर लें तो देश में से 90 प्रतिशत भ्रष्टाचार अपने आप खत्म हो जाएगा। जहां तक मुझे याद पड़ता है, मैंने अपने जीवन के 72 वर्षों में कभी एक पैसा भी रिश्वत में नहीं दिया और जीवन बड़े मजे से चल रहा है। दूसरा, संकल्प हम यह क्यों न करें कि अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में हम जाति और संप्रदाय को हावी नहीं होने देंगे? शुद्ध व्यक्तिगत जीवन में हम अपने विश्वासों के अनुसार जरुर जिएं लेकिन अपनी सामूहिक पहचान के नाम पर देश में भेड़-बकरीवाद नहीं चलाएंगे। जाति और संप्रदाय को हथियार बनाकर वोट मांगने, नौकरियां पटाने और लोगों में ऊंच-नीच फैलाने का काम हम बिल्कुल नहीं करेंगे। तीसरा, संकल्प यह कि अपनी सारा कामकाज यथासंभव स्वभाषा में करेंगे। विदेशी भाषाएं स्वेच्छा से पढ़ना-पढ़ाना अति उत्तम है लेकिन उनके शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और राज-काज में अनिवार्य बनाए रखना राष्ट्रद्रोह से कम नहीं है। दुनिया के किसी भी शक्तिशाली और संपन्न राष्ट्र में कोई विदेशी भाषा थोपी नहीं जाती। अंग्रेजी की इस गुलामी से मुक्ति पाना कठिन है। इसलिए इसकी शुरुआत अपने दस्तखत से करें। आज ही संकल्प करें कि हम अपने दस्तखत अंग्रेजी से बदलकर हिंदी या स्वभाषा में करेंगे। दुनिया का कोई कानून आपको रोक नहीं सकता। आज तक मैंने देश या विदेश में एक बार भी अपने दस्तखत अंग्रेजी में नहीं किए हैं। मुझे कभी कोई कठिनाई नहीं हुई तो आपको क्यों होगी? चौथा, सर्वोच्च न्यायालय ने अभी-अभी महाराष्ट्र में शराबबंदी को उचित ठहराया है। मेरा निवेदन है कि यदि करोड़ों भारतीय आज यह संकल्प करें कि वे खुद को हर तरह के नशे से मुक्त रखेंगे तो संपूर्ण देश का स्वास्थ्य सुधरेगा, पैसा बचेगा, कार्यक्षमता बढ़ेगी, परिवार में शांति रहेगी। पांचवा, यथासंभव हम मांसाहार नहीं करेंगे। यह संकल्प इसलिए जरुरी है कि इससे जीव-दया, स्वास्थ्य और आर्थिक बचत में वृद्धि होती है। दुनिया के किसी भी धर्म में मांसाहार को अनिवार्य नहीं बताया गया है। यदि कोई मांस न खाए तो वह किसी धर्म का उल्लंघन करेगा, ऐसा कहीं नहीं लिखा है। अमेरिका, यूरोप और चीन जैसे देशों में लाखों लोग शुद्ध शाकाहारी बनते जा रहे हैं। अनेक इस्लामी देशों में मेरे विद्वान मित्र शाकाहारी हो गए हैं तो आप क्यों नहीं हो सकते? छठा, देश के अरबों रु. दवाइयों और अस्पतालों में खर्च हो रहे हैं। यदि अपने देशवासी यह संकल्प लें कि वे प्रतिदिन किसी भी प्रकार का व्यायाम अवश्य करेंगे और सात्विक भोजन पर जोर देंगे तो सारे देश की कार्यक्षमता दुगुनी हो जाएगी। प्रसन्नता भी बढ़ेगी। शास्त्रों में कहा भी गया है- ‘शरीरमाघं खलु धर्मसाधनम्’ याने शरीर ही धर्म का पहला साधन है। सातवां, संकल्प हम यह ले सकते हैं कि अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कुछ मर्यादाओं का पालन हर कीमत पर करेंगे। हम कुछ लक्ष्मण-रेखाओं को कभी नहीं लाघेंगे। ये लक्ष्मण रेखाएं चाहे आर्थिक लेन-देन की हों, स्त्री-पुरुष संबंधों की हों, अपने राजनैतिक विरोधियों से व्यवहार की हों। यदि हमारे सांसदों ने इस तरह का संकल्प लिया होता तो क्या 2015 की संसद क्या इतनी बांझ सिद्ध होती? क्या इतने महत्वपूर्ण विधेयक अधर में लटके रहते? इसी प्रकार हमारा पत्रकारिता जगत यदि मर्यादाओं का ध्यान रखता तो अपने देश में क्या असहनशीलता का नकली वातावरण खड़ा हो सकता था? भारत की फिजूल बदनामी क्यों होती? आज पत्रकार—जगत का महत्व हमारे लोकतंत्र के अत्यधिक हो गया है। आज खबरपालिका ही विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का संचालन और नियंत्रण कर रही है। टीवी चैनलों पर हमें तू—तू——मैं—मैं पत्रकारिता से बाज़ आना चाहिए।

देश के करोड़ों लोग उक्त संकल्प कर लें और उन पर अमल करें तो सरकारों का बोझ काफी हद तक हल्का हो जाएगा। सरकारों के असली मालिक कौन हैं? जनता है। आप और हम हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी बात को कितने अच्छे ढंग से कहा है। उन्होंने कहा था कि वे जनता के ‘प्रधान सेवक’ हैं। यदि मोदी प्रधान सेवक हैं तो अन्य नेता क्या हैं, कहने की जरुरत नहीं है। यदि यह कथन सत्य है तो अपनी केंद्र और प्रदेशों की सरकार से हम कुछ बुनियादी कामों की उम्मीद करें तो गलत नहीं होगा।

सबसे पहले सारी सरकारों को अपना ध्यान गरीबी दूर करने पर लगाना चाहिए। देश में गरीबों की संख्या 80 करोड़ से ज्यादा है लेकिन सरकार ने गरीबी की परिभाषा ऐसी कर रखी है कि यह संख्या घटाकर एक-तिहाई कर दी जाती है। क्या 28 रु. गांवों में और 32 रु. रोज शहरों में कमानेवाले ही गरीब हैं? जो इससे थोड़ा भी ज्यादा कमाता है, क्या वह अमीर है?  क्या 28 और 30 रु. में किसी व्यक्ति के रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्स और मनोरंजन की व्यवस्था हो सकती है? गरीबी की रेखा कम से कम 100 रु. रोज पर खींची जानी चाहिए। दूसरा, देश के जितने भी चुने हुए प्रतिनिधि हैं याने सांसद, विधायक, पार्षद और पंच अपने बच्चों को सिर्फ सरकारी स्कूलों और कालेजों में ही पढ़ाए। यह नियम समस्त सरकारी अफसरों और कर्मचारियों तथा जजों पर भी लागू हो। इसी आशय का फैसला इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कुछ दिन पहले देकर मेरे अभिमत का समर्थन किया है। यह नियम यदि सारे देश में लागू किया जाए तो भारत की शिक्षा-व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा। गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों पर सरकार का नियंत्रण कुछ इस तरह का हो कि उनकी स्वायत्ता तो बनी रहे लेकिन वे लूट-पाट के केंद्र न बनें। तीसरा, यही नियम चिकित्सा के मामले में लागू हो। किसी भी जन-प्रतिनिधि और सरकारी कर्मचारी और उसके परिजन को यदि अपना इलाज़ करवाना हो तो वह सरकारी अस्पतालों में ही करवाए। अपवादस्वरुप यदि कहीं बाहर इलाज़ कराना जरुरी हो तो वह विशेष अनुमति लेकर ही कराया जाए। यदि यह नियम सख्ती से लागू कर दिया जाए तो देश की चिकित्सा व्यवस्था में जबर्दस्त सुधार हो जाएगा और गरीब से गरीब आदमी को भी इलाज से वंचित नहीं रहना पड़ेगा। चौथा, देश के सारे काम-काज से अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म की जाए। अंग्रेजी के माध्यम से किसी भी विषय की पढ़ाई नहीं की जाए। उस पर कानूनी प्रतिबंध हो। संसद में, सरकार में, अदालतों में अंग्रेजी के प्रयोग पर अर्थदंड हो। विदेशी भाषाएं उन्हीं देशों में चलती हैं, जो कभी गुलाम रहे हैं। सरकारी नौकरियों की भर्ती में अनिवार्यता समाप्त की जाए। पांचवां, सरकारी नौकरियों में दिया जा रहा जातीय आरक्षण खत्म किया जाए। नौकरियां सिर्फ योग्यता के आधार पर दी जाएं। आरक्षण केवल 10 वीं कक्षा तक शिक्षा में दिया जाए। वह भी जाति नहीं, जरुरत के आधार पर दिया जाए। जो भी वंचित, दलित, गरीब हो, उसके बच्चों को भोजन, वस्त्र, निवास और शिक्षा मुफ्त मिले। छठा, हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं के आय-व्यय का सारा हिसाब प्रतिवर्ष सार्वजनिक किया जाए। यह नियम समस्त सरकारी अफसरों पर भी लागू किया जाए ताकि भ्रष्टाचार पर कुछ नियंत्रण हो सके। सातवां, आयकर की व्यवस्था समाप्त हो और उसके स्थान पर व्यय कर लगाएं। आमदनी नहीं, खर्च पर रोक लगे। ऐसा करके हमारी सरकार उस भारतीय आदर्श जीवन-व्यवस्था को प्रोत्साहित करेगी, जो ‘त्याग के साथ भोग’ का आदर्श उपस्थित करती है। यह व्यवस्था भारत को अमेरिकी उपभोक्तावाद की नकल से मुक्त करेगी। हमारी सरकारों के पास मैलिक विचारों का अभाव है। हमारे नेता नौकरशाहों की नौकरी करते हैं। वे विदेशी विचारों को जस की तस निगल लेते हैं। इस व्याधि से बचने की जरुरत है। आठवां, हमारी केंद्र सरकार को चाहिए कि वह यूरोपीय संघ की तरह दक्षिण और मध्य एशिया के सभी देशों का एक महासंघ खड़ा करें। यदि हम इस महान योजना को लागू कर सकें तो अगले 10 वर्षों में हमारे देशों के बीच न तो युद्ध होंगे, न फौजों पर अंधाधुंध खर्च होगा और न ही कोई गरीब रहेगा। इन देशों में छिपे हुए खनिज पदार्थों के खजाने खुल पड़ेंगे। यह 21 वीं सदी एशिया की सदी बन जाएगी। सुझाव तो कई और भी हैं लेकिन सरकार इन्हें लागू कर दे तो ही चमत्कार हो जाए।

 

 

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