यह कैसा ‘बड़ों का सदन’?

संविधान के मुताबिक वित्त विधेयक को पास करने का अधिकार सिर्फ लोकसभा को है। राज्यसभा उस पर बहस तो कर सकती है लेकिन उसे गिरा नहीं सकती। इस बार लाए गए इस वित्त विधेयक में सरकार ने 40 संशोधन पेश किए हैं। राज्यसभा के विरोधी सदस्यों का कहना है कि इन संशोधनों का का वित्त विधेयक से क्या लेना-देना है? इनमें से कई संशोधन ऐसे हैं, जिन पर राज्यसभा में मतदान होना चाहिए। राज्यसभा ने उन पर मतदान करके उन्हें गिरा भी दिया है। ऐसे पांच संशोधन हैं, जिन्हें उसने रद्द कर दिया है। राज्यसभा के कांग्रेसी और कम्युनिस्ट सदस्यों का कहना है कि इन संशोधनों पर संसद के दोनों सदनों को अलग से बहस और मतदान करना चाहिए था लेकिन सरकार को डर है कि राज्यसभा में उसका बहुमत नहीं है, इसलिए वे गिर जाएंगे। इसी डर के मारे सरकार ने उन्हें वित्त विधेयक का हिस्सा जबर्दस्ती बना दिया ताकि अकेली लोकसभा से पास होने पर भी वे कानून बन जाएं। राज्यसभा द्वारा रद्द किए गए इन पांच संशोधनों को लोकसभा पास कर देगी तो वे पास हो जाएंगे।

सरकार की इस प्रवृत्ति पर राज्यसभा में काफी रोष प्रकट किया गया है। कांग्रेस के वीरप्पा मोइली ने तो यहां तक कह दिया कि राज्यसभा का होना न होना एक बराबर है। यदि राज्यसभा के साथ मोदी सरकार ऐसा ही बर्ताव करती रहे तो राज्यसभा के सभी सदस्यों को इस्तीफा दे देना चाहिए। इतना गुस्सा करनेवाले राज्यसभा सदस्यों के पास इस बात का क्या जवाब है कि सरकार के हर कदम का वे विरोध करने पर उतारु क्यों रहते हैं? क्या सिर्फ इसीलिए कि वे विरोधी हैं और वहां उनका बहुमत है? क्या कभी ऐसा भी होता है कि विरोधी दल के सदस्य पक्षपातरहित होकर बहस और मतदान करते हों? दूसरे शब्दों में संसद में भेड़चाल का ही चलन हो गया है।

पक्ष और विपक्ष के सदस्य आंख मींचकर मतदान करते हैं। पार्टी-नेताओं के इशारों पर नाचते हैं। वे जनता के प्रतिनिधि कम, पार्टियों के प्रतिनिधि ज्यादा होते हैं। जहां तक राज्यसभा का प्रश्न है, उसमें कौन लोग बैठते हैं? वे ही जिन पर पार्टी नेताओं की कृपा होती है। वे चुने कैसे जाते हैं? राज्यों के विधायकों द्वारा! ये विधायक भी अपने नेताओं के इशारे पर नाचते हैं या नोटों से खरीद लिए जाते हैं। दूसरे शब्दों में राज्यसभा में जी-हुजूरों की भीड़ जमा करने की बजाय बेहतर होगा कि उसके सदस्यों का चुनाव उनके राज्यों की जनता सीधे चुनाव द्वारा करे, जैसे कि अमेरिका में होता है। जनता द्वारा सीधे चुने गए सदस्य हर मुद्दे पर अपनी स्वतंत्र राय रखने में थोड़े स्वतंत्र होंगे। तभी राज्यसभा सही मायने में ‘बड़ों का सदन’ कहलाने के योग्य बनेगी।

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