कर्मयोगी श्रीकृष्ण

लोक में कृष्ण की छवि ‘कर्मयोगी’ के रूप में कम और ‘रास-रचैय्या’ के रूप में अधिक है। उन्हें विलासी समझा जाता है और उनकी सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ बताकर उनकी विलासिता प्रमाणित की जाती है। चीर-हरण जैसी लीलाओं की परिकल्पना द्वारा उनके पवित्र-चरित्र को लांछित किया जाता है। राधा को ब्रज में तड़पने के लिए अकेला छोड़कर स्वयं विलासरत रहने का आरोप तो उन पर है ही, उनकी वीरता पर भी आक्षेप है कि वे मगधराज जरासन्ध से डरकर मथुरा से पलायन कर गए। महाभारत के युद्ध का दायित्व भी उन्हीं पर डाला गया है। अनुश्रुति है कि महाभारत का युद्ध समाप्त होने पर जब राजा युधिष्ठिर ने युद्ध में मारे गए अपने सभी परिजनों (कौरवों का भी) की आत्मिक शन्ति के लिए उनके ऊध्र्व दैहिक संस्कार (अन्त्येष्टि-श्राद्ध) किए तो कौरव कुलवधुओं के साथ माता गांधारी भी अपने सौ पुत्रों को तिलांजलि देने के लिए वहाँ पधारीं। तर्पण से पूर्व उन्होंने आँखों पर बँधी पट्टी खोली और अपने कुल का विनाश देखकर रोष में भर उठीं। उनकी क्रुद्ध दृष्टि कृष्ण पर पड़ी और उन्होंने युद्ध पूर्व के उनके गीता-उपदेश को युद्ध का हेतु मानते हुए उन्हें उत्तरदायी ठहराया तथा शाप दिया कि उनकी मृत्यु भी नितान्त एकाकी स्थिति में हो। वे भी अपने वंश का विनाश देखें। इस अनुश्रुति के आधार पर बहुत से लोग कृष्ण को इस युद्ध का उत्तरदायी ठहराते हैं, जबकि वास्तविकता इससे नितान्त भिन्न है।

कृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में निष्काम कर्मयोग के जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया उसे व्यवहार के निकष पर वे आजीवन परखते रहे थे। उन्होंने उसे आचरण में उतारा था और सच्चे अर्थों में आत्मसात् किया था। उनका जीवन लोकसंग्रह के लिए समर्पित रहा। उनके राग में परम विराग और आसक्ति में चरम विरक्ति थी। सभी प्रकार की एषणाएँ उनके नियत्रण में थीं। वे जितेन्द्रिय योगी, दूरदृष्टा राजनीतिज्ञ, परमवीर, अद्भुत तार्किक और प्रत्युत्पन्नमति सम्पन्न महामानव थे।

कृष्ण पृथ्वी-पुत्र थे। वे मिट्टी से जुड़े थे। राजभवन और तृण-कुटीर दोनों के व्यापक अनुभव से वे अति समृद्ध थे। वे भारत में पलने वाले उन कोटि-कोटि भारतीयों के प्रतिनिधि हैं ; जो देह से पुष्ट और मन से सशक्त हैं, जिनमें शोषण और अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष करने की अपार ऊर्जा है ; जिनकी बलवती जिजीविषा और दुर्धर्ष शक्ति असम्भव को भी सम्भव कर दिखाती है। इसीलिए वे वन्द्य और अनुकरणीय हैं।

कृष्ण का जन्म राजकुल में हुआ, किन्तु पले वे साधारण प्रजाजनों की भाँति। गेंद खेली उन्होंने सामान्य ग्वाल-वालों के बीच तो शिक्षा पाई अकिंचन सुदामा के साथ। बचपन से ही उन्होंने जनतान्त्रिक मूल्यों को आत्मसात् किया। प्रकृति के खुले प्रांगण ने उन्हें उत्तम स्वास्थ्य तो प्रदान किया ही, साथ ही उनके हृदय को कोमल और संवेदनशील भी बना दिया। गोकुल और वृन्दावन में रहते हुए उन्होंने क्रूर राजसत्ता के अत्याचारों की विभीषिका देखी, नगरों द्वारा गाँवों का शोषण देखा और तज्जनित आक्रोश से अन्याय के विरूद्ध संघर्ष की ऊर्जा अर्जित की। जीवन संघर्ष के कठोर यथार्थ ने उन्हें व्यावहारिक बनाया। वे खोखले आदर्शों के मिथ्या मोह में नहीं फँसे। रूढ़ियाँ उन्हें बाँध न सकीं और जड़ता भरे विश्वास उन्हें रोक नहीं पाए। युधिष्ठिर की तरह सत्य की रूढ़ि में वे नहीं उलझे। सत्य के वास्तविक स्वरूप को समझने की अद्भुत शक्ति उनका संबल बनी। यही उनकी सफलताओं का आधार भी रही।

वे सच्चे कर्मयोगी थे। राजर्षियों की परम्परा का पालन उन्होंने सदा किया। स्वयं सर्वाधिक शक्तिमान होते हुए भी वे राज-सिंहासन पर नहीं बैठे। केवल ‘किंग-मेकर’ बनकर ही जिये। राज्य का मोह संवरण कर पाना, वह भी उस काल में जब राज्य के लिए राजकुलों में मारकाट मची थी, बड़ी बात थी। ऐसा त्याग कृष्ण जैसा वीतराग महात्मा ही कर सकता है। कर्म की वेदी पर उन्होंने माया-मोह की आहुति दी। सम्बंधों का सुख त्यागा। लोकमंगल कृष्ण-चरित्र का मेरूदण्ड है। वृन्दावन में कंस-प्रेरित राक्षसों के वध से लेकर महाभारत में दुर्योधन की जाँघ तुड़वाने तक की सारी संहार-लीला उन्होंने लोकमंगल के लिए ही रची। सुन्दर उपवन के सृजन के लिए बबूलों और कँटीली झाड़ियों को जड़ से उखाड़ फेंकना माली की विवशता है। ऐसी ही विवशता कृष्ण के समक्ष भी थी। मानवीय-मूल्यों पर कुठाराघात कर पाशविक वृत्तियों का प्रसार करने वालों का संहार ही उस युग में एकमात्र कारगर उपाय बचा था। कृष्ण ने वही स्वयं किया और अपने अनुयायियों से भी कराया। इसीलिए द्वापर युग का अन्तिम चरण सुख-शान्ति से बीत सका।

आज समानता और दलितोत्थान के जो नारे हमारे जनतन्त्र में दिए जा रहे हैं उनका सच्चा जनतान्त्रिक स्वरूप कृष्ण के आचरण में मिलता है। उनके लिए मानवीय धरातल पर सुदामा और किसी किरीटधारी में कोई भेद नहीं। आतिथ्य मूल्य के निर्वाह में वे दोनों के प्रति समान हैं। उनकी दृष्टि में मूल्य मनुष्य की सज्जनता का है, उसके सद्गुणों, सद्भावों और कर्मों का है ; उसके जातिगत या आर्थिक आधार का नहीं। द्वारिकाधीश होकर भी वे सुदामा के परम मित्र हैं। निर्वासित पाण्डवों के हितैषी हैं, शासक सुयोधन के नहीं, जो उनका सगा समधी है। धर्म और न्याय के पथ पर यही सच्चा समानता बोध है। परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि की संकीर्णताओं से मुक्त होकर ही व्यक्ति सामाजिक-न्याय का निर्वाह कर सकता है। यदि हमारे आज के तथाकथित द्वारिकाधीश वोट के लिए जाति की तुच्छ राजनीति से ऊपर उठकर कृष्ण के अनुकरण पर व्यक्ति के गुणों, उसकी क्षमताओं और प्रतिभा को महत्त्व दें तो सामाजिक समानता, न्याय और दलितोत्थान के स्वर्णिम स्वप्न शीघ्र ही साकार हो सकते हैं।

नारी की अस्मिता, स्वायत्तता, स्वाधीनता और गौरव की रक्षा के लिए भी कृष्ण का कृतित्व अनुकरणीय है। उनमें अपहृताओं को अपनाने का साहस है तो सरेआम भरे दरबार में अपमानित होती नारी की अस्मिता बचाने की अद्भुत सामथ्र्य भी है। नारी को अपना पति चुनने की छूट देने के सम्बंध में वे दोहरे मानदण्ड नहीं रखते। जिस प्रकार रूक्मिणी की इच्छा का सम्मान करते हूए उसके भाई की इच्छा के विरूद्ध उसका बलपूर्वक हरण कर लाते हैं, उसी प्रकार अपनी बहिन सुभद्रा को अर्जुन पर आसक्त देखकर बलराम की इच्छा के विरूद्ध सुभद्रा का हरण अर्जुन से करा देते हैं। ऐसा पुरूष चरित्र अन्यत्र दुर्लभ है। पुरूष की मानसिकता अपनी बहिन और दूसरों की बहिन में स्वतंत्रता के प्रश्न पर प्रायः अन्तर करती है। वह स्वयं अपहरण करना तो पसन्द करता है किन्तु अपने कुल की नारी का अपहरण किया जाना कदापि पसन्द नहीं करता। कृष्ण इस मानसिकता से मुक्त हैं। इसीलिए नारी उद्धार के अनुकरणीय उदाहरण हैं।

आजकल नारी-विमर्श की बड़ी चर्चा है। नारी को पुरूष से अलग करके देखा जा रहा है। विभिन्न आन्दोलन और चर्चाएँ जारी हैं। आश्चर्य यह है कि इन सबके बावजूद आज नारी-शोषण चरम-सीमा पर है। नारी-भ्रूण की हत्याएँ हो रही हैं। सरेआम उसे निर्वस्त्र किया जा रहा है। उस पर बलात्कार हो रहे हैं। कहीं उसे बरगला कर घर से भगाकर लाया जा रहा है तो कभी देह व्यापार के लिए विवश किया जा रहा है। वह दहेज की बलि चढ़ रही है। विष पी रही है। परित्यक्ता बनकर अपमानित जीवन जी रही है। कितनी ही द्रुपदाओं के चीरहरण रोज हो रहे हैं किन्तु उनके रक्षक कौरव सभासदों की भाँति या तो बिके हुए हैं या फिर पाण्डवों की तरह रूढ़ सत्य की बेड़ियों में जकड़े हैं। दुर्योधन, कर्ण, भीष्म, द्रोण, शकुनि, युधिष्ठिर आदि सब हंै किन्तु कृष्ण नहीं हैं, जो चीर बढ़ाकर नारी की लाज बचा सकें ; भीम को उनकी प्रतिज्ञा याद दिलाकर निर्लज्ज कामुकों की जंघाएँ तुड़वा सकें। अकेले कृष्ण के अभाव में पाण्डवी शक्ति मूच्र्छित है। आज सारा परिदृश्य महाभारत कालीन मूल्यों के अवमूल्यन-संकट से गुजर रहा है। महाभारत के खल पात्र पग-पग पर सक्रिय हैं। सत्पात्रों में भीष्म-द्रोण जैसों के दर्शन भी यदाकदा हो जाते हैं, किन्तु समूचे परिदृश्य से कृष्ण अनुपस्थित हैं क्योंकि उन्हें हमने मन्दिरों में जड़ मूर्ति बनाकर रख दिया है। उनकी समाज-प्रेरक की भूमिका विस्मृत कर दी है। जब तक उसे पुनः स्मरण नहीं किया जाएगा तब तक नारी-उत्थान दिवास्वप्न ही रहेगा।

कत्र्तव्य-पालन के कंटकाकीर्ण पथ पर वे अभय थे। न किसी शक्ति का भय, न किसी प्रलोभन का मोह और न ही मान-अपमान की परवाह। ऐसा पवित्र चरित्र विश्व-साहित्य में दुर्लभ है। न्याय और सत्य की पुष्टि के लिए संघर्ष करने वालों को उनका चरित्र सदा ऊर्जा और प्रेरणा देता रहेगा संघर्ष-पथ के पथिको के लिए वे आकाश-दीप हैं, ध्रुव-नक्षत्र हैं।

डाॅ. कृष्णगोपाल मिश्र

 

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