राज्यसभा का औचित्य

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rabriवीरेन्द्र सिंह परिहार

गत दिनों ऐसा समाचार पढ़ने को मिला कि वर्ष 2016 में राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनावों में लालू यादव बिहार से अपनी पत्नी राबड़ी देवी और पुत्री मीसा को राज्यसभा में भेजेंगे। उल्लेखनीय है कि बिहार विधानसभा में लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के 80 सदस्य हैं। चूॅकि बिहार विधानसभा से 41 सदस्यों पर राज्यसभा में एक व्यक्ति चुना जाएगा, इसलिए 80 सदस्यों के बल पर लालू यादव के लिए पत्नी और पुत्री को राज्यसभा में भेजना कोई कठिन कार्य नहीं है। लेकिन अहम सवाल यह कि राज्यसभा में लालू यादव पत्नी और पुत्री को ही क्यों भेज रहे हैं। अब इसका जो कारण समझ में आ रहा है, वह यह कि मीसा को तो उसके राजनीतिक भविष्य की दृष्टि से भेज रहे हैं। आखिर में जब लालू ने अपने दोनों बेटों को बिहार में मंत्री बनवाकर उनका कैरियर सुरक्षित कर दिया है, तो-मीसा-तो उनसे वरिष्ठ है, इसलिए राज्यसभा में भेजकर उनका भविष्य सँवारना एक पिता की हैसियत से लालू यादव का कर्तव्य बनता है। इससे भले ही यह अवधारणा बने कि राजनीतिक हैसियत का उपयोग भारतीय लोकतंत्र में वंशवाद की जड़ें मजबूत करने के लिए हो रहा है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि राज्यसभा वरिष्ठों का सदन कहा जाता है। इस मायने में वहां वरिष्ठ लोगों को ही जाना चाहिए। पर लालू यादव जैसे लोग चाहे जो करें। जैसा कि बाबा तुलसी लिख गए हैं- ‘‘समरथ को नहीं दोष गुसांई।’’ आखिर में उनकी पार्टी राजद उनकी जो निजी प्रापर्टी जैसी है।

तो मीसा की बात तो अपनी जगह पर है, पर जैसा कि खबर है कि लालू यादव अपनी पत्नी और बिहार की भूतपूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को भी राज्यसभा में भेज रहे हैं। यह बात अपनी जगह पर है कि नितांत अपढ़ एवं निरक्षर राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाकर लालू यादव ने उनके माध्यम से दसों वर्ष तक बिहार का राजपाट चलाया था। पर बड़ा सवाल यह कि राज्यसभा में राबड़ी के क्या मायने? सूत्रों का कहना है कि लालू यादव सजा होने के चलते राज्यसभा में स्वतः तो जा नहीं सकते, इसलिए वह राबड़ी देवी को राज्यसभा में इसलिए भेजना चाहते हैं, ताकि पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते राबड़ी देवी को बड़ा बंगला मिल सके और उस बड़े बंगले का उपयोग लालू यादव दिल्ली में रहने और अपनी राजनीतिक गतिविधियों के लिए कर सकें। यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में मतदाता राबड़ी देवी और मीसा दोनों को ही खारिज कर चुके हैं।

ऐसी स्थिति में गौर करने का विषय यह है कि संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा की संरचना किस लिए की थी? ज्ञातव्य है कि राज्यसभा को उच्च सदन और लोकसभा को निम्न सदन कहा जाता है। संविधान निर्माताओं को यह आशंका थी कि लोकसभा में प्रतिनिधि चूॅकि जनता से चुनकर आएंगे और चूॅकि आम भारतीय मतदाता एक तो उतना परिपक्व एवं समझदार नही है, दूसरे लोकसभा के सांसद वोट राजनीति एवं सस्ती लोकप्रियता की दृष्टि से कार्य कर सकते हैं। इसलिए संविधान निर्माताओं ने चेक एवं बैलेंस की दृष्टि से राज्यसभा बतौर एक ऐसे सदन का गठन किया जिससे वरिष्ठ, समझदार एवं जवाबदेह लोग पहंुच सकें। ताकि वोट राजनीति के नुकसान की भरपायी की जा सके और राष्ट्रहित के प्रतिकूल फैसले और कृत्य रोंके जा सकें।

ल्ेकिन लालू यादव जैसे लोगों ने जो भले ही अपने को जय प्रकाश और डाॅ. लोहिया का वारिस बताते हों, पर असल में राजनीति उनके निजी स्वार्थों और पारिवारिक हितों का माध्यम बन गई है। तभी तो राज्यसभा की आॅड़ में उन्हें बड़ा बंगला और बेटी का सुरक्षित भविष्य चाहिए। जबकि राज्यसभा के गठन के पीछे उद्देश्य यह था कि यहां जो लोग आएंगे विवेकवान एवं राष्ट्रबोध से युक्त लोग होंगे। ये चुनावी दृष्टि से भले फिट न हों, पर राष्ट्र के लिए उपयुक्त साबित होंगे। पर जब तस्वीर यह कि राज्यसभा वंशवाद की महत्वाकांक्षा का माध्यम बनने जा रही हो, तो फिर और क्या कहना?

यह तो तस्वीर का एक पहलू है, तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि संसद के शीत-सत्र में कांग्रेस पार्टी द्वारा कुछ दूसरे विपक्षी दलों के सहयोग से संख्या-बल के चलते राज्यसभा को नहीं चलने दिया गया। इसका मूल कारण तो नेशनल हेराल्ड मामले में सोनिया और राहुल के विरुद्ध न्यायालय द्वारा अपराध पंजीबद्ध किया जाना और उन्हें सम्मन भेजा जाना था। पर इसके लिए तरह-तरह के बहाने बनाये गए और राज्यसभा को बार-बार बाधित किया गया। यहां तक कि पूर्व मंत्री कुमारी शैलजा के बारे में कहा गया कि दो वर्ष पूर्व द्वारिका मंदिर में उनसे उनकी जाति पूछी गई थी, इसी तरह से राहुल गांधी द्वारा कहा गया कि उन्हें आसाम के एक मंदिर में जाने से रोका गया, जबकि इन बातों में कोई सच्चाई नहीं थी। इसके चलते जी.एस.टी. जैसा महत्वपूर्ण बिल तक नहीं पारित हो पाया, जिससे देश की अर्थव्यवस्था में काफी बेहतरी आ सकती है।

वैसे भी स्वतंत्र भारत में राज्यसभा में का जो स्वरूप रहा है, वह संविधान निर्माताओं की आकांक्षाओं को कतई पूरा नहीं करता। अमूमन राज्यसभा चुनाव हारे राजनीतिज्ञों की शरण स्थली बन गई है। इतना ही नहीं कैसे-कैसे लोग अपने स्वार्थों और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए राज्यसभा में जाने की जुगाड़ बैठाते रहते हैं, यह आए दिन देखने को मिलता है। कुछ नेता राज्यसभा में अपने कृपापात्रों को भेजकर उपकृत करते रहते हैं। खासतौर पर हाल के वर्षों में राज्यसभा का जो स्वरूप देखने में आया है, उसमें जैसी हुल्लड़बाजी, अराजकता और यहां तक कि अमर्यादित आचरण देखने को मिला है, उसे किसी तरह से वरिष्ठों का या उच्च सदन नहीं कहा जा सकता। लाख टके की बात यह कि अब तो राज्यसभा की कार्यवाही रोककर पूरी संसद और संसदीय लोकतंत्र को ही अप्रसांगिक बनाया जा रहा है। प्रकारांतर से ही इस तरह से राष्ट्र के विकास और तरक्की को ही रोका जा रहा है। ऐसी स्थिति में यह गंभीर विचार की आवश्यकता है कि राज्यसभा की गरिमा कैसे कायम हो सके। कम-से-कम इतना तो किया ही जा सकता है कि राज्यसभा की उम्मीदवारी के लिए एक न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निश्चित की जाए, साथ ही उच्च सदन होने के चलते इसका सदस्य होने के लिए न्यूनतम 50 वर्ष की समय-सीमा तय की जाए। निस्संदेह इससे राबड़ी देवी और मीसा जैसे लोग राज्यसभा में जाकर उसे मजाक नहीं बना पाएंगे। इसके साथ जड़ता एवं गतिरोध तोड़ने के लिए यह भी आवश्यक है कि यदि लोकसभा दुबारा किसी बिल को पास कर दे तो राज्यसभा के पास हुए वगैर भी वह विधेयक का रूप ले सकेगा।

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  1. राज्य सभा को करीब करीब सभी राजनैतिक दलों ने अपने चहेतों के लिए सदुपयोग या दुरूपयोग किया है. लालू यादव भी इसके अपवाद नहीं हैं. अगर राज्य सभा नहीं होता,तो कम से कम केंद्र के दो प्रमुख मंत्री तो बाहर होते ही.मनमोहन सिंह भी प्रधान मंत्री नहीं बनते.

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