अब न बुद्ध हैं, न आम्रपाली, न ही वह वैशाली रही; क्या गणतंत्र है?

 [वैशाली, बिहार से यात्रा संस्मरण]

राजीव रंजन प्रसाद

भगवान महावीर की जन्मस्थली –वैशाली तीन बार भगवान बुद्ध के चरण रज पडने से भी पवित्र हुई है। पटना से लगभग सत्तर किलोमीटर की यह यात्रा मैनें बाईक से की और रास्ते भर नयनाभिराम नजारों से गुजरता रहा। एशिया के सबसे बडे पुल गाँधी सेतु पर से गुजरते हुए सडक के जगह जगह टूटे होने और जाम की अधिकता के कारण छ: किलोमीटर के इस रास्ते को पार करने में आधे घंटे से अधिक लग गये थे। दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का एक आम आदमी दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र की झलकियाँ देखने बूझने के लिये क्यों उत्साहित नहीं होता? वैशाली गंगा घाटी में अवस्थित बिहार तथा बंगाल प्रांत के बीच सुशोभित नगर है। वह दौर जब ज्यादातर राजनीतिक फैसले व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की भेंट चढ जाया करते थे अथवा तलवारों की नोंक पर लिये जाते थे तब लिच्छवियों नें प्रजातंत्रात्मक आदर्शों की मिसाल गंगा तट पर बसे इसी प्राचीन नगर में रखी थी; जिसे आज भी वैशाली के नाम से ही जाना जाता है। प्रत्येक निर्णय उन दिनों सभागृह में बहुमत से लिये जाते थे तथा इस प्रकृया में उम्र और पद का तब कोई भेदभाव न था। वह एक राजा नहीं अपितु बहुत से अधिकार सम्पन्न गणों द्वारा शासित साम्राज्य रहा था। आचार्य चतुरसेन नें जिस आम्रपाली को अपने उपन्यास से पुनर्जीवित किया वह इसी वैशाली की सम्मान प्राप्त वेश्या थी जिसे भगवान बुद्ध के आदर्शों नें प्रभावित किया।

वैशाली में प्रवेश से पहले एक छोटी सी दूकान पर रुक कर मैने कुल्हड वाली चाय का आनंद लिया। सामने नजर गयी तो पाठशाला चल रही थी। कुर्सी पर मास्टर जी विराजमान थे तथा जमीन पर ही आठ-दस लडके और लडकियाँ जिनकी उम्र आठ से बारह वर्ष के बीच रही होगी। मैं उनके बीच चला गया। मास्टर साहब नें अपनी कुर्सी दे दी और कुछ देर बच्चों से मैने बातचीत की। एक सवाल था लोकतंत्र को जानते हो? बच्चे चुप। दूसरा सवाल आपके मुख्यमंत्री का नाम और लगभग सभी बच्चों नें सुर मिला कर जोश से कहा नीतिश कुमार। मैने पूछा कि अपने देखते बूझते तुम बता सकते हो कि तुम्हारी जिन्दगी में क्या क्या बदलाव आये है। कुछ एसे उत्तर मिले जो अखबारों की कतरने भी बनती हैं जैसे एक बालक नें कहा “सडक सब अच्छा हो गया है” एक बालिका नें उत्तर दिया “आज कल लाईन बहुत देर तक रहता है”। इन उत्तरों से कोई निष्कर्ष नहीं निकल सकते हैं। हमें गणराज्य हुए साठ साल से अधिक हो गये और इस समय भी हम उन्हीं बुनियादी सुविधाओं के लिये जूझते लडते रहते हैं जिनमें रोटी-कपडा-मकान-पानी-बिजली-सडक सम्मिलित है।

यहाँ से आगे बढते हुए पहला पडाव था राजा विशाल का किला। कहते हैं कि इस किले की स्थापना इक्ष्वाकु-वंश में उत्पन्न विशाल नामक राजा ने की थी इसी से इस नगर का एक दूसरा नाम विशाला भी था। कालांतर में इस स्थल को अनेकों बदलावों से गुजरना पडा जिसके कि स्पष्ट परिणाम यहाँ चल रही खुदाई में दिखाई पडते हैं। राजा विशाल का गढ़ 81 एकड़ भूमि में फैला है जिसे एक प्राचीन संसद अथवा सभा भवन का अवशेष भी माना जा रहा है। इस संसद में 7777 संघीय सदस्यै इकट्ठा होकर समस्यासओं को सुनते थे और उसपर बहस भी किया करते थे। खुदाई से शुंग-वंश के समय की मिट्टी की बनी हुई प्राचीन सुरक्षा दीवार मिली है जबकि कुषाण काल में इसके ऊपर पक्की ईंटों का घेरा बना दिए जाने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। यह दीवार 60 मीटर लंबी और चार मीटर चौड़ी है। खनन के बाद स्पष्ट प्रमाण मिला है कि कालांतर में इस क्षेत्र के लोगों का नगरीय क्षेत्र में परिवर्तन हो चुका था। यहां घरों से पानी निकलने के लिए नाली होने के प्रमाण मिले हैं तो कुएं जैसी खाई का प्रयोग कूड़ेदान के रूप में होने का पुख्ता सबूत मिला है। इन वस्तुओं को लिच्छवी गणतंत्र से जोड़कर देखा जा रहा है। यहां अब तक मिली वस्तुओं से यह अनुमान लगता है कि तब धर्मनिरपेक्ष शासनकाल रहा होगा; वस्तुत: खुदाई में अब तक किसी भी देवी-देवता की मूर्तियां नहीं मिली है। यह भी प्रतीत होता है कि गढ़ के आसपास चारों तरफ बस्तियां होंगी जहां उत्तम जन-सुविधाएं रही होंगी। नगर के चारो ओर आक्रमणकारियों से बचने के लिये खाई का निर्माण कराया गया होगा। अभी यहाँ से बहुत कुछ बाह्र आना शेष है, खुदाई का कार्य बहुत सुस्त गति से चलता प्रतीत हो रहा है।

[विश्व की सबसे प्राचीन संसद के पुरावशेष] 

वैशाली के संग्रहालय में इसी उम्मीद के साथ मैं पहुँचा था कि संभवत: एक बहुत बडा समय खंड देखने बूझने के लिये मिलेगा किंतु अत्यधिक मायूसी हुई। संग्रहालय में टेर्राकोटा की कुछ वस्तुओं तथा सिक्कों के कुछ साँचों को ही डिस्प्ले पर रखा गया है। प्रतीत होता है शेष प्राप्त अवशेष पटना अथवा अन्य किसी संग्रहालय में स्थानांतरित कर दिये गये हैं।

[वैशाली पुरातत्व संग्रहालय के बाहर एक उल्लेख]

इस मायूसी से बाहर आ कर मैं निप्पोनजी बौद्ध समुदाय द्वारा बनवाये गये विश्वह शांतिस्तूरप पहुँचा। गोल घुमावदार गुम्बद, सुसज्जित सीढियां और उनके दोनों ओर स्वर्ण रंग के बड़े सिंह बहुत ही मोहक प्रतीत होते हैं। सीढियों के सामने ही ध्यानमग्न बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा दिखायी देती है।

[विश्व शांति स्तूप]

सम्राट अशोक के निर्माण के अवलोकन से पहले कोल्हुआ की ओर मुडते हुई एक छोटा सा गाँव दृष्टिगोचर हुआ। मैं उस वर्तमान को देख कर हतप्रभ था जिसे अपने गौरवशाली अतीत के एवज में केवल पर्यटक ही मिले। एक भैंस थान में मुँह लगा कर चारा खाने में व्यस्त थी। सोचने की अपने भंगिमा के बीच मैंने उस भैंस का सिर हल्के से सहलाया शायद पशु को प्रेम का आभास हुआ और उसनें खाना छोड कर अपनी गर्दन उठा दी। मैंने उसकी गर्दन के नीचे सहलाया और फिर लाड में भैंस की गर्दन और उपर उठती गयी, मुझे भी सु:खानुभूति हुई। एक वृद्ध वहीं खडे मेरी गतिविधियों को देख रहे थे, वे मेरे पास आये। प्यास लग आयी थी, मैंने पूछा – पानी मिलेगा बाबा। बगल में ही खडा एक छोटा बच्चा भागता हुआ अपने घर के भीतर घुसा और दौडता हुआ एक ग्लास में मेरे लिये पानी ले आया। मुझे यह पानी पीने से पहले बहुत से सवालों को भी गटकना पडा। मुझे ग्लास के चमकते स्टील के न होने से शिकायत नहीं है लेकिन पानी का रंग और स्वाद……। आह!! अतीत के गर्त में समाये हुए लोकतंत्र; हम भी गणराज्य हैं लेकिन शायद इसकी मूल भावना की इज्जत ही नहीं करते।

[कोल्हुआ स्थित बौद्ध स्तूप तथा अशोक स्तंभ]

भारी मन से कोल्हु आ में उस स्थल तक पहुँचा जहाँ भगवान बुद्ध ने अपना अंतिम संबोधन दिया था। इस महान घटना को चिरजीवी बनाने के लिये सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दि ईसा पूर्व में सिंह स्तंबभ का निर्माण करवाया था। परिसर में प्रवेश करते ही खुदाई में मिला इंटों से निर्मित गोलाकार स्तूप और अशोक स्तम्भ दिखायी दे जाता है। स्तंरभ का निर्माण लाल बलुआ पत्थ र से हुआ है। इस स्तं भ के ऊपर घंटी के आकार की बनावट है तथा इसकी उँचाई लगभग 18.3 मीटर है जो इसका आकर्षण बढाती है। निकट ही वैशाली गणराज्य द्वारा ढाई हजार वर्ष पूर्व बनवाया गया पवित्र कुण्ड है। ऐसा माना जाता है कि इस गणराज्यै में जब कोई नया शासक निर्वाचित होता था तो उनको यहीं पर अभिषेक करवाया जाता था।

[वैशाली गणराज्य निर्मित कुण्ड]

कुण्ड के एक ओर बुद्ध का मुख्य स्तूप है और दूसरी ओर कुटागारशाला है। संभवत: कभी यह भिक्षुणियों का प्रवास स्थल रहा होगा। वैशाली में इतना ही नहीं है महात्माल बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग 100 वर्ष बाद वैशाली में दूसरे बौद्ध परिषद का आयोजन किया गया था। इस आयोजन की याद में दो बौद्ध स्तूदप बनवाए गए। वैशाली के समीप ही एक विशाल बौद्ध मठ है, जिसमें महात्माद बुद्ध उपदेश दिया करते थे। इन स्तू पों का पता 1958 की खुदाई के बाद चला। भगवान बुद्ध की राख पाए जाने से इस स्थातन का महत्व काफी बढ़ गया है। सौभाग्य से भगवान बुद्ध के अस्तित्व का अंतिम गवाह वैशाली से प्राप्त उनकी राख के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे पटना स्थित संग्रहालय में मिला था।

[कोल्हुआ का बौद्ध स्तूप]

बौद्ध मान्यता के अनुसार भगवान बुद्ध के महा परिनिर्वाण के पश्चात कुशीनगर के मल्लों द्वारा उनके शरीर का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया तथा अस्थि अवशेष को आठ भागों में बांटा गया, जिसमें से एक भाग वैशाली के लिच्छवियों को भी मिला था। शेष सात भाग – मगध नरेश अजातशत्रु, कपिलवस्तु के शाक्य, अलकप्प के बुली, रामग्राम के कोलिय, बेटद्वीप के एक ब्राह्मण तथा पावा एवं कुशीनगर के मल्लों को प्राप्त हुए थे। अशोक स्तंभ को ध्यान से देख कर निराशा की भावना से भर गया हूँ। प्रतीत होता है कि स्तंभ को बहुत बाद में घेरा गया है क्योंकि आधा स्तंभ तो गीता लव अशोक और रागिनी लव प्रकाश जैसे शिलालेखों से पटा पडा है यहाँ तक कि इन प्रेम की अल्हड प्रस्तुतियों नें स्तम्भ पर अंकित प्राचीन लिपि को भी नुकसान पहुँचाया है। मेरे सामने एक परिवार स्तूप पर तस्वीरे खिंचवा रहा है, दो बच्चे स्तूप पर जूते पहन कर चढ गये हैं जिनका साथ देने के लिये उनके पिताजी मय पत्नी और साली के पत्थरों पर चढ रहे हैं। मैं कुढ रहा हूँ अपनी विवशता बल्कि इस परिवार को अपनी नाराजगी से अवगत भी करा देता हूँ लेकिन यह देश “चलता है” वाली प्रवृत्ति से ग्रसित है। धरोहर का सम्मान नहीं कर सकते तो कमसेकम भगवान बुद्ध का तो सम्मान करो…..। वहाँ कोई सेक्युरिटी गार्ड भी मुझे नहीं दिखा और टिकट जाँचने वाला कर्मचारी भी मेरी आपत्ति से कोई लेना देना नहीं रखना चाहता था। मुझे कोई शिकायत पुस्तिका भी उपलब्ध नहीं करायी गयी। हे बुद्ध!! क्षमा करना कि समन्दर में कंकड मारने की मेरी कोशिश भी नाकाम हो गयी।

[भगवान महावीर की जन्मस्थली कुण्डलपुर, वैशाली]

भगवान महावीर की जन्मस्थली कुण्डलपुर होने का दावा दो स्थल करते हैं पहला नालंदा और दूसरा वैशाली। नालंदा में एक गर्भगृह तथा कुछ भव्य मंदिर भी बनाये गये हैं। इतिहासकार वैशाली को ही 599 ईसा पूर्व अवतरित भगवान महावीर की वास्तविक जन्मस्थली मानते हैं। यह स्थल अभी तक न जाने क्यों उपेक्षित रहा है किंतु अब यहाँ संगमर्मर का एक भव्य मंदिर निर्माणाधीन है। मंदिर के मॉडल को ध्यान से देखने के पश्चात यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि यह स्थल शीघ्र ही वैशाली में प्रमुख धार्मिक एवं पर्यटन स्थल बनेगा।

[भगवान महावीर की जन्म स्थली पर निर्माणाधीन मंदिर का मॉडल]

मुस्लिम शासकों विशेष कर बख्तियार खिलजी के काबिज होने के पश्चात से वैशाली नें अपना गौरव लगभग खो ही दिया था और आज भी यह नगर अपने सम्मान को लौटाये जाने की कठिन लडाई लड रहा है। मैं अतीत के लोकतंत्र की स्मृति स्थली से लौट रहा हूँ, रात हो गयी है। गाँधी सेतु से कुछ पहले वीआईपी गाडियों का सायरन सुनाई पडता है, यह लालू जी का काफिला है और उन्हें देख पाने का सु:ख उठाते हुए गाँधी सेतु से गंगा को देखता हूँ जो रोशनी में कहीं कहीं हिलती और बहती प्रतीत होती है। बात की जाये तो किनारे खडे नाव और जहाज भी अपनी कहानी कहने के लिये बेचैन दिखते हैं क्योंकि गाँधी सेतु बनने के बाद से जलपरिवहन लगभग न्यूनतम हो रहा है। अब थक गया हूँ इस लिये अपने आप से भी बात करने की हिम्मत नहीं बची।

3 COMMENTS

  1. आपके इस लेख से बड़ी प्रेरणा मिली। अपने गौरव शाली इतिहास के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा।

  2. आपके इस आलेख से काफी जानकारी मिली -मैं इस प्रान्त(मिथिला जो गंगा के उत्तर का है जिसका दक्षिणी भाग वैशाली माना जाता रहा है ) का होकर भी कभी नहीं जा सका हूँ .
    मिथिला में राजा जनक के बाद सबसे पहले जनतंत्र आया पर आधुनिक इतिहास्वले राम-सीता को ही नहीं मानते
    खंडहर घुमने का शौक अछा है पर यह भी जानना चाहिए की वे खंड हर हुवे क्यों?
    बौद्ध मतमे कुछ खामियों में यह भी एक है अपने अंतर्विरोधों के कारण ऐसा हुवा वा मिथिला के विद्वानों के कारण – उधर भी पर्यटकों के एनाजर जानी चाहिए

    गांधी सेतु को asia का सबसे बड़ा सड़क पूल शायद गलत है विकिपीडिया के अनुसार

  3. कुशी नगर के बारे में जानने के लिए www . maunasonline .com पर dekhe

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