यूं ही गांधी के आदर्श राम नहीं थे। जीवन की जटिलताओं को सहजता से स्वीकार करने के लिये हम किसी जीवित व्यक्ति को गुरू तो मान सकते हैं किन्तु भारत में उन्हें आदर्श मानने की परंपरा नहीं रही है। उसके पीछे कारण यह है कि जीवन की ऊहापोह में व्यक्ति का स्वयं सदैव आदर्शवादी बने रहना सरल नहीं होता। आलोचना उनकी भी होती है। देश के विभाजन, सरदार पटेल की अनदेखी, मुसलमानों का पक्ष, क्रांतिकारियों से विलगाव, नेहरू से लगाव जैसे बहुत से आरोप गांधी पर लगते रहे हैं। संभव है इन दावों में दम हो, लेकिन इन सब के बावजूद भी आजतक गांधी को जिस रूप में स्थापित किया गया, उसने गांधी को नोटों पर जगह देने से ज्यादा कुछ नहीं किया। बापू और राष्ट्रपिता की संज्ञा भी जिसने दी, गांधी ने उस योग्य देशभक्त को भी अयोग्य नेहरू के सामने स्थान नहीं दिया। देश से संबंधित अनेक पहलुओं पर गांधी की हार को छुपाने के लिये जिस साहित्य की रचना हुई उसने गांधी को आलोचनाओं का शिकार बना दिया। यह गांधी के राजनीतिक जीवन का पक्ष है। लेकिन इसके इतर एक और गांधी था जिसका संबंध जीवन को आयुपर्यंत आदर्श स्थिति में जीने से था। अतः यह लेख, गांधी की प्रशंसा न होकर, गांधी की जीवनपर्यंत साधना में रामत्व का समावेश था, इस पक्ष को स्थापिता करने के लिये है।
राम ने जीवन भर वचनों का पालन किया और गांधी ने व्रत का। एक मर्यादा पुरूषोत्तम और एक महात्मा। गांधी के रामराज्य की कल्पना, राम को आत्मसात् करने का परिणाम थी। संभव है, राम उनके रोम में जीवन के मध्याह्न में बसे हों, किन्तु सत् उनके जीवन में सदैव था। इसीलिये, गांधी जब-जब व्रतच्युत हुये, राम का आदर्श उन्हें संभालता रहा।
वचन भंग न हो, इसके लिये राम ने हरेक त्याग किया। समाज में नैतिकता शिथिल न पड़े, इस हेतु अनुज सहित स्वयं के साथ अद्र्धांगिनि को भी कर्तव्यपथ से च्युत नहीं होने दिया।
स्वयं के साथ अपनों को भी कष्ट होगा, किन्तु समाज में आदर्श स्थापित करने के लिये जीवन की एक परीक्षा में, राम ने सत्य जानते हुये भी, मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करने के लिये सीता को पुनः अग्निपरीक्षा देने का कठोर आदेश दिया। अपने उन निर्णयों पर लगे सभी आरोपों को स्वीकार किया किन्तु आदर्श भंग नहीं होने दिया। अन्य राजाओं की भांति उनके पिता की भी एक से अधिक रानियां थीं किन्तु राम ने एकपत्नी का आदर्श प्रस्तुत किया और वास्तव में तभी से भारतीय समाज ने अपनी संस्कृति में बहुपत्नी प्रथा के स्थान पर एकपत्नी संस्कृति को आगे बढ़ाया।
गांधी जी का स्वभाव था, व्रत की पवित्रता बनी रहे इसलिये किसी अन्य से हुये अपराध के बदले भी वे स्वयं को कष्ट देकर प्रायश्चित करते थे या दोषी से प्रायश्चित करवा लेते थे। इसका कारण यह था कि गांधी सत्यगामी थे। उनके सत्य के प्रति आग्रह ने ही सत्याग्रह आंदोलन को जन्म दिया। गांधी के आवाहन् पर खड़े आंदोलन जन आंदोलन थे, इसका एकमात्र कारण था- भारत की जनता का गांधी में अगाध विश्वास। विश्वास अर्जित करने के लिये कठोर सत्य को स्वीकारना होता है। गांधी की खूब आलोचना होती है। किन्तु गांधी के इस आदर्श को उनके आलोचक भी सराहते हैं कि गांधी ने अपनी बुरी से बुरी कमी को भी स्वीकार किया है। और लिखित में स्वीकार किया है। क्योंकि समाज वक्तव्यों को नहीं प्रत्यक्ष आदर्शाें को प्रमाण मानता है।
भक्ति का एक ही नियम है, अपने ईश्वर पर अपना सबकुछ न्यौछावर कर दो, वह आप पर अपना सब कुछ वार देगा। यही शाश्वत है। आपने जिसे भी अपना इष्ट माना, चाहे वह ईश्वर हों या आपका कर्तव्यपथ, समर्पण के बिना वह आपको प्राप्त नहीं होगा। और समर्पण तब आयेगा, जब आपकी अपने ईश्वर में-अपने कर्म में श्रद्धा होगी। इसी दायित्वबोध ने गांधी को महात्मा बनाया और राम को मर्यादा पुरूषोत्तम।
जीवन की दीर्घ और अबोध धारा पर चलते-चलते हर प्रकार की परिस्थिति से सामना होता है। हम सबसे जूझते, हारते-जीतते हुये आगे बढ़ते हैं। परिणाम के समय अंतर इससे पड़ता है कि हम क्या से क्या बने। हमने जीवनरेखा पार करने के लिये किन सिद्धांतों को चुना और क्या हम जीवनपर्यंत उनका पालन कर पाये? क्योंकि शपथ लेते समय हम किसी चित्र-चरित्र से प्रभावित होते हैं, जो हमारे भीतर के सच्चरित्र को अल्पसमय के लिये जगा देता है। उस आवेग में जटिलताओं को जाने बिना हम संकल्प तो ले लेते हैं, किन्तु वह शक्ति, जिसने हमें व्रत लेने के लिये प्रेरित किया था, हमारी परीक्षा भी लेती है कि जिस जीव में यह लौ जलाई गई है, वह स्वयं उसे कबतक जलाये रखता है। और कुछ समय के लिये अपना हाथ पीछे खींच लेती है। हम यदि स्वयं श्रद्धावान होकर अपनी शपथ का अपने पूर्ण सामथ्र्य से पालन करते हैं तो वही शक्ति हमारे हृदय में पुनः संचारित हो उठती है, तब लक्ष्य की प्राप्ति निश्चित होती है। पर, ज्यों ही हम संकल्पविमुख हुये, वह शक्ति शनैः-शनैः हृदय से निस्तेज होने लगती है। अब यह शक्ति ईश्वर नहीं तो और क्या है?
गांधी को अपने ईश्वर में विश्वास था, इसलिये उनके ईश ने उस शक्ति को सदैव तेज रखा। गांधी के पूरे जीवन में यह शक्ति सदैव साथ रहती है। जिसके बल से गांधी के विरोधी भी सैद्धांतिक पक्ष से न सही व्यवहारिक पक्ष से उनके साथी बन जाते थे। गांधी के आदर्श और उनके राजनीतिक गुरू, गोपालकृष्ण गोखले ने गांधी के विषय में कहा था कि- ‘‘गांधी में ऐसी अद्भुत शक्ति है, जिसके प्रभाव से उससे जुड़े साधारण लोग भी वीरत्व और शहादत के लिये प्रेरित होते हैं।’’
परिस्थिति और परिवेशवश आलोचना और अवगुण सभी के होते हैं। जो तब प्रासंगिक था, वह आज नहीं भी हो सकता और जो आज सही है, संभव है वह अगली शताब्दी में उसी रूप में स्वीकार्य न हो। इस कारण से हम किसी भी व्यक्ति के तपतेज को कम नहीं कर सकते। समझना यह है कि समाज में राम और गांधी नहीं, उनका तप विद्यमान है। इसलिये वे सभी अपने तपरूप में सदैव विद्यमान रहेंगे।
गांधी अध्येयता थे। बौद्ध और उपनिषद् के महान् दार्शनिक साहित्य से भी परिचित थे। दक्षिण अफ्रीका में रहते समय वह इस्लाम के सम्पर्क में भी आये। पैगम्बर मुहम्मद की महानता, बहादुरी और उनके अतिसरल जीवन से काफी प्रभावित हुये। साथ ही ईसा ने जो मूल उपदेश दिये थे, गांधी के लिये वे बहुत प्रेरणादायक थे। रोमा रोलां लिखते हैं कि ‘‘एक अंग्रेज़ पादरी ने जब (25 फरवरी 1920 को) गांधी से यह पूछा कि आप पर किन पुस्तकों का ज्यादा प्रभाव पड़ा है, तो गांधी ने जवाब दिया, ‘बाइबिल के नवविधान‘ का।’’ गांधी कहते थे कि उन्हें सत्याग्रह का बोध इस ग्रंथ को पढ़ने के बाद हुआ। इस पर एक पादरी ने उनसे पूछा कि क्या आपने इस तरह का संदेश किसी हिन्दू धर्मशास्त्र में नहीं देखा है? तो गांधी का जवाब था- श्रीमद्भगवत गीता। गांधी ने कहा- मुझे सत्याग्रह के रहस्य का बोध बाइबिल के नवविधान ने कराया, मेरे भीतर इसे पुष्ट किया गीता ने।
1927 ई. में कोलम्बो में वाई.एम.सी.ए के सम्मेलन को सम्बोधित करते हुये गांधी ने ईसा धर्म के प्रति अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुये कहा था- ‘मुझे यह कहने में बिल्कुल हिचक नहीं है कि हाँ, मैं एक ईसाई हूँ।… लेकिन ईसाइयत के बारे में जो प्रचारित किया जाता है, वह ईसा के वास्तविक उपदेशों से एकदम भिन्न है।’ और जो प्रचारित किया जाता था, वह संक्षेप में यह कि ‘ईश्वरीय कृपा से गैर-ईसाई वंचित रह जायेंगे’।
गांधी के अनुसार, ईसा के पास प्रेम की शक्ति थी। ईसाई धर्म प्रचारकों ने इसका रूप विकृत कर दिया। यह राजाओं का धर्म बन गया। साम्राज्य विस्तार की लोलुपता के कारण, ईसाइयत सदियों तक, अत्यन्त साम्प्रदायिक और हिंसक बनी रही। इसलिये ईसा के सात्विक दर्शन से परिचित होने के बावजूद, वे ईसाइयत कबूल करवाने के लिये आने वाले तमाम ईसाइ धर्म प्रचारकों को बुरी तरह झिड़क देते थे। धर्म परिवर्तन के विषय में वे कहते थे- ‘‘कमोबेश अंशों में सभी धर्म सच्चे हैं। लेकिन अगर एक बाड़े से निकलकर दूसरे में चले जाने से कोई नैतिक उत्थान न होता हो, ऐसे परिवर्तन से क्या लाभ?’’ जीवन के एक पड़ाव पर आकर उनको यह आभास हुआ कि स्वधर्म में रहकर भी अन्य धर्माें की सात्विक बातों को अपनाया जा सकता है और अपने धर्म की कुरीतियों को दूर किया जा सकता है। अन्यथा जो अपनों का नहीं हो सका, वह अन्यों को कैसे हो सकेगा? आगे चलकर दलितोत्थान के लिये जीवनपर्यंत प्रयासरत रहना, स्वधर्म के प्रति उनकी निष्ठा को व्यक्त करता है। सभी का मूल एक ही है, सभी महापुरूषों को अलग-अलग मार्गाें से इसी एक तत्व का दर्शन हुआ है।
ज़रा समझिये- यदि दुनिया में केवल एक ही व्यक्ति होता, एक ही नदी, पहाड़, पेड़, पुस्तक, दर्शन, धर्म आदि, सब एक ही होते तो किसी के नामकरण की क्या आवश्यकता थी? लेकिन व्यक्ति से परिवार, समाज, राष्ट्र बने तो सभी की पहचान के लिये उन्हें एक संज्ञा भी दी गई। इसी प्रकार जब किसी को एक धर्म की व्याख्या अथवा रीतियां रास नहीं आईं और उसके आग्रह पर सम्बंधित धर्म के धर्मावलंबियों ने बदलाव नहीं किया तो उसी धर्म का आधार बनाते हुये, अपनी सुविधा के लिये उसमें कुछ बदलाव कर उसने नये मत का पालन करना प्रारंभ कर दिया। धीरे-धीरे उस मत को मानने वालांे की संख्या बढ़ी तो वह एक नया पंथ बन गया। इस प्रकार आज हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, यहूदी, बौद्ध, जैन, पारसी आदि कई मत प्रचलन में है। सभी को मूलस्त्रोत, मूलतत्व और लक्ष्य एक ही है, बस धारा अलग है।
धर्म तो एक ही है- मानव धर्म। यही सभी मतों का एकमात्र दर्शन है। इसी तत्व ने गांधी को भी प्रेरित किया। जिसका मर्म उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया- नर सेवा: नारायण सेवा। गांधी ने ‘मेरे सपनों का भारत’ में अपनी बात को स्पष्ट करते हुये कहा है- ‘‘ मैं जितने धर्माें को जानता हूँ, उनमें सब में हिन्दू धर्म सर्वाधिक सहिष्णु है। मेरा हिन्दू धर्म मुझे सभी धर्मोें का सम्मान करना सिखाता है। यह न केवल मनुष्यमात्र की बल्कि प्राणीमात्र की एकता और पवित्रता में विश्वास रखता है।’’(यंग इंडिया, 20.10.1927) वास्तव मंे, उनका मन सभी धर्माें में समान संदेश की खोज करता था। जिसको उन्होंने पाया भी। इसके पीछे वही संकल्पशक्ति थी।
रामराज्य की कल्पना को स्पष्ट करते हुये 1929 के ‘यंग इंडिया’ में गांधी ने लिखा था कि ‘रामराज्य से मेरा अर्थ हिन्दूओं के राज्य से नहीं है। रामराज्य अर्थात- जहां अंत्योदय की प्रकृति राज करती हो।’ इस पृथ्वी पर कभी राम थे भी अथवा नहीं, यही मेरी अपनी कल्पना है किन्तु ग्रथों में जिस रामराज्य की चर्चा है वह वास्तविक लोकतंत्र है। जब कोई सर्वाेन्मुखी होकर सभी के दुःख-सुःख और आवश्यकताओं को अपना मान लेता है, जो राजा और रंक में बिना भेद के न्याय करता है, वह राजकार्य का सबसे उपयुक्त उत्तराधिकारी होता है। वास्तव में यही सिद्धांत गांधी का रामराज्य है।
गांधी, टालस्टाॅय की बात को दोहराते हुये कहते थे कि- ‘भगवान का राज्य हमारे अंदर होता है।’ अंदर बैठा यही भगवान हमें सत् की ओर प्रेरित करता है। गांधी का चिंतन समाज के सबसे निम्न वर्ग के आखिरी व्यक्ति के सुःख और कल्याण के लिये होता था। यह उनके इन तीन घटनाक्रमों से स्पष्ट होता है।-
30 जनवरी 1927 को पटना में खादी प्रदर्शनी के उद्घाटन के अवसर पर गांधी जी ने अपने भाषण में एक ज़िक्र किया था- ‘‘एक लड़की ने उनसे पूछा ‘आपका चरखा हमें क्या दे सकता है? हमारे पास जो आदमी आते हंै, उनसे कुछेक मिनटों के 5 या 10 रूपये मिल जाते हैं।’ गांधी जी का उत्तर था- ‘यदि आप लज्जास्पद जीवन त्याग दें तो मैं आपको कातना और बुनना सिखाने का प्रबंध कर सकता हूं। इससे आपको अधिक तो नहीं किन्तु समुचित जीविका कमाने में सहायता मिल सकती है।’’ शायद वे उस महिला के सहारे, सभी के अंदर बैठे भगवान को जगा रहे थे।
गांधी का खादी के प्रति विशेष आग्रह रहता था। उनके अनुसार खादी पहनना अर्थात व्यक्ति में एक गुण अधिक होना था। खादी पहनने के लिये गांधी एक उदाहरण देते थे- ‘उन्हें एक वेश्या मिली जो खादी पहनती थी। उसने गांधी जी से कहा कि आप ईश्वर से प्रार्थना कीजिये कि हम इस दोष से छूट जायें। गांधी जी इससे बड़े प्रभावित थे। जब एक वेश्या अपनी कमाई का एक हिस्सा देश के गरीब की झोली में दे सकती है और इस एक गुण के बल पर पाप मुक्त होने की कामना करती है। आप तो फिर भी कुलीन समाज के लोग हैं।
शांति और अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी ने कारागृह सुधार की भरसक वकालत की है। उनका कहना था कि सजा़ का आदेश और जेलों में उन पर शारीरिक अत्याचार अक्सर उनकी आपराधिक प्रवृत्ति को बढ़ाता है। जेलों की सुधार का संबंध वे ग्राम स्वराज्य से जोड़ते थे। खादी के प्रति विशेष आर्कषण के नाते उनका कहना था कि- ‘‘सभी जेलों को हाथ से कताई और बुनाई कौशल विकास के लिये हथकरघा प्रशिक्षण संस्थान के रूप में परिवर्तित हो जाना चाहिये। यदि मेरा यह सुझाव माना जाये तो जेल सीधे गांवों से सम्बद्ध हो जायेंगे और खादी का संदेश जन-जन तक फैलेगा। एक क़ैदी आदर्श व्यक्तित्व के रूप में रिहा होगा।’’ वास्तव में जेल सुधार से महात्मा गांधी का अभिप्राय हर अंतिम व्यक्ति के जीवन में सुधार से होता था।
कहावत है कि यदि आप अच्छे नौकर नहीं बन सकते तो अच्छे मालिक भी नहीं बन सकते।
रामायण कहती है- विश्वामित्र नाम के ब्रह्मर्षि राजपरिवार में जन्मे राम को, उनके पिता दशरथ से वन ले जाने और असुरदलन के लिये मांग लाते हैं। इसके बाद रावण वधकर ही राम अयोध्या लौटते हैं। लेकिन यहां एक दर्शन छिपा है। राजठाठ ही राजा और प्रजा में दूरी स्थापित करता है। विश्वामित्र जानते थे कि राम यदि राज-जीवन में पले-बढ़े तो एक आदर्श राजा की उपयोगिता को पूरा नहीं कर पायेंगे। यह समझ विकसित करने के लिये उन्हें सबसे एकाकार होना होगा। कष्ट निवारण के लिये, पीड़ा का स्वाद चखना होगा। न्याय देने के लिये अन्याय की कठोरता सहनी होगी। युद्ध विजय के लिये सेना के बिना, घाव सहने होंगे और निरंतर सहने होंगे। ऐसा नहीं है कि राजा बनने के बाद आपको इनसे मुक्ति मिल जायेगी। यहां जय-पराजय का प्रश्न नहीं है बल्कि योग्य शासक के यही मानदंड होते हैं। ब्रह्मर्षि की इस कसौटी पर राम खरे उतरते हैं। जब वे वन जाते हैं तो रथ त्याग कर, मुनिवेश धर, गुरू के साथ पैदल ही चलते हैं। वास्तव में यहीं से रामराज्य की झलक दिखनी प्रारंभ हो जाती है। राम प्रत्येक क्षण धर्म, सत्य और न्याय का ध्यान रखते हैं। यही कारण है कि समाज के सबसे पिछड़े वर्ग से भी संवाद स्थापित कर पाते हैं। अन्यथा वह समाज उन्हें स्वीकार ही नहीं करता। इसीलिये गांधी ने राम को आदर्श माना।
कल्पना करिये, गांधी गाड़ी में बैठकर डांडी मार्च या सत्याग्रह का आंदोलन करते तो क्या वे सभी जनांदोलन बन पाते? पैदल चलकर, गांव-गांव रहकर, ग्रामीणों को अपने साथ मिलाकर गांधी का बढ़ाया हुआ एक-एक कदम पूरे भारत में जनांदोलन बन उठा, यह सब जिन्ना नहीं कर पाये। बस यही वह एक अमूर्त दर्शन था जिसे धूर्त अंग्रेज भी नहीं समझ सके।
विनोबा भावे का भू-दान आंदोलन ऐसे ही शुरू हुआ। इसके लिये कोई योजना नहीं बनाई गई थी। हुआ यूं कि जब स्वतंत्र भारत की पहली पंचवर्षीय योजना बनाई जा रही थी तो भावे को विचार-विमर्श के लिये दिल्ली आमंत्रित किया गया। विनोबा भावे ने कहा- वे वर्धा से दिल्ली तक रेल यात्रा की बजाये पदयात्रा करते हुये आयेंगे। इसी पदयात्रा में उन्हें कई ऐसे बड़े जमींदार मिल गये जो बेघरों को बहुत बड़़े पैमाने पर अपनी ज़मीन देने की इच्छा रखते थे। और इस प्रकार एक विचार भू-दान आंदोलन बन गया।
त्रेता के राम की वनयात्रा से लेकर आज के गांधी और भावे की पदयात्रा तक एक ही दर्शन है- सर्वाेदय।
क्योंकि भारतीय ज्ञान, प्रदर्शन प्रधान न होकर दर्शन प्रधान है। जिससे प्रसिद्धि नहीं, सिद्धि प्राप्त होती है। रामायण राम को एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श पिता और आदर्श राजा के रूप में स्थापित करती है। गांधी इसी आदर्श राम के उपासक थे।
राम के कुछ कहने के बाद कोई उनसे यह नहीं पूछता कि ‘जो उन्होंने कहा है क्या वह सत्य है? हमारी श्रद्धा है कि राम के वचनों में मिलावट या हेर-फेर का कोई प्रयास नहीं है। जबकि मनुष्य की प्रवृत्ति तो येन-केन स्वयं को सत्य साबित करने की होती है। सत्य बोलने और ग्रहण करने के लिये पात्र का शुद्ध होना जरूरी है और शुद्धता के लिये मौन। गांधी का मानना था कि ‘सत्य के उपासक के लिये मौन अध्यात्मिक अनुशासन का अंश है’ और वे स्वयं इसका अक्षरशः पालन करते थे।
संभवतः यह विवादित है कि अंतिम श्वासों में गांधी के मुख से हे राम! शब्द निकला था अथवा नहीं किन्तु जीवन के उस समय में राम के प्रति गांधी विशेष रूप से आकर्षित हुये थे। सायंकाल की प्रार्थनासभा में सभी से उपस्थित रहने का आग्रह वे स्वयं करते थे। समाज के निम्न, पिछड़े और वनवासी के कल्याण के लिये राम की करूणा के समान प्रवाह गांधी की धमनियों में भी था। जब आंख मुंदीं होती हैं तो महादेव सदैव अपने इष्ट राम का ही ध्यान धरते हैं। गांधी ने अपने जीवन के सभी प्रयोगों के परिणामों और प्रार्थनाओं में सत् के होने का ही अनुभव किया। सत्य के प्रति गांधी के प्रयोगों के भाव में उनके राम ही हैं।
गुलशन गुप्ता
आधुनिक हिन्दुस्तान में अंग्रेजो का पतन और स्वतन्त्रता की यात्रा विभाजन के भीषण दर्द के साथ शुरू हुई। उस विभाजन के एक छोर पर जिन्ना था और दूसरे छोर पर नेहरू थे, दोनों शरीर से हिन्दुस्तानी होते हुए भी मन से अंग्रेज थे। अविभाजित हिन्दुस्तान के हिन्दू और मुसलमान जो सही अर्थो में पूजा पद्धति से ऊपर उठ कर हिन्दुस्तानियत से मोहब्बत करते थे उन्होंने गांधी को अपना आदर्श माना। चतुर नेहरू परिवार ने गांधी को एक ब्रांड की तरह प्रचारित किया, और अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए गांधी ब्रांड का उपयोग किया, जो उनकी राजनीति की आवश्यकता थी। आज जो गांधी जो लोगो के दिलो दिमाग में है, वह परम आदरणीय है, अनुकरणीय है। नेहरू ने भारत को कई समस्याए दी, उसके लिए कुछ लोगो का गांधी के नेहरू प्रेम को जिम्मेवार मानना ठीक नही है। आज भी गांधी सर्वधर्म समभाव और हिन्दुस्तानियत के प्रतीक है। जब जब लोगो को धर्म सम्प्रदाय से ऊपर उठ कर एक दूसरे को गले लगाने की जरूरत होगी तब तब गांधी की आवश्यकता होगी। वास्तव में गांधी का विचार विश्व इतिहास का विशालतम प्रयोग है, जिसके सफल या असफल होने का निर्णय करने का समय नही आया है। अगर कभी भविष्य में भारत और पाकिस्तान प्रेमपूर्वक सहअस्तित्व के साथ रह पाए तो गांधी सफल माने जाएगे। इन अर्थो में गांधी के सच्चे अनुयायी अटल और मोदी सिद्ध होंगे, ना की नेहरू।
उत्तम ! आपका भाव विचार सटीक आकलन करता है | इस भाव विचार का प्रवाह औरों तक भी पहुंचेगा ऐसी आशा है |