आम चुनाव का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

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-प्रमोद भार्गव- election
बहुदलीय संसदीय चुनाव प्रणाली की असली और प्रेरणादायी कसौटी होती है, राजनेताओं की सहिष्णु व सद्भाव की कार्यशैली और मधुरवाणी। लेकिन भारतीय राजनीति की यह विडंबना ही है कि अंततः वह जाति और संप्रदाय के आधार पर वोट हथियाने के केंद्र बिंदु पर जा टिकती है। सोलहवें आम चुनाव में बने माहौल से उम्मीद जगी थी कि इस बार के चुनाव विकास, महंगाई और रोजगार जैसे बुनियादी मुद्दों के बूते लड़े जाएंगे। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव प्रचार चरम पर पहुंच रहा है, वैसे-वैसे प्रतिषोध और कटुता का वातावरण बनता दिखाई दे रहा है। मतदाताओं के धु्रवीकरण के लिए जहां दल धर्मगुरुओं पर आश्रित हो रहे हैं, वहीं मीडिया भी गढ़े मुर्दे उखाड़कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावे की दृष्टि से आग में घी डालने का काम करता दिखाई दे रहा है। यही नहीं अमेरिका ने भी चुनावों में दखल देकर संप्रदाय विशेष के मतदाताओं को भाजपा का डर दिखाकर ध्रुवीकरण के रुख को हवा देने का काम कर दिया है। इस तरह के असहिष्णु वातावरण का निर्माण भारत की धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक चरित्र और व्यवस्था को आहत करने का ही काम करेगा।
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बड़ी शुरुआत कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी ने की है। जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी सोनिया के घर पहुंचे और फिर देश के मुस्लिमों को कांग्रेस के पक्ष में मतदान करने का फतवा सुना दिया। ये वही बुखारी हैं, जिन्होंने उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में सपा के पक्ष में फतवा जारी किया था। यह कैसी विंडबना है कि देश की सबसे पुरानी और अहम् पार्टी को एक ऐसे मौलाना पर आश्रित होना पड़ रहा है, जिनकी राजनीतिक आस्था हरेक चुनाव में बदलती रही है। विश्लेषकों की मानें तो शाही इमाम की यह अपील कांग्रेस को मंहगी पड़ सकती है। इस फतवे से मुस्लिमों का कांग्रेस के प्रति केंद्रीयकरण संदिग्ध है, लेकिन हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण जरूर हो सकता है। ऐसा हुआ तो इसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा। सोनिया गांधी ने इस फतवे की जरुरत जताते हुए कहा है कि ऐसा इसलिए किया गया जिससे धर्मनिरपेक्ष वोटों का बंटवारा न हो ? क्या धर्मनिरपेक्ष सिर्फ मुसलमान हैं, हिन्दू, सिख और ईसाइयों की जमात का चरित्र धर्मनिरपेक्ष नहीं है ? अब यदि किसी अन्य दल के पक्ष में अन्य धर्मों के धर्मगुरु ऐसी ही अपील करते हैं, तो इसे क्या कहा जाएगा ? सोनिया को अब किसी ऐसे मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि धर्मगुरुओं की मुट्ठी में उनकी जाति या समुदाय के वोट बंद हैं। मुसलमान हों या अन्य समुदाय के लोग, वे भेड़-बकरी नहीं रहे कि हांका लगाने की दिषा में समूहबद्ध बढ़े चले जाएंगे ? विकास, शिक्षा और रोजगार का आकांक्षी मुस्लिम युवा, अब अपने वास्तविक हितों के प्रति जागरुक हो गया है। लिहाजा वह किसी मौलाना या बुखारी के फतवे के फेर में पड़ने वाला नहीं है। जाहिर है, इस फतवे के विपरीत परिणाम भी निकल सकते हैं।
समाजवादी पार्टी और उसके मुख्यिा मुलायम सिंह यादव तो अर्से से मुस्लिमों को चुग्गा डालकर ललचाते रहे हैं। सपा के चुनावी घोशणा-पत्र में मुस्लिमों को लाभ पहुंचाने के संविधान विरुद्ध अफलातूनी वादे किए गए हैं। यदि सपा केंद्र में सत्ता संभालती है तो मुस्लिमों को उनकी आबादी के अनुपात में सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाएगा। यह वादा संविधान के बुनियादी सिद्धांत ‘समता’ के विरुद्ध है। इससे संदेश जाता है कि आबादी बढ़ाकर जनसंख्यात्मक घनत्व को बिगाड़ों और इसी अनुपात को आधार बनाकर देश के संसाधनों पर काबिज हो जाआ ? सत्ता के लिए संविधान की मूल भावना से यह खिलवाड़ अनैतिक व अनुचित है। इसी तरह मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में उर्दू को शिक्षा का माध्यम बनाने की बात कही गई है। एक समय हिंदी के प्रबल पैरोकार रहे मुल्ला मुलायम अब हिन्दी को राश्टभाशा का अधिकार दिलाने के बात नहीं करते। क्यों, क्या हिंदी वोट कबाड़ने का जरिया नहीं रही ? दरअसल, सिद्धांतों से समझौता कर लेने वाले नेताओं का अहम् मकसद सत्ता में बने रहना होता है। लिहाजा उनके लिए ध्रुवीकरण के तात्कालिक उपाय ही अहम हैं। मुलायम जैसों को सोचने की जरुरत है कि जब सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टों को लागू किए जाने के बावजूद मुस्लिम उत्थान के कोई कार्रवाई उपाय नहीं निकले तो वादों के कागजी घोड़े दौड़ाने के उपाय भी तुष्टीकरण से आगे निकलने वाले नहीं हैं?
जिस समय सोनिया दिल्ली में बुखारी से फतवा जारी करा रही थीं, तभी भाजपा के महासचिव अमित षाह मुजफ्फरनगर दंगा प्रभावित क्षेत्रों में ‘अपमान’ बदला लेने की नसीहत देकर बहुसंख्यक हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण की कवायद में लगे थे। उन्होंने जाट वोटों को उकसाने की दृष्टि से प्रतिशोध से भरा भाषण राझर गांव में दिया। उन्होंने यहां तक कहां कि इंसान भोजन और पानी के बिना एक बार जिंदा नहीं रह सकता, लेकिन अपमान का घूंट पीकर कोई जिंदा नही रह सकता। इसी तर्ज पर राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने सहारनपुर से कांग्रेस प्रत्याषी इमरान मसूद के बयान पर पलटबार करते हुए कहा कि ‘चुनाव के बाद पता चलेगा कि कौन किसके टुकड़े करता है।’ दरअसल इमरान ने नरेंद्र मोदी के षरीर की बोटी-बोटी करने की हुंकार भरी थी। जिसका प्रति उत्तर श्रीमती सिंधिया ने दिया था। बदले की उग्र भावना से जुड़े नेताओं के इन बयानों को धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की कसौटी पर कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। वसुंधरा तो वैसे भी मुख्यमंत्री होने के नाते संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। उनके मुंह से हिंसा के बदले प्रतिहिंसा के संकेत शपथ लेते वक्त लिए वचनों की अवहेलना हैं। वाणी को संयम में रखने की जरुरत है। कटुता की वाणी ही पहले सांप्रदायिक विद्वेश और फिर दंगों को चिंगारी दिखाने का काम करती है। ध्यान रखने की जरुरत है कि हरेक दल और उम्मीदवार की जवाबदेही प्रतिद्वंद्वियों के प्रति सद्भाव और सम्मान से जुड़ी दिखाई देनी चाहिए, जिससे राजनीति में जाति व संप्रदाय आधारित ध्रुवीकरण दिखाई न दे।
इस चुनाव में मीडिया की अहम् भूमिका उभरी है। वह मीडिया ही है, जिसने चुनाव पूर्व ऐसे हालात बना दिए कि भाजपा को अपनी ओर से भावी प्रधानमंत्री के रुप में नरेंद्र मोदी के नाम की घोशणा करनी पड़ी। कांग्रेस ने घोशणा भले ही नहीं की है, लेकिन उसके नेतृत्व में संप्रग गठबंधन की सरकार बनती है, तो राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री होंगे, ऐसा भरोसा मतदाताओं के दिल और दिमाग में मीडिया ने बिठा दिया है। जाहिर है, मतदाता दल और उम्मीदवार से कहीं ज्यादा मीडिया पर भरोसा कर रहा है। लेकिन खबरिया पोर्टल ‘कोबरा पोस्ट’ ने स्टिंग के जरिए अयोध्या के विवादित ढांचे को ढहाने की स्थिति को जिस तरह से सुनियोजित साजिष करार दिया है, उससे मीडिया की निश्पक्षता पर भी सवाल उठ रहे हैं। क्योंकि ठीक आम चुनाव के दौरान इस स्टिग का प्रसारण आखिरकार ध्रवीकरण को ही बढ़ावा देगा। इसीलिए कहा भी जा रहा है कि यह ऑपरेशन चुनाव में ध्रुवीकरण के मकसद से कांग्रेस की शह पर सार्वजनिक किया गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह स्टिंग मतदाताओं को धर्म के आधार पर बांटने का काम करेगा ? लिहाजा कोबरा पोस्ट के संपादक अनिरुद्ध बहल का नैतिक तकाजा था कि वे धीरज रखते और इसका प्रसारण चुनाव नतीजों के बाद करते । इससे निष्पक्ष पत्रकारिता की पवित्रता बनी रहती ? लेकिन सनसनीखेज पत्रकारिता के पुरोधाओं को इतना धैर्य कहा ?
ध्रुवीकरण की इस संकीर्ण सोच में अमेरिकी संसद भी शामिल हो गई है। अमेरिकी सांसद और भारत के ही अमेरिका में सेवारत चंद अधिकारियों ने राय जताई है कि यदि भाजपा नेतृत्व की भारत में सरकार बनती है तो वह अल्पसंख्यकों के लिए अहितकारी होगी। उनके अधिकार प्रभावित होंगे। इस लिहाज से भारत के मतदाताओं को नरेंद्र मोदी की बजाय राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रुप में चुनना चाहिए। यह हौवा इसलिए खड़ा किया जा रहा है, क्योंकि भाजपा और उसके सहयोगी दल कांग्रेस व अन्य दलों से स्पष्ट रूप बढ़त बनाते दिखने लगे हैं। समाचार चैनलों पर दिखाए जा रहे मतदान पूर्व सर्वेक्षण भी इसी तथ्य की तस्दीक कर रहे हैं। इस अवधारणा को गढ़ने वाले संगठन ‘टॉम लैंटोस ह्यूमन राइट्स कमीषन ऑफ द यूएस कांग्रेस’ से पूछा जा सकता है कि उनकी यह मनगढ़ंत दलील गुजरात, मध्यप्रदेष, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में क्यों नहीं सटीक बैठी। इन राज्यों में पिछले 10-15 सालों से भाजपा की हैं सरकारें हैं। यहीं नहीं भाजपा के समतामूलक व सर्वसमावेषी कार्यों से प्रभावित होकर अब तो इन राज्यों में मुसलमान भी भाजपा के पक्ष में मतदान करने लगे हैं। इन राज्यों की प्रषासनिक दक्षता और सुधारवादी कार्यों ने न केवल हरेक जाति व समुदाय का आर्थिक परिदृश्य बदला है, बल्कि मुसलमानों का एक तबका तो कांग्रेस से कहीं ज्यादा भाजपा पर भरोसा करने लगा है। बहरहाल दल व नेताओं को बदलाव के इस दौर में जरुरत है कि वे धर्म व जाति आधारित ध्रुवीकरण से बाज आएं और हिन्दू-मुस्लिम संबंधों के बीच जो भी अंतर्विरोध हैं, उन्हें जमीनी धरातल पर लाकर सुलटाएं ? न कि बरगलाकर वैमन्स्यता बढ़ाने का काम करें ?

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