शैलेंद्र चौहान
एक के बाद एक लेखकों के पुरस्कार लौटाने के बाद से साहित्य अकादेमी विवादों में है। देश के कुछ मशहूर लेखकों ने गत दिनों साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिए। इन लेखकों का विरोध दादरी हिंसा और कन्नड़ लेखक एम.एम. कलबुर्गी की हत्या को लेकर है। कुल मिलाकर अब तक 21 लेखक साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा चुके हैं। लेखकों ने चेतावनी देते हुए कहा कि सांप्रदायिकता का जहर देश में फैल रहा है और लोगों को बांटने का खतरा बढा है। पुरस्कार लौटाने वालों की लिस्ट में पहला नाम लेखक उदय प्रकाश का था। अठासी वर्षीय नयनतारा सहगल उन शुरुआती लोगों में से थीं जिन्होंने असहमति की आवाज उठाने पर लेखकों और अंधविश्वास विरोधी कार्यकर्ताओं पर बार-बार हमले को लेकर अकादमी की चुप्पी के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराया था। जानी मानी उपन्यासकार शशि देशपांडे ने साहित्य अकादमी की गवर्निंग काउंसिल से इस्तीफ़ा दे दिया। शशि देशपांडे ने साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को भेजे पत्र में लिखा है, ”यदि अकादमी जो देश का प्रमुख साहित्यिक संस्थान है, एक लेखक के ख़िलाफ़ हिंसा की इस तरह की घटना पर खड़ी नहीं हो सकती, यदि अकादमी इस तरह के हमले पर चुप रहती है, तब हम अपने देश में बढ़ती असहिष्णुता से लड़ने की क्या उम्मीद करें?” कन्नड़ लेखक अरविंद मालागट्टी ने साहित्य अकादमी की जनरल काउन्सिल से इस्तीफा दे दिया। रुश्दी ने अपने ट्वीट में कहा, ‘मैं नयनतारा सहगल और कई अन्य लेखकों के विरोध प्रदर्शन का समर्थन करता हूं। भारत में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खतरनाक समय है।’ कश्मीरी लेखक गुलाम नबी खयाल, उर्दू उपन्यासकार रहमान अब्बास, कन्नड़ लेखक और अनुवादक श्रीनाथ डी एन साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिए हैं। हिंदी लेखकों मंगलेश डबराल, राजेश जोशी और अशोक वाजपेयी ने भी कहा कि वे अपने प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लौटा देंगे। वहीं वरयाम संधु और जी एन रंगनाथ राव ने अकादमी को अपने फैसले की सूचना दे दी है। पंजाब के चार और लेखक और कवि,सुरजीत पातर, बलदेव सिंह सडकनामा, जसविंदर और दर्शन बट्टर सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए और कहा कि वे भी विरोध स्वरूप अपना पुरस्कार लौटा रहे हैं। आत्मजीत सिंह ने देश के हालात को दुखी करने वाला बताया । एक और लेखक अजमेर सिंह औलख ने कहा, “अलग सोच और विचार रखने की हमारी आजादी खतरे में है। प्रधानमंत्री और अकादमी के चेयरपर्सन अब तक चुप हैं।” वहीं, भुल्लर का कहना है कि साहित्य और संस्कृति पर सोचे-समझे तरीके से हमले हो रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि पिछले वर्षों में किसी भी सरकार ने इन मामलों पर ध्यान नहीं दिया। भुल्लर ने भी हालिया घटनाओं को सोची-समझी साजिश करार दिया है। कोंकणी लेखक शिवदास ने कहा कि वह सनातन संस्था के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं किए जाने की वजह से दुखी हैं और पुरस्कार लौटा रहे हैं। वीरभद्रप्पा ने दादरी की घटना और कलबुर्गी की हत्या को पुरस्कार लौटाने का कारण बताया। केंद्र सरकार की ‘सांप्रदायिक नीतियों’ के खिलाफ आवाल उठाते हुए मलयालम लेखिका और कार्यकर्ता सारा जोसेफ ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया। गुजरात के सुप्रसिद्ध लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता गणेश देवी ने कहा, “मैं अपने उन साथियों के साथ एकजुटता दिखाना चाहता हूं, जिन्होंने अलग विचार रखने की वजह से पुरस्कार लौटाए हैं।” कलबुर्गी की हत्या पर अकादमी की चुप्पी से देवी खासे नाराज हैं। उन्होंने कहा, “कलबुर्गी की हत्या के एक हफ्ते बाद ही साहित्य अकादमी के एक सेमिनार में मैं शामिल हुआ था। मुझे इस बात पर हैरानी है कि सेमिनार की शुरुआत में कलबुर्गी की नृशंस हत्या पर एक शब्द भी नहीं कहा गया।” देवी ने राष्ट्रपति के हालिया भाषण का भी जिक्र किया। साहित्य अकादेमी की यदि बात की जाये तो उसकी परिभाषा के मुताबिक ‘भारतीय साहित्य के सक्रिय विकास के लिए काम करने वाली राष्ट्रीय संस्था है, जिसका मकसद उच्च साहित्यिक मानदंड स्थापित करना और भारतीय भाषाओं में साहित्य गतिविधियों का समन्वय और पोषण करना है। साहित्य अकादेमी साहित्यिक हिंदी और अंग्रेजी समेत देश की 24 भाषाओं के साहित्य को आगे बढ़ाने का काम करती है। इस काम में किताबें छापना, साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित करना भी शामिल है. साहित्य अकादेमी अपनी जिम्मेदारियों में पढ़ने की आदत को प्रोत्साहित करना भी मानती है। काफी हद तक यह सही है। पर उसका मानना है कि साहित्य अकादेमी का मकसद साहित्यिक गतिविधियों के माध्यम से देश की सांस्कृतिक एकता को आगे बढ़ाना होगा।’ यही बात अमूर्त है। क्या किसी लेखक की हत्या पर खेद प्रकट न करना सांस्कृतिक एकता को आगे बढ़ाने का प्रयास है ? जबकि किसी भी लेखक की मृत्यु पर शोक प्रकट करना एक औपचारिक कर्म है। यह भारतीय परंपरा का एक अंग है। साहित्य अकदामी का जब गठन हुआ था तो उसका उद्देश्य था कि सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य की समृद्ध परंपरा और विरासत का एक साझा मंच बने, जहां साहित्य पर गंभीर विचार-विनिमय और विमर्श हो सके। साहित्य अकादमी के गठन के पीछे एक भावना यह भी थी कि अकादमी सेमिनार, सिंपोजियम, कांफ्रेंस और अन्य माध्यमों से एक दूसरे भाषा के बीच संवाद स्थापित करेगी। यह सारी चीजें साहित्य अकादमी कर रही है, लेकिन करने के तरीके में घनघोर मनमानी और अपनों को उपकृत करने का काम हो रहा है इस बात को नकारा नहीं जा सकता। अपने गठन के दशकों बाद साहित्य अकादमी अपने इस उद्देश्य से भटकती नजर आ रही है। सत्तर के शुरुआती दशक से ही अकादमी मठाधीशों के कब्जे में चली गई और वहां इस तरह की आपसी समझ बनी कि हर भाषा के संयोजक अपनी-अपनी भाषा की रियासत के राजा बन बैठे। साझा मंच की बजाए यह स्वार्थसिद्धि का मंच बनता चला गया। अकादमी की इस मठाधीशी का फायदा अफसरों ने भी उठाया और वे लेखकों पर हावी होते चले गए। अब आलम यह है कि अकादमी सांप्रदायिक मानसिकता के लोगों गढ़ बन चुकी है और वहां वही होता है जो भारत की सरकार चाहती है। अकादमी अध्यक्ष सदैव भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की ओर ताकते रहते हैं। अकादमी के स्वायत्त रूप का क्षय वहां पूरी तरह दिखाई देता है। यही कारण है कि कन्नड़ के महत्वपूर्ण लेखक कुलबर्गी की हत्या से अकादमी उद्वेलित हुई। और इसका परिणाम यह हुआ कि साहित्यिक रचनाकारों को अपने सम्मान, पुरस्कार वापस लौटाने तक नौबत पहुंच गई। दुर्योग से अकादमी अभी भी नहीं चेत रही है और उसके अध्यक्ष गैर जिम्मेदाराना बयानबाजी कर रहे हैं। यही नहीं सरकार के मंत्री भी सतही बयानबाजी पर उतर आये हैं। क्या यह सब अकादमी की प्रतिष्ठा और उसके उद्देश्य के अनुकूल है ?