ऐसे हुआ ह्रदय परिवर्तन
हो.वे. शेषाद्रि
कुछ साल पहले श्री सुनील मुखर्जी नामक सज्जन कलकत्ता के निकट बेरहामपुर में मुझसे मिलने आए थे। उनके एक निकट के रिश्तेदार श्री दिलीप दा, जो हमारे स्वयंसेवक थे, उन्हें लेकर आए थे। श्री मुखर्जी की पृष्ठभूमि दिलीप दा मुझे पहले ही बता चुके थे। वे बंगाल में नक्सलवादी आन्दोलन के प्रारम्भिक काल में दस उच्च नीति निर्धारकों में से एक थे। उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्वर्णपदक मिला था। दिलीप दा और उनके बीच अक्सर वार्तालाप होता रहता था। बहरहाल, हर बार श्री मुखर्जी हिन्दू दृष्टिकोण को अस्पष्ट और अंधवि·श्वासपूर्ण कहकर दुत्कारते रहे थे, और उसे व्यर्थ तथा गंभीर चर्चा का विषय न मानकर दरकिनार करते रहे। एक दिन दिलीप दा ने उनसे एक प्रश्न किया “क्या आपने मूलभूत हिन्दू शिक्षाओं और सिद्धांतों की आलोचना करने से पूर्व उन्हें पढ़ा या कम-से-कम समझने की कोशिश की है?’ इस पर मुखर्जी ने कहा, “इसमें पढ़ने जैसा क्या है? सब समय व्यर्थ करने की बात है।’ तब दिलीप दा ने जवाब दिया, “क्या आपके जैसे एक अच्छे विद्वान को यह शोभा देता है कि किसी भी विचार या दर्शन को पढ़ने और जानने से पहले ही उसे नकार दें? यह कैसी बौद्धिक समझदारी है?’ निश्चित ही, एक ईमानदार सत्यार्थी श्री मुखर्जी ने उत्तर में छुपे तर्क को समझा। उन्होंने पूछा, “ठीक है, हिन्दू दार्शनिक विचार को जानने के लिए मुझे क्या करना होगा?’ तब दिलीप दा ने उन्हें कुछ हिन्दू विद्वानों के नाम सुझाए। श्री मुखर्जी ने उनसे सम्पर्क किया और समाज में व्याप्त महत्वपूर्ण समस्याओं के हिन्दू दृष्टिकोण से हल जानने की कोशिश की। परन्तु दुर्भाग्य से न तो वे विद्वान मुखर्जी के क्षेत्रीय भाषायी प्रभाव के चलते उनकी बात समझ पाए और न ही उनके तर्क, न ही मुखर्जी उन समस्याओं को सुलझाने के हिन्दू दृष्टिकोण के विभिन्न मूल सिद्धांतों और आधारों को ही समझ पाए। वे पूर्णत: निराश लौटै। तब दिलीप दा ने उनसे रामायण और महाभारत पढ़ने की विनती की। वास्तव में श्री मुखर्जी की विद्वत-एकात्मता की दाद देनी होगी कि उन्होंने उस सुझाव को गंभीरता से लेते हुए वे दोनों महान ग्रन्थ पढ़े, और वह उनमें बसे “नक्सल’ के अन्त की शुरुआत सिद्ध हुई। कुछ महीनों बाद उन्होंने दिलीप दा के सामने अपने विचार रखते हुए कहा कि इन दोनों ग्रन्थों में उन्हें एक नितान्त वास्तविक और विचारोत्तेजक तत्व की अनुभूति हुई जिसे वे अब तक अनभिज्ञ थे। दिलीप दा ने उनसे श्रीमद्भागवत् पढ़ने का भी अनुरोध किया। उसके बाद श्री मुखर्जी अपेक्षाकृत बदले हुए व्यक्ति के रूप में कहते हैं, “अब मैं हिन्दू धर्म और मानवीय समस्याओं के हल के लिए मूल हिन्दू दर्शन की महानता के प्रति पूरी तरह सहमत हूं।’
जब श्री मुखर्जी मुझसे मिले तो उन्होंने बताया कि वे भागवत सहित अन्य हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों का बंगला में अनुवाद करने में व्यस्त हैं। उन्होंने यह भी बताया कि इस समय वे हिन्दू समाज के उस आन्तरिक संबल के बारे में जानने की कोशिश कर रहे हैं, जिसके कारण यह समाज एक हजार साल के निर्मम इस्लामी आघात और तत्पश्चात् अंग्रजों द्वारा सांस्कृतिक और आर्थिक लूट को झेल पाने में सक्षम रहा था। विशेषकर वे जानना चाहते थे कि कैसे एक के बाद एक देशों पर, कुछ ही दशकों में, आक्रमण करते हुए उन्हें निगलते जाने वाला इस्लामी आक्रमण हिन्दू समाज में वह सब करने में असफल रहा। इसके साथ ही सत्ता के उच्च साम्राज्यवादी प्रभुत्व के बावजूद अंग्रेज हमारे लोगों का ईसाईकरण और पश्चिमीकरण करने में असफल रहे थे। उन्होंने बताया कि वे इस हिन्दू ऊष्मा और अनन्तता की जड़ में छुपे तत्व की खोज की कोशिश में लगे हैं।(जारी)
(स्व. हो.वे. शेषाद्रि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह थे।)
शेषाद्री जी द्वारा सम्पादित “आर एस एस विजन इन एक्शन” ढेर सारे मित्रों को संघ समझाने में और उनके विपरीत मत को परिवर्तित करने में सक्षमता रखती है| यही अनुभव बार बार हुआ है|