स्वाधीनता संग्राम के दौरान वर्ष 1905 में 7 अगस्त को स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत की गई थी। भारत सरकार ने इसी की याद में 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस के रुप में घोषित किया है। हस्तकरघा क्षेत्र के द्वारा स्वदेशी को प्रश्रय देने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7 अगस्त शुक्रवार को चेन्नई में देशवासियों को बधाई देते हुए देश के पहले राष्ट्रीय हस्तकरघा दिवस अर्थात हैंडलूम दिवस का उद्घाटन किया और फिर इंडिया हैंडलूम ब्रांड को लॉन्च किया। प्रधानमंत्री मोदी ने चेन्नई में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की उपस्थिति में प्रथम हथकरघा दिवस की शुरुआत करते हुए कहा कि भारत कई हथकरघा उत्पादों का घर है। हमें अपने दैनिक जीवन में हथकरघा का उपयोग कर इसे बढ़ावा देना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी ने देश के हस्तकरघा अर्थात हथकरघा उद्योग की अहमियत को रेखांकित करते हुए कहा कि स्वाधीनता संग्राम में परतन्त्रता से मुक्ति का प्रतीक रहा हस्तकरघा उद्योग आज गरीबी से मुक्ति का बड़ा हथियार और समृद्धि का प्रतीक बन सकता है। इसमें बहुत ताकत है बस उसके बाज़ारवाद को प्रश्रय देने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री ने कहा कि खादी की बिक्री में गत वर्ष की तुलना में साठ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। लोगों को दो अक्टूबर की याद दिलाते हुए उन्होंने कहा कि पिछले साल मैंने कारीगरों के जीवन को रोशन करने के लिए खादी उत्पादों में से एक वस्तु का उपयोग करने की देशवासियों से अपील की थी। उसी का ही नतीजा है कि आज खादी की बिक्री में तेजी देखी जा रही है।
दरअसल देश में हथकरघा उद्योग सदियों से चली आ रही है और भारत दुनिया के बेहतरीन हथकरघा उत्पादों के उत्पादक के केन्द्र के रूप में सर्वविख्यात रहा है। इन उत्पादों में ज्यादातर प्राकृतिक रेशों का इस्तेमाल होता है जो स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों ही दृष्टि से काफी लाभकारी हैं इसलिए देश-विदेश में आज भारतीय हस्तकरघा उत्पादों की खासी मांग है । भारत के हथकरघा उद्योग को सरकार प्रदत इस अवसर का पूरा लाभ उठाना चाहिए। गौरतलब है कि एक समय ऐसा था जब भारत देश के बुनकरों और कारीगरों के द्वारा बनाई हुई चीजें, अफ्रीका,यूरोप ,अरब देशों और चीन तक बिकती थीं । आज बढ़ती प्रतिस्पर्धा के इस दौर में इन उत्पादों को बेचने के लिए वैश्विक स्तर पर ब्रांडिंग और मार्केटिंग करनी होगी। इसके अतिरिक्त भी इस राह में कई और बाधाएं हैं जिन्हें नकारकर हस्तकरघा उद्योग को पटरी पर नहीं लाया जा सकता । हाँ संतोषजनक पहलू यह है कि सरकार की ओर से बुनकरों के मदद की कई योजनाओं का संचालन किया जा रहा है , जिनका जिक्र हस्तकरघा दिवस के शुभारम्भ के अवसर पर स्वयं प्रधानमन्त्री ने भी किया और कहा कि बुनकरों को वर्कशेड बनाने और हथकरघा से जुडे सामान खरीदने के लिए दी जाने वाली आर्थिक मदद अब बिचौलियों और दलालों के जरिए नहीं बल्कि सीधे उनके बैंक खातों में पहुंचेगी। एक हथकरघा समूह के विकास के लिए पहले जहाँ 60 लाख रूपए की मदद दी जाती थी उसे अब बढाकर 2 करोड़ रुपए कर दिया गया है। बुनकरों के परिवारों की सामाजिक सुरक्षा के लिए धन जन योजना के तहत व्यवस्था की गयी है। उन्होंने स्वदेशी को प्रश्रय देने के लिए लोगों से अधिक से अधिक हथकरघा उत्पादों को अपनाने की अपील भी की।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1905 में 07 अगस्त को प्रारम्भ किया गया स्वदेशी आन्दोलन भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण आन्दोलन, सफल रणनीति व दर्शन था। स्वदेशी का अर्थ होता है – अपने देश का। इस रणनीति का लक्ष्य ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना तथा भारत में बने माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना व भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना था। यह आंग्ल शासन को उखाड़ फेंकने और भारत की समग्र आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए अपनाया गया साधन था। दिसम्बर, 1903 ई. में बंगाल विभाजन के प्रस्ताव की ख़बर फैलने पर चारो ओर विरोधस्वरूप ढाका, मेमन सिंह एवं चटगांव आदि बंगाल के अनेक स्थानों पर बैठकें हुईं। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, कुष्ण कुमार मिश्र, पृथ्वीशचन्द्र राय जैसे बंगाल के नेताओं ने बंगाली, हितवादी एवं संजीवनी जैसे अख़बारों द्वारा बंगाल विभाजन के प्रस्ताव की आलोचना की। विरोध के बावजूद लार्ड कर्ज़न ने 19 जुलाई, 1905 ई, को बंगाल विभाजन के निर्णय की घोषणा कर दी , जिसके परिणामस्वरूप 7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के टाउन हाल में स्वदेशी आंदोलन की घोषणा की गई तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार प्रस्ताव पास किया गया। इसी बैठक में ऐतिहासिक बहिष्कार प्रस्ताव पारित हुआ। फिर भी 16 अक्टूबर, 1905 को बंगाल विभाजन के लागू होने के साथ ही विभाजन प्रभावी हो गया। वर्ष 1905 के बंग-भंग विरोधी जनजागरण से स्वदेशी आन्दोलन को बहुत बल मिला।
बंग-भंग के विरोध में न केवल बंगाल अपितु पूरे ब्रिटिश भारत में चले स्वदेशी आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य यद्यपि अपने देश की वस्तु को अपनाना और दूसरे देश की वस्तु का बहिष्कार करना था, तथापि स्वदेशी का यह विचार बंग-भंग से बहुत पुराना है। भारत में स्वदेशी का पहले-पहल नारा बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने वंगदर्शन के 1279 की भाद्र संख्या यानी 1872 ई. में ही विज्ञानसभा का प्रस्ताव रखते हुए दिया था। उन्होंने कहा था- जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन ब दिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में आजीवन रहनेवाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पड़े हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए भी एक विराट अतिथिशाला बन गई है। इसके बाद भोलानाथ चन्द्र ने 1874 में शम्भुचन्द्र मुखोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित मुखर्जीज़ मैग्जीन में स्वदेशी का नारा देते हुए लिखा था- किसी प्रकार का शारीरिक बलप्रयोग न करके राजानुगत्य अस्वीकार न करते हुए तथा किसी नए कानून के लिए प्रार्थना न करते हुए भी हम अपनी पूर्वसम्पदा लौटा सकते हैं। जहाँ स्थिति चरम में पहुँच जाए, वहाँ एकमात्र नहीं तो सबसे अधिक कारगर अस्त्र नैतिक शत्रुता होगी। इस अस्त्र को अपनाना कोई अपराध नहीं है। आइए हम सब लोग यह संकल्प करें कि विदेशी वस्तु नहीं खरीदेंगे। हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत की उन्नति भारतीयों के द्वारा ही सम्भव है। यह नारा कांग्रेस के जन्म से पहले ही दे दिया गया था। जब 1905 ई. में बंग-भंग हुआ, तब स्वदेशी का नारा जोरों से अपनाया गया। उसी वर्ष कांग्रेस ने भी इसके पक्ष में मत प्रकट किया। देशी पूँजीपति उस समय मिलें खोल रहे थे, इसलिए स्वदेशी आन्दोलन उनके लिए बड़ा ही लाभदायक सिद्ध हुआ। आशा है देशी हस्तकरघा उद्योग को सरकार के द्वारा प्रश्रय दिए जाने से इस कार्य में लोगों के साथ ही देश को भी अवश्य ही लाभ होगा।
इसमें कोई शक नहीं कि आंग्लकालीन नीतियों के कारण पारंपरिक रूप से हमारा देश औद्योगिक विकास में पिछड़ा हुआ है। इसीलिए सरकार के द्वारा नीतिगत निर्णय लेते हुए विदेशी निवेशकों को देश में विभिन्न क्षेत्रों में अधिकाधिक औद्योगिक निवेश करने के लिए आकर्षित करने पर बल दिया जा रहा है, परन्तु यह भी सत्य है कि औद्योगिक एवं वाणिज्यिक नीति का उद्देश्य जब तक पारंपरिक क्षेत्र के उद्योगों का तकनीकी उन्नयन करने और व्यक्तिगत व सार्वजनिक (सरकारी क्षेत्र) उद्योगों का पुनर्निमाण नवीनीकरण एवं यांत्रिक उन्नयन करने पर बल नहीं दिया जाएगा तक तक देश का चहुँमुखी विकास संभव नहीं। ऐसी परिस्थिति में सरकार के द्वारा हस्तकरघा उद्योग के हित में उठाई जा रही योजनायें सराहनीय हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहाँ ग्रामीण आबादी की 30 फीसदी अभी भी गरीबी रेखा से नीचे रहती है, कृषि उद्यमों के विविधीकरण से जुड़ी गतिविधियां और अतिरिक्त आमदनी का सृजन सामाजिक और आर्थिक समावेश को बढ़ावा देता है। हस्तकरघा (43 लाख बुनकर), बिजली करघे (55 लाख बुनकर) और हस्त शिल्प (68 लाख कारीगर) के अतिरिक्त, रेशम उत्पादन जो लगभग 78 लाख भारतीयों को आजीविका के अवसर मुहैया कराता है। हस्तकरघा जैसी पारंपरिक क्षेत्र को बढ़ावा दिए जाने से स्वदेशी विचार को अवश्यमेव प्रश्रय मिलेगी ।कौशल विकास के लिए एक मंत्रालय के सृजन के साथ, हस्तकरघा क्षेत्र में भी कुशल बनाने की पहलों में बेशुमार तेजी का आना तय है जो कि समन्वय बढ़ाएगा और श्रमोन्मुखी विनिर्माण क्षेत्र में बड़ी संख्या में रोजगारों का सृजन करेगा। हस्तकरघा क्षेत्र के विकास होने से यह महिला अधिकारिता और महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक समावेश में एक महत्वपूर्ण योगदान देने वाला भी बन सकता है। हस्तकरघा उद्योग की प्रगति हेतु विद्यालयीन बच्चों द्वारा वर्दी अर्थात यूनिफॉर्म हेतु इसका इस्तेमाल एवं सरकारी कर्मचारियों द्वारा एक कार्य दिन हस्तनिर्मित वस्त्र पहनने हेतु प्रोत्साहन आदि के कदम सरकारी स्तर पर उठाए जा सकते हैं।
खादी के साथ दिक्कत यह है की शासकीय ग्रामोद्योग की दूकान के कर्मचारी उतने सहयोगी नहीं होतेजितने साधारण दुकानदार होते हैं. दूसरे इन दुकानो पर उत्पादों की बहुलता नहीं होती. तीसरे इन दुकानो के सरकारीकरण ने इन्हे हमेशा उपलब्ध नहीं किया है. खादी उत्पादों को निजी दुकानदार भी बेचें और दुकान में रखें यह अनिवार्यता होनी चाहिए.