– धाराराम यादव
देश की स्वतंत्रता ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारतीय स्वातंत्र्य अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत प्राप्त हुई जिसके अनुसार तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता के आधीन भारत को दो भागों में विभाजित करके दोनों भागों को डोमिनियन स्टेट्स प्रदान किया गया था। जिसमें से एक का नाम भारत एवं दूसरे का पाकिस्तान रखा गया। देश भर की देशी रियासतों को उसी अधिनियम में निहित प्रावधानों के अन्तर्गत यह अधिकार दिया गया था कि वे दोनों डोमिनियनों में से जिनमें उचित समझें विलीन कर लें अथवा अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखें। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने अपनी सूझ-बूझ, राजनीतिक एवं कूटनीतिक कौशल तथा उच्च कोटि की दूरदर्शिता का सदुपयोग करते हुए देश की 562 देशी रियासतों को भारत में विलय कराकर एक सशक्त देश का निर्माण किया था, इनमें हैदराबाद और जूनागढ़ की वे रियासतें भी शामिल थीं जिनके राजप्रमुख मुस्लिम समुदाय से संबंधित थे और भारत के बीच में रहकर पाकिस्तान में विलय करना चाहते थे। उनके लिए गृह मंत्री द्वारा बाध्य होकर हल्का बल प्रयोग भी किया गया था। उस समय एक रियासत जम्मू-कश्मीर के मामले को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने हाथ में रखा। उस राज्य की स्थिति विशेष प्रकार की थी। वहां के महाराजा हरिसिंह (डॉ. कर्ण सिंह के पिता) स्वयं हिंदू थे किंतु मुस्लिम जनसंख्या वहाँ बहुमत में थी। महाराजा हरिसिंह ने कुछ अज्ञात कारणों से भारत में विलय करने में आनाकानी करते हुए काफी विलम्ब कर दिया। अनुमान लगाया गया कि वे जम्मू-कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखना चाहते थे। इसी बीच 20 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान के संस्थापक कायदेआजम जिन्ना के निर्देश पर पाक-कबायली और पाक सेना द्वारा जम्मू-कश्मीर पर सशस्त्र आक्रमण कर दिया गया और नागरिकों पर वीभत्स अत्याचार किये गये। जिन्ना जम्मू-कश्मीर पर विजय प्राप्त करके श्रीनगर में शीघ्र चाय पीना चाहते थे।
कहा जाता है कि राज्य के मुस्लिम सैनिक आक्रमणकारियों से मिल गये और 5-6 दिनों के भीतर ही कबायली और पाक सेना की मिली-जुली टुकड़ी राज्य की राजधानी श्रीनगर और हवाई अड्डे के काफी निकट पहुँच गयी। इस गंभीर परिस्थिति का आकलन करके 26-27 अक्टूबर, 1947 को महाराज हरिसिंह ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर करके जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की औपचारिकता पूरी कर दी। विलय के तत्काल बाद भारत की सेनाएं हवाई मार्ग से श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरना शुरू हो गयीं और पाक प्रेरित कबायलियों और वहाँ की सेना की भारतीय सेनाओं ने राज्य के बाहर की ओर खदेड़ना शुरू कर दिया। उसी समय भारत की ओर से तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं विदेश मंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू द्वारा एक गंभीर कूटनीतिक गलती करते हुए पाकिस्तानी आक्रमण के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ में शिकायत दर्ज करा दी गयी। जहाँ से तत्काल युद्ध विराम की घोषणा कर दी गयी। भारतीय सेनाओं ने बढ़ते कदम रोक दिये गये। इस रुकावट के कारण जम्मू-कश्मीर के कुल क्षेत्रफल 2,22,236 वर्ग किलोमीटर के लगभग एक तिहाई 78,114 वर्ग किलो मीटर पाकिस्तान के कब्जे में ही रह गया जिसे हम पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं और जिसे पाकिस्तान ‘आजाद कश्मीर’ कहता है। पाकिस्तान भारतीय कश्मीर को ‘गुलाम कश्मीर’ कहकर सम्बोधित करता है और उसके शासक विगत् 6 दशकों से रह-रह कर आतंकवादियों को जम्मू-कश्मीर में अवैध रुप से प्रवेश कराकर विध्वंसक कार्यवाही कराते रहते हैं। वहाँ के शासक खुले आम यह घोषणा करते रहते हैं कि वे जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता संघर्ष का न केवल समर्थन करेंंगे, वरन् स्वतंत्रता सेनानियों को उनके संघर्ष में सभी प्रकार का सहयोग भी देंगे।
26-27 अक्टूबर, 1947 को भारतीय संघ में जम्मू-कश्मीर के विलय के उपरांत उस राज्य की संवैधानिक स्थिति वही होनी चाहिए थी जो राजस्थान की रियासतों सहित 562 देशी रियासतों की भारत में विलय के बाद हो गयी थी किन्तु यह अब तक नहीं हुआ। उसे विशेष दर्जा देकर अलगाववाद को बढ़ावा देने का कार्य स्वयं केन्द्र की कांग्रेस सरकारों द्वारा किया गया।
ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारतीय स्वातंत्र्य अधिनियम’ के प्रावधानों के अनुसार जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराज हरिसिंह द्वारा भारतीय संघ में विलय हेतु 26-27 अक्टूबर, 1947 को निर्धारित विलय-प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने के उपरान्त वह राज्य (जम्मू-कश्मीर) पूरी तरह देश का अभिन्न अंग बन गया किन्तु तत्कालीन केन्द्रीय सत्ता की ढुल-मूल नीति, संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जनमत संग्रह के प्रस्ताव और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 (संक्रमणकालीन अस्थायी अनुच्छेद) आदि के कारण जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा कायम रहा। यहां तक कि स्वतंत्रता के बाद उस राज्य में प्रवेश के लिए ‘परमिट’ लेने की व्यवस्था बहाल की गयी जिसके विरुद्ध तत्कालीन भारतीय जनसंघ ने देश व्यापी आंदोलन छेड़ दिया। आन्दोलन को धार देने के लिए जन संघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बिना परमिट राज्य में प्रवेश का प्रयास किया जिस पर जम्मू-कश्मीर की तत्कालीन शेख अब्दुला सरकार ने डॉ. मुखर्जी को गिरफ्तार करके कारागार में डाल दिया जहां 23 जून, 1953 को संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। यह जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में पूर्ण विलय के लिए दिया गया किसी भारतीय का पहला और महत्वपूर्ण बलिदान था।
तब से अब तक गंगा-यमुना में बहुत पानी बह चुका है। जम्मू-कश्मीर के लिए एक अलग संविधान बनाया गया है जो 1956 से वहां लागू है। पूरे देश में जम्मू-कश्मीर एक मात्र ऐसा राज्य है जहाँ एक अलग संविधान लागू है जिसके अनुसार जम्मू-कश्मीर विधान सभा के विधायकों का कार्यकाल 6 वर्ष निर्धारित है जबकि देश के अन्य सभी राज्यों के विधायकों का कार्यकाल केवल पांच वर्ष ही रखा गया है। जम्मू-कश्मीर का अलग झंडा भी नियत किया गया है। भारतीय संसद द्वारा पारित कोई कानून जम्मू-कश्मीर में तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक कि वहां की विधान सभा उसे लागू करने का प्रस्ताव न पारित कर दे नितांत ‘अस्थायी एवं संक्रमण कालीन’ अनुच्छेद-370 (संविधान में इस अनुच्छेद का यही विशेशण लिखा है) को निरस्त करने की मांग देश के पंथनिरपेक्षतावादियों द्वारा ‘साम्प्रदायिक’ घोषित कर दी गयी है। यह अत्यंत आश्चर्यजनक विडंबना है कि जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय की मांग देश के मूर्धन्य पंथनिरपेक्षतावादियों द्वारा साम्प्रदायिक करार दे दी गयी है। रह-रह कर जम्मू-कश्मीर विगत् 6 दशकों से अधिक समय से सुलग रहा है। नब्बे के दशक के प्रारंभ में (1990-92) तक उस राज्य की स्थिति इतनी विस्फोटक हो गयी कि वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदुओं (कश्मीरी पंडितों) को राज्य से पलायन करना पड़ा और वे कश्मीरी पंडित जिनकी संख्या 4-5 लाख बतायी जाती है, विगत् बीस वर्षों से अपने ही देश में शरणार्थी के रूप में भटक रहे हैं। उनका कोई पुरसा हाल नहीं है। देश का कोई पंथनिरपेक्ष दल उन हिन्दुओं के प्रति सहानुभूति तक व्यक्त करने को तैयार नहीं है। उन्हीं दिनों आतंकियों से मिलकर वहाँ के अलगाववादियों ने यह घोषणा कर दी कि जो भी व्यक्ति जम्मू-कश्मीर में भारत का राष्ट्रीय ध्वज (तिरंगा झंडा) लेकर दिखायी पड़ेगा उसे गोली मार दी जायेगी। उस राज्य में केवल राजभवन (राज्यपाल के निवास) एवं सुरक्षा बलों के शिविरों को छोड़कर अन्य किसी स्थान पर राष्ट्रीय ध्वज फहराना बंद कर दिया गया।
ऐसी विषम परिस्थितियों में भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने खुलेआम यह घोषणा कर दी कि वे 26 जनवरी, 1992 को जम्मू-कश्मीर के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस के उपलक्ष में राष्ट्रीय तिरंगा झंडा फहरायेंगे। आतंकियों ने घोषणा कर दी कि डॉ. जोशी को तिरंगा फहराने के पूर्व जो यदि गोली मार देगा, उसे वे दस लाख रुपये इनाम देंगे और डॉ. जोशी तिरंगा फहराने में सफल हो गये, तो उन्हें वे दस लाख रुपया पुरस्कार स्वरूप देंगे। डॉ. मुरली मनोहर जोशी इस धमकी से डरे नहीं, झुके नहीं और उन्होंने कन्या कुमारी से श्रीनगर की यात्रा करके निर्धारित तिथि 26 जनवरी, 1992 को राज्य के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज फहराकर देश के सम्मान की न केवल रक्षा की, वरन् निर्विवाद रूप से यह भी सिद्ध किया कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और वहां भारतीय तिरंगा फहराने से कोई रोक नहीं सकता। केन्द्र सरकार द्वारा हजारों करोड़ रुपये का पैकेज देकर भी जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों का दिल नहीं जीता जा सका। वे पाकिस्तान जिन्दाबाद का नारा लगाते हैं। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव ने उस समय डॉ. जोशी की कन्याकुमारी से श्रीनगर की यात्रा रोकी तो नहीं, किन्तु सार्वजनिक रूप से यह घोषणा अवश्य कर दी थी कि भारत सरकार डॉ. जोशी की सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकती। यदि हृदय पर हाथ रखकर सच्चाई बयान की जाये, तो जम्मू-कश्मीर की मूल समस्या घाटी में मुस्लिमों का बहुसंख्यक होना है। बचे-खुचे 4-5 लाख कश्मीरी पण्डितों को वहां की बहुसंख्या द्वारा पहले ही निर्वासित किया जा चुका है। संविधान के अनुच्छेद 370 एवं जम्मू-कश्मीर के संविधान की विभिन्न धाराओं के अनुसार भारत के किसी क्षेत्र का नागरिक जम्मू-कश्मीर में न तो जमीन-जायदाद खरीद सकता है और न स्थायी रूप से वहां बस सकता है। यह अवश्य है कि जम्मू-कश्मीर के निवासी भारत में ही कहीं भी जमीन-जायदाद खरीद कर बस सकते हैं, कहीं भी व्यवसाय या नौकरी कर सकते हैं। इस वर्ष संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित देश की प्रतिष्ठित परीक्षा (आई.ए.एस.) में जम्मू-कश्मीर के डॉ. फैसल शाह ने टॉप किया है। देश भर में जम्मू-कश्मीर के निवासियों के प्रति कोई भी भेदभाव नहीं है। जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी संगठन हुरियत कान्फ्रेस जब चाहता है, घाटी में बंद आयोजित कर देता है। जगह-जगह पाकिस्तानी झण्डे फहरवा देता है। जम्मू -कश्मीर में राज्यपाल रह चुके एस. के. सिन्हा ने स्पष्ट कहा है कि अगर वहाँ अवाम को भड़काकर सुरक्षाबलों पर पत्थर चलवाया जायेगा तो सुरक्षा सैनिक उन पत्थरबाजों को माला नहीं पहनायेंगे। वहाँ शांति बहाली के लिए आवश्यक है कि अनुच्छेद 370 निरस्त करके जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करके भारत का अभिन्न अंग बनाया जायी, निर्वासित कश्मीरी पंडितों को पुनः वहां ससम्मान और सुरक्षित बसाया जाये। भारत के किसी भाग के निवासी को वहां जमीन-जायदाद खरीद कर बसने की सुविधा प्रदान की जाय तब वह भारत का अभिन्न अंग हो जायेगा। आबादी के इसी प्रकार के असंतुलन के कारण 63 वर्ष पहले देश विभाजन कराकर पाकिस्तान बना था, अब जम्मू-कश्मीर में वही असंतुलन आतंकवाद की समस्या पैदा कर रहा है।
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार, समाजसेवी एवं अवकाश प्राप्त सहायक आयुक्त, वाणिज्यकार है।
कश्मीर समस्या वस्तुतः भारत और पाकिस्तान को अंग्रेजो की देन है, वे चाहते थे की हम दोनों सगे भाई लड़ते रहे और विश्व शक्ति बनने से वंचित हो जाए. लेकिन लंबे समय तक समस्या को झेलने के बाद प्रकृति किसी भी समस्या को अवसर में रूपांतरित कर देती है. भारत को इस समस्या को अवसर में परिणत करने के उपाय सोचना चाहिए. मुझे विश्वास है कि ऐसा अवश्य होगा.
आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी
नमस्कार।
आपकी टिप्पणी दि. 29.08.10 को यहाँ पर उधृरित करना जरूरी है। जिससे आपको एवं सही व निष्पक्ष सोच के पाठकों को लिंक (सन्दर्भ) करने में किसी प्रकार की समस्या नहीं हो।
आपने जो लिखा है, उस पर मैं अपना मन्तव्य बिन्दुबार व्यक्त करने की अनुमति चाहते हुए कहना चाहता हूँ कि-
आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी आपने लिखा है कि-
मैं नहीं समझता कि इस परिचर्चा मैं शामिल अधिकतर लोग भारत के अधिकतर राजनेताओं कि तरह से राष्ट्रवाद का चोला ओढकर कश्मीर का राग अलापने के अलावा इस समस्या के समाधान के बारे मैं सोचते होंगे.
-आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी अभी तक मेरे पास कोई चोला नहीं है और दूर-दूर तक कहीं कोई चोला नजर भी नहीं आ रहा है। हाँ सच्चाई बयाँ करने के कारण राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हिन्दुत्ववादी बौद्धिक आतंकियों ने अवश्य मुझे क्रिश्चनों का ऐजेण्ट, देशद्रोही आदि नाम/चोला जरूर दे (ओढा) रखे हैं।
आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी आपने लिखा है कि-
आप सभी लोग इस समस्या को हिदुत्व और मुस्लित्व के चश्मे से देखते है, जबकि यहाँ मुद्दा कश्मीरियत का है.
-आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी कम से कम मैं उन लोगों में शामिल नहीं हूँ, जो केवल आपके बताये अनुसार कश्मीर समस्या को देखते हैं। बल्कि मेरा मानना कुछ भिन्न है। भिन्न से आशय है कि मैं कश्मीर को भारत की आजादी के इतिहास एवं अप्रिय परिस्थितियों में हुए विलय या करवाये गये विलय के समझौते की शर्तों के आईने में देखकर समझने का प्रयास करता हूँ। इसलिये मैं आपकी पूर्वोक्त टिप्पणी दि. 29.08.10/04.36 की निम्न पंक्ति से पूरी तरह से सहमत नहीं हूँ। जिसमें आप लिखते हैं कि-
“…..पाकिस्तान के लोग न सहिष्णु हैं और न थे अगर वे सहिष्णु होते तो वे कश्मीर पर आक्रमण न करते,…”
इस पंक्ति में पाकिस्तान के सहिष्णु नहीं होने के कारण कश्मीर पर आक्रमण का तर्क देना मेरी राय में उचित नहीं है, बल्कि इसके विपरीत मेरा साफ मानना है कि भारत ने जूनागढ, हैदराबाद आदि कुछ रियासतों का जिस तरीके से डण्डे की ताकत पर भारत में विलय किया था, उसको पाकिस्तान के नजरिये से देखा जाये तो इस कारण पाकिस्तान में यह सन्देश संचारित/प्रचारित हुआ कि अब भारत का अगला निशाना डण्डे के बल पर कश्मीर का भारत में उसी प्रकार से विलय करना होगा, जिस प्रकार से भोपाल, जूनागढ, हैदराबाद आदि का किया गया है। इसलिये धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र मांगने वाले तत्कालीन पाकिस्तानी हुक्मरानों की ओर से मुस्लिम शासकों द्वारा शासित जूनागढ, हैदाराबाद, भोपाल आदि के भारत में विलय पर अप्रिय प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक और अनिवार्य था। चूंकि उस समय पाकिस्तान के पास खुला युद्ध लडने लायक सैनिक क्षमता तो थी नहीं, विशेषकर यह जानते हुए भी कि यदि कश्मीर पर पाकिस्तान द्वारा आक्रमण किया गया तो भारत कश्मीर को मदद देगा, इसलिये उन्होंने कबालियों के वेश में कश्मीर में प्रवेश किया या कश्मीर पर आक्रमण किया।
आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी मैं बिना किसी लागलपेट के साफ शब्दों में कहना चाहता हूँ कि मेरा ऐसा मानता हूँ कि कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रमण को भोपाल, जूनागढ, हैदराबाद आदि रियासतों पर शक्ति का प्रयोग करके हिन्दुत्ववादी सोच के संवर्धक भारत के तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार बल्लभाई पटेल ने ही आमन्त्रित किया था। इस प्रकार मैं सरदार पटेल को कश्मीर समस्या का जनक मानता हूँ।
कश्मीर मामलों के जानकार अनेक वरिष्ठ और निष्पक्ष विद्वानों का तो यहाँ तक मानना है कि हैदराबाद के विलय के बाद सरदार पटेल शक्ति के बल पर कश्मीर का भारत में विलय करने के पक्ष में थे, जिसके लिये तत्कालीन प्रधानमन्त्री सहित अनेक वरिष्ठ मन्त्री सहमत नहीं थे, इसके उपरान्त भी पटेल ने भारत सरकार की सहमती के बिना ही कश्मीर पर आक्रमण की योजना बनानी शुरू कर दी थी। जिसके बारे में पाकिस्तान को भनक लग गयी और इसी कारण पाकिस्तान ने भारत से पहले कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। यह पाकिस्तान की, भारत की कूटनीति पर पहली राजनीतिक विजय मानी जा सकती है।
आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी आपने लिखा है कि-
मैं आपकी इस परिचर्चा का एक पात्र हूँ, मेरा मानना है, आज भी कश्मीरी को कश्मीरी से कोई प्रॉब्लम नहीं है. भारत मैं आज भी अगर सहिष्णु है, तो वो कश्मीरी हैं. कश्मीर के हिन्दू और मुस्लिम दोनों राष्ट्रवादी हैं। अगर आप इसे हिदुत्व और मुस्लित्व के चश्मे से देखते है तो मैं आपको बता दूं के –
१. अगर कश्मीर का मुस्लिम अन्यों की तरह असहिष्णु होता तो वो पाकिस्तान की बात करता क्या किसी ने की?
२. अगर कश्मीर का मुस्लिम हिन्दू विरोधी होता तो क्या उसके ८० प्रतिशत मुस्लिम जनसँख्या में कश्मीर का राजा हिन्दू होता?
३. कश्मीर ने स्वतंत्र रहना चुना था। महाराजा हरी qसह ने भारत और पाकिस्तान दोनों को यथास्थिति बरकरार रखने की संधि का प्रस्ताव दिया। और जब पाकिस्तान के आक्रमण के समय भारत से मदद मांगी तो नेहरू ने कश्मीर को ब्लेकमेल किया
४ यदि कश्मीरी स्वायत्ता मांग रहे हैं तो उसका क्या कारण है? स्वायत्ता तो महाराज हरी सिंह ने भी घोषित की थी तो क्या महाराज हरी सिंह को दोष दें. वास्तव मैं महाराज हरी सिंह और शेख अब्दुल्लाह ने कश्मीर और कश्मीरियत के लिए सच्चा काम किया है.
-आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी मैं उपरोक्त बिन्दुओं में समाहित आप जैसे कश्मीरी बन्धुओं की भावनाओं का हृदय से सम्मान करते हुए यहाँ पर फिर से कहना चाहता हूँ कि जिन हालातों में कश्मीर का विलय करने के लिये महाराजा हरिसिंह एवं शेख अब्दुल्लाह दोनों सहमत हुए या विलय के लिये विवश किये गये, उन हालातों का परिणाम सुखदायी कैसे हो सकता था? यह सही है कि भारत ने यथास्थिति सन्धि के कश्मीर के प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया था, जबकि पाकिस्तान ने संधि प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था, जिससे भारत के तत्कालीन शासकों की मानसिकता का पता चलता है। यह बात भी निर्विवाद सत्य है कि तत्कालीन भारत सरकार ने पाकिस्तानी आक्रमण के समय कश्मीर का विलय कराने के लिये कश्मीरी शासकों को एक तरह से ब्लैक मेल किया और कश्मीर के दुर्भाग्यपूर्ण हालातों का जमकर फायदा उठाकर और कश्मीर का भारत में विलय करवा लिया।
मेरी जानकारी के अनुसार विलय की यह भी एक शर्त थी कि भारत कश्मीर से पाकिस्तानी सेना को पूरी तरह से खेदड देगा, जिसे भारत आज तक नहीं खदेड पाया। एक शर्त यह थी कि-कश्मीर भारतीय गणतन्त्र का हिस्सा बना रहते हुए सुरक्षा, विदेशी मामले, संचार और मुद्रा चार विषयों के मामलों में कश्मीर भारत की केन्द्रीय सरकार की नीतियों को मानने को संवैधानिक तौर पर बाध्य होगा और शेष सभी संवैधानिक विषयों पर कश्मीर भारत के अन्य राज्यों की तुलना में भिन्न स्टेटस के साथ एक स्वतन्त्र राष्ट्र की भांति स्वायत्त सत्ता का संचालन करेगा।
इसी के कारण यह तय हुआ था कि कश्मीर का अलग से झण्डा होगा और कश्मीर भारत की केन्द्रीय सरकार या संसद के उक्त चार विषयों के अलावा किसी भी फैसले को मानने को बाध्य नहीं होगा। भारत एवं कश्मीर में इस बात पर भी पूर्ण सहमति हुई थी कि कश्मीर प्रान्त या स्वायत्तशाषी रियासत में मुख्यमन्त्री के स्थान पर प्रधानमन्त्री (वजीर-ए-आजम) और राज्यपाल के स्थान पर सदर (राष्ट्रपति) का पद होगा।
इन बातों और तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यहाँ पर विचार करने की बात यह है कि हम भारतीय लोग कश्मीर के जबरन विलय के बाद कितने ईमानदार रहे?
हमने विलय की शर्तों का कितना पालन किया और कश्मीर को एक स्वायत्त रियासत के रूप में कितनी संवैधानिक आजादी प्रदान की?
मेरा मानना है कि जिस रिश्ते की नींव ही मजबूरी में या ब्लैक मेल करके, धोखे से या मजबूरियों का लाभ उठाने के मकसद से रखी गयी हो, उसमें आगे अत्यधिक सद्भावना बरतने एवं एक-दूसरे (विशेषकर कमजोर पक्ष के) के जज्बातों को सम्मान देने की आवश्यता होती है।
बजाय इसके हमने हिन्दूराष्ट्र का ख्वाब संजोकर देश को तोडने की बात करने वाले जनसंधियों के दबाव में कश्मीर को अपनी बपौती समझ लिया और कश्मीर के लोगों को भारतीय नागरिक नहीं, बल्कि पाकिस्तान परस्त भारतीय नागरिक मानकर व्यवहार करना शुरू कर दिया। जिससे अविश्वास और बढा। जिसे हमने हमारे अनेक निर्णयों से पुख्ता किया।
जिनमें हमने कश्मीर में सदर एवं प्रधानमन्त्री के पदनामों को समाप्त करके बेईमानी का परिचय दिया।
कश्मीर की निर्वाचित सरकारों को हमने बर्खास्त करके राज्यपाल/राष्ट्रपति शासन के बहाने कश्मीर पर सीधा शासन करने का कुत्सित प्रयास किया।
सेना के लोगों पर भी कश्मीरी लोगों को हिन्दू एवं मुसलमान में बांटने के आरोप हैं।
जनसंघियों ने कश्मीर में भारतीय झंडा फहराने का नाटक करके कश्मीर को, कश्मीर एवं भारत तथा हिन्दू एवं मुस्लिम के बीच विभाजित करके कटुता पैदा करने का अक्षम्य अपराध किया।
इजना करने के उपरान्त भी हम चाहते हैं कि कश्मीर में सबकुछ सही होता रहे! क्या यह सम्भव है? कदापि नहीं!
आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी आपने लिखा है कि-
कश्मीर मैं भारत के झंडे जलाये जा रहे हैं, भारत विरोधी प्रदर्शन हो रहे है, यह सरासर गलत है, हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं है. कश्मीर मैं बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों पर जुल्म कर रहे हैं तो ये कोई नयी बात नहीं है। भारत का इतिहास भरा पडा है, मगर इस समय मुझे कश्मीरियत पे बात करनी है, इसका हल ईमानदारी से होना चाहिए.
-आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी उपरोक्त पंक्तियों में बिना आपने विस्तृत विश्लेषण के एक सच्चे इंसान और एक सच्चे कश्मीरी के रूप में वह सब कह दिया, जिसे हमारे अनेक बन्धु न तो मानना चाहते हैं और न हीं सुनना चाहते हैं। परन्तु कश्मीरियत का दर्द सुनना भी होगा और मानना भी होगा, यदि भारत को एवं इंसानियत को बचाना है तो।
आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी आपने लिखा है कि-
नफरत किसी चीज का हल नहीं है, मुरली मनोहर जोशी ने 92 मैं लाल चौक पर तिरंगा फेहराया मगर क्या शांति हो गयी?
जन संघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आन्दोलन कर शहादत दी क्या शांति हो गयी?
नेहरु ने सशर्त महाराज की मदद की क्या कश्मीर पूरा रहा?
जिन्ना ने कश्मीर हथ्याना चाह क्या मिल गया?
ये सब नफरत और ईमानदारी न होने का परिणाम है. प्रदर्शन विरोध क्यों? आज कश्मीर मैं जो हो रहा है वो कश्मीरियत के खिलाफ है, आम कश्मीरी के खिलाफ है।
आप सोचिये अगर एक 9-10 साल के बच्चे की एक क्रिकेट बाल बीएसएफ अफसर को लग जाये तो वो उसे (बच्चे को) गोली मरवा देता है. तो मैं सभी से पूछना चाहता हूँ कि क्या उस बच्चे के परिजनों को उस अफसर कि पूजा करनी चाहिए? क्या अफसर अपने बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार करता.
-आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी उपरोक्त अधिकांश बातों पर मैं पूर्व में ही अपने विचार प्रकट कर चुका हूँ। यहाँ पर यही कहना चाहता हूँ कि नफरत को नफरत से नहीं जीता जा सकता। जो लोग जिस कथित हिन्दुत्व की महानता की बात करते हैं, उस धर्म में ऐसा लिखा बताया जाता है कि हिन्दू तो दुश्मन से भी प्यार करता है, लेकिन कश्मीरी भाईयों से तो इनका हिन्दुत्व केवल नफरत करना ही सिखा रहा है।
यहाँ पर मैं थौडा सा भिन्न मत भी रखना चाहूँगा कि यदि आर्यहिन्दुओं के बजाय कश्मीर पर अनार्य और आदिनिवासी हिन्दुओं की नीति अपनायी जाती तो आज कश्मीर वास्तव में स्वर्ग होता, क्योंकि आर्यों ने तो भारत में आकर नकली एवं अनार्यों को शोषित करने हेतु हिन्दुत्व का चोला ओढा है और हिन्दुत्व के नाम पर अपनी धार्मिक दुकानें ही चलायी है, जबकि अनार्य आदिनिवासी हिन्दू जो वास्तव में इस देश के नैसर्गिक स्वामी हैं, की नीति इंसानों से ही नहीं, पहाडों, पेडों और प्रकृति तक से अगाध प्रेम करने की रही है।
अनार्य आदिनिवासी हिन्दुओं के हाथ में भारत की सत्ता रही होती तो न तो कश्मीर प्रारम्भ में ही अलग होता और न विलय की नौबत आती और यदि विलय के बाद भी अनार्यों के हाथ में सत्ता आ गयी होती तो भी कश्मीर जलने के बजाय महक रहा होता। यह एक ऐसी बीमारी है, जिसके कारण केवल कश्मीर ही नहीं, बल्कि सारा देश जल रहा है। केवल दो प्रतिशत लोगों की रुग्ण मानसिकता के कारण 98 प्रतिशत स्वस्थ लोग शोषित और अपमानित जीवन जीने को विवश हैं।
केवल कश्मीर ही नहीं, बल्कि नक्सलवाद भी इन्हीं की दैन है। भूख, कुपोषण, बेईमानी, चोरी, बलात्कार, हिंसा सब कुछ इन्हीं लोगों की दैन है। जिसपर कभी विस्तार से लिखूँगा।
आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी आपने लिखा है कि-
वास्तव मैं हम अपने पैरों पर कुल्हाडी मार रहे हैं. वो कश्मीर उस अफसर का घर नहीं रहा न ही आप मैं से अधिकतर लोगों का है, मगर जिनके पास घर नहीं है, उन्हें अपना घर बहुत याद आता है. मैं जानता हूँ अगर आज मैं कश्मीर जाऊंगा तो मेरा क्या हाल होगा, मगर इसमें कमी न मेरी है और न उनकी कमी है तो तमाशा देखने वालों की.
-आदरणीय श्री कांटरू जी कमी किसकी है, इस बारे में मैं तो अपना मंतव्य स्पष्ट कर चुका हूँ, लेकिन मुझे ज्ञात है कि मेरी बात से सहमति व्यक्त करने वाला कोई विरला ही होगा, क्योंकि सरकार, शासन, प्रशासन, मन्दिरों आदि की तरह अन्तरजाल पर भी तो उन्हीं दो प्रतिशत शोषकों एवं अत्याचारियों का या उनके भ्रमजाल में फंसे लोगों का या इन दो प्रतिशत शोषकों एवं अत्याचारियों से साठगांठ करके इस देश को लूटने वालों का ही कब्जा है।
अपवाद स्वरूप हम जैसे कुछ लोग यहाँ पर आ जाते हैं, जिन्हें विदेशियों का ऐजेण्ट, क्रिश्चन, मुस्लिमपरस्त, देशद्रोही आदि घोषित कर दिया जाता है।
आदरणीय श्री समर्थ कांटरू जी उपरोक्त गालियों की परवाह किये बिना भी आपके विचारों पर मेरी यही टिप्पणी है। अब इसे समझने या विरोध करने या इसकी भर्त्सना करने के लिये, इसे मैं अन्तरजाल पर प्रदर्शित करने हेतु पोस्ट कर रहा हूँ। जिनको जो सोचना है, वो सोचें। सच कहने में हमेशा खतरा रहता है और मुझे खतरा उठाने की आदत है।
शुभकामनाओं सहित।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
जो लोग कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रम्ण को उचित ठहरा रहे हैं आश्चर्य है कि वो इसके विरोधियों को राष्ट्रद्रोही भी ठहरा रहे हैं। आश्चर्यजनक रूप से उनको घाटी मे मुस्लिम बहुल जनसंख्या तो दिखती है जिसके बल पर पाकिस्तान का दावा कश्मीर पर बनता है, पर उनको पूरे क्षेत्र (जम्मू, कश्मीर, लद्दाख जो तीनो मिल कर हरी सिंह के रियासत का हिस्सा थे) की जनसंख्या का स्वरूप नही दिखता, जहां कि आज भी (आतंकवादियों द्वारा प्रताडित करने के बावजूद) मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं। इस प्रकार यह कोइ नही कह सकता कि यह रियासत भारत मे विलय के जनसांख्यिकी वितरण के विपरीत था। इसके लिए सरदार पटेल को जिम्मेदार ठहरा कर लोग अपनी ओछी मानसिकता का ही परिचय दे रहे हैं। आश्चर्य तो यह भी है कि बात बात पर प्रमाण मांगने वाले , बिना प्रमाण, सरदार पटेल पर आरोप लगा रहे हैं कि वो कश्मीर पर बिना मंत्रीमण्डल की सहमति के आक्रमण करने वाले थे, जबकि पूरी दुनिया जानती है कि नेहरु ने सरदार पटेल को कश्मीर मामले से अलग कर दिया अतः उन्होने इस मसले पर कोई दखल नही दिया।
एक खबर श्रीनगर से
कश्मीर घाटी में बच्चों ने किया प्रदर्शन.
कश्मीर घाटी में बुधवार १ सितम्बर २०१० बच्चों ने भी प्रदर्शन किया. लेकिन इनके हाथ में पत्थर और लाठियां नहीं बल्कि बस्ते और किताबें थीं। नारेबाजी इन प्रदर्शनकारियों ने भी की, मांगा तो सिर्फ अपना भविष्य जो जून माह से जारी हिंसक प्रदर्शनों के चलते स्कूलों के बंद रहने से लगातार अंधेरे की तरफ बढ़ रहा है। पढ़ाई चौपट होने से परेशान छात्रों ने बुधवार को हताश होकर लालचौक का रुख किया। लालचौक ही अलगाववादियों की अपनी बात दुनिया तक पहुंचाने की जगह रहता है। अपनी पढ़ाई को बचाने की मांग करते हुए वादी के विभिन्न हिस्सों से छात्रों का एक समूह लालचौक जमा हो गया। ये लोग बंद और हिंसक प्रदर्शनों की निंदा करते हुए कह रहे थे कि शिक्षा उनका मौलिक अधिकार है, जिसे छीना नहीं जाना चाहिए। इन बच्चों ने इस्लाम के आदर्शो का उल्लेख करते हुए शिक्षा के महत्व पर रोशनी डालते हुए कहा कि जो लोग स्कूल बंद करा रहे हैं वे किसी भी तरह से कश्मीरियों के खैरख्वाह नहीं हैं।
बच्चों को प्रदर्शन करते देख वहां कई लोग जमा हो गए। सब उनकी बात को सही ठहरा रहे थे, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिन्हें यह रास नहीं आया। उन्हें लगा कि वे अब बेनकाब हो रहे हैं और उन्होंने इस प्रदर्शन का विरोध किया। उन्होंने प्रदर्शनकरियों के खिलाफ वहीं पर नारेबाजी करते हुए मारपीट का प्रयास किया। उन्होंने छात्रों के साथ मौजूद नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता फारूक गांदरबली और उनके पुत्र एजाज खान के साथ मारपीट भी की। स्थिति को बिगड़ता देख पुलिस ने त्वरित कार्रवाई कर हालात को संभाला।
इससे पूर्व प्रदर्शन में शामिल एक छात्र ने कहा कि जब तक हम सही तरीके से शिक्षित नहीं होंगे, हम सामाजिक बुराईयों, शोषकों और शरारती तत्वों के गुलाम रहेंगे। हम चाहते हैं कि हमेशा आजाद रहें, हमारा हक कोई न दबा सके, कोई हमें गुमराह न कर पाए, इसके लिए शिक्षा जरूरी है। लेकिन कुछ लोग जो हमें गुलाम बनाना चाहते हैं वे जेहाद और आजादी के नाम पर हमें अनपढ़ता की तरफ ले जाते हुए हमेशा के लिए अपना गुलाम बनाना चाहते हैं। यह हमें बर्दाश्त नहीं।
कश्मिरियों और कश्मीरियत पर ऊँगली उठाने वालो कश्मीरी हमेशा से सहिष्णु रहा है, kya aap in बच्चों की भावना समझ sakte hain.
समर्थ कांटरु
शानदार प्रस्तुति!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
श्री मीणाजी ने श्री रवीद्रनाथ जी को सम्बोधित कश्मीर एवं तत्सम्बन्धी विलय के सन्दर्भ में जो जानकारी दी है उसके प्रमाण भारतीय अभिलेखागार में उपलब्ध हैं .
इसके अलावा १८५७ की क्रांति पर तीन प्रमुख लेखकों -सावरकर ;कार्ल मार्क्स तथा एक अंग्रेज लेखक की कृति दृष्टव्य है .ज्ञात प्रमाणों के आधार पर यह सर्व साधारण को मालुम है की १८५७ में देशी राजाओं और दिल्ली की सल्तनत ने हार मानकर ईस्ट इंडिया कम्पनी के आगे घुटने टेक दिए थे .तब जितना इलाका दिल्ली के सुल्तान को कर देता था सिर्फ वही हिन्दुतान कहलाता था .वह सिमित कर लाल किले तक रह गया था .बादशाह को कर्ज लेकर बुढ़ापा काटना पड़ा और इसी कंगाली ने उसे परझित कराया था .ईस्ट इंडिया कम्पनी की जीत के बाद ब्रिटेन की महारानी
ने इस कई देशों के ;कई राष्ट्र्यीताओं के उप महादीप पर कब्ज़ा कर लिया किन्तु संधि की शर्तों को यथावत रखा ;इसमें नेपाल .तिव्वत वर्मा श्र्र्लंका तथा कश्मीर की संधियाँ देशी रजवाड़ों से भिन्न्ब थी ..उन्हेह भी मानी किया .आज़ादी के बाद जब
अंग्रेज जाने लगे तो उनने भारतीय देशी राजे रजवाड़ों को उनकी यथा स्थिति का वादा किया किन्तु कांग्रेस और देश की जनता ने जितना संभव था तुरंत दवाव वनाकर एक अच्छा खास भरपूर इलाका जोड़कर पहली बार एक देश बनाया ,चूँकि कुछ रियासतों को भारत और पाकिस्तान से आलग रहने का भी विकल्प था अतेव वे पीछे छुट गए ;कश्मीर भी ;जैसा की मीणाजी ने स्पष्ट किया है की वह धरा ३७० के पुछाल्ल्ये से बंधा रहा .जो हमें अब निर्णीत करना है
आदरणीय श्री रवीन्द्रनाथ जी,
मेरी धर्मपत्नी अस्वस्थ हैं और पिछले एक सप्ताह से अस्पताल में भर्ती हैं।
ऐसी स्थिति में परिवार एवं पत्नी की देखरेख की अतिरिक्त जिम्मेदारियों के चलते समय का काफी अभाव है। इस कारण मैं आपको धारा 370 के इतिहास की अक्षरश: जानकारी उपलब्ध नहीं करवा पा सका हूँ।
मैं समझता हूँ कि आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे।
फिर भी मैं एक आलेख का अंश यहाँ पर आपकी एवं अन्य पाठकों की जानकारी के लिये प्रस्तुत कर रहा हूँ। इससे आपको कुछ न कुछ जानकारी अवश्य मिलगी।
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कश्मीर मुद्दे के इतिहास पर आते हैं, स्वतंत्रता के समय 5000 से अधिक रजवाड़े थे। इन रजवाड़ों को तीन विकल्प दिये गये।
1. भारत में विलय,
2. पाकिस्तान में विलय,
3. स्वतंत्र रहना।
राजाओं को भौतिक निकटता और जनमत के आधार पर निर्णय लेने के दिशा-निर्देश दिये गये।
अधिकतर राज्यों की समस्याएं आसानी से सुलझ गयीं जबकि-
हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर के शासकों ने निर्णय लेने में हिचक दिखायी।
हैदराबाद और जूनागढ़ सैन्य कार्रवाई के जरिये भारत में मिले।
जम्मू-कश्मीर ८० प्रतिशत से अधिक मुसलमानों के साथ मुस्लिम बहुल राज्य था। कश्मीर के राजा हरि सिंह स्वतंत्र बने रहना चाहते थे और उनका कश्मीर को एशिया के स्विट्जरलैंड की तरह विकसित करने का इरादा था।
कश्मीर ने स्वतंत्र रहना चुना था। उन्होंने भारत और पाकिस्तान दोनों को यथास्थिति बरकरार रखने की संधि का प्रस्ताव दिया।
पाकिस्तान ने संधि स्वीकार ली, भारत ने इनकार कर दिया।
कश्मीर ने स्वतंत्र रहना चुना था। जिन्ना अपने पड़ोस में एक स्वतंत्र मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य (कश्मीर) का होना बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। तर्क था कि चूंकि कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं, इसलिए उन्हें पाकिस्तान में मिल जाना चाहिए। यही वह वजह थी जिस कारण कबीलाइयों के भेस में पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला किया।
इसी तरह प्रजा परिषद (जो कि भाजपा के पूर्ववर्ती संस्करण जनसंघ का पूर्ववर्ती थी) के पंडित प्रेमनाथ डोगरा, ने हिंदू राजा को सलाह दी कि वे एक धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ ‘हिंदू राज्य` (कश्मीर) का विलय न करें।
उनका मानना था कि राज्य की प्रकृति राजा के धर्म से निर्धारित होती है।
पंडित डोगरा जैसे लोग कैसे हैदराबाद को कैरेक्टराइज करते होंगे, जहां का शासक एक मुसलिम था?
कश्मीरी लोग पाकिस्तान में विलय नहीं चाहते थे।
पाकिस्तानी हमले के सम्मुख जब हरि सिंह अपनी सुरक्षा में भाग खड़े हुए, शेख अब्दुल्ला ने बड़ी जिम्मेवारियां निभायीं।
अगर शेख अबदुल्ला जिन्ना-सावरकर के राजनीतिक स्कूल से निकले होते तो वे भी मार्च करती हुई पाकिस्तानी सेना के आगे पाकिस्तान में विलय पसंद कर सकते थे।
लेकिन ऐसा नहीं था। वे कश्मीरियत को पसंद करने वाले लोगों में थे। कश्मीरियत जो सूफी, ऋषि और बौद्ध परंपराओं से मिल कर बनी संस्कृति है, इसी समन्वयवादी संस्कृति की श्रेष्ठता के लिए, न कि इस या उस धर्म के लिए। वे हमेशा लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खड़े हुए।
जब पाकिस्तानी कबीलों ने कश्मीर पर हमला किया, नेशनल कांफ्रेंस के प्रमुख शेख अबदुल्ला ने हमले के बाद के परिदृश्य में बड़ी भूमिका निभायी।
कश्मीर के तत्कालीन राजा ने दूतों के जरिये भारत से कश्मीर को बचाने के लिए सेना भेजने के लिए बात चलायी। शेख अब्दुल्ला ने इसका समर्थन किया और सुनिश्चित किया कि भारतीय सेना हस्तक्षेप करे।
नेहरू ने कहा कि जब तक कोई समझौता नहीं हो जाता, भारत उस राज्य में सेना नहीं भेज सकता, जहां इसका कोई वैधानिक आधार नहीं है।
इसके बाद राज्य के लोगों के लिए के स्वायत्त सुरक्षाकवच (जिसके आधार पर अनुच्छेद 370 का जन्म हुआ) के साथ एक समझौते का प्रारूप बना।
संधि का सिद्धांत था ‘दो प्रधान, दो विधान।`
भारत को सुरक्षा, विदेश मामले, संचार एवं मुद्रा व्यवस्था देखनी थी, जबकि असेंबली बाकी दूसरे मामलों में फैसला लेगी।
भारतीय संविधान के प्रावधान कश्मीर पर लागू नहीं होने थे, क्योंकि कश्मीर का अपना संविधान था।
इन शर्तों के साथ भारत ने अपनी सेना भेजी। तब तक पाकिस्तानी सेना कश्मीर के एक तिहाई हिस्से पर कब्जा कर चुकी थी।
लोगों की जान न जाये, इससे बचने के लिए युद्ध विराम घोषित कर दिया गया और मामला संयुक्त राष्ट्र पहुंचा। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के मुताबिक, दोनों सेनाओं द्वारा अधिकृत कश्मीर में एक जनमत संग्रह कराया जाना था, जिसकी निगरानी संयुक्त राष्ट्र को करनी थी।
यह अब तक नहीं हो पाया है। पाकिस्तान ने अपने कश्मीर को आजाद कश्मीर के बतौर घोषित किया। भारतीय हिस्से का भी अपना प्रधानमंत्री, सदरे रियासत था।
भारत सरकार बाद में कश्मीर की स्वायत्तता को धीरे-धीरे घटाते और क्षीण करते हुए उसे जबरन भारत में मिला लेने संबंधी, जनसंघ के श्यामाप्रसाद मुखर्जी और अन्य अतिराष्ट्रवादी तत्वों के, दबाव में आ गयी।
कश्मीर के लोकप्रिय प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने भारत सरकार के दबावों को नकार दिया। सांप्रदायिक दबाव बढ़ने पर ही वे अमेरिकी राजदूत के पास भी पहुंचे किन्तु स्वतंत्र कश्मीर का विचार बह गया। देशद्रोह के आरोप में कई सालों के लिए उन्हें जेल की सजा दे दी गयी और धीरे-धीरे कश्मीर के प्रधामंत्री का पद मुख्यमंत्री में और सदरे रियासत का पद राज्यपाल में बदल दिया गया और भारतीय संविधान की पहुंच कश्मीर तक विस्तारित हो गयी। भारत में सरकार ने कश्मीर के मामलों को सुपरवाइज करना शुरू किया। लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर से कमजोर होती गयी।
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धन्यवाद।
शुभकामनाओं सहित।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
मीना जी
आपने एक सच्चाई को सामने रखा है जो कथित देशभक्तों को पचने वाली नहीं है सभी हिंदुत्व और मुस्लित्व की बात करते हैं आप जानते है के पाकिस्तान के लोग न सहिष्णु हैं और न थे अगर वे सहिष्णु होते तो वे कश्मीर पर आक्रमण न करते, अलग पाकिस्तान न बनाते, आजतक आतंकवाद को न पालते, देश मैं अस्थिरता न होती, तालिबान न होता . मगर कश्मिरियों और कश्मीरियत पर ऊँगली उठाने वालो कश्मीरी हमेशा से सहिष्णु रहा है, अगर कश्मीरी सहिष्णु न होता तो-
१ ८०-९० प्रतिशत मुस्लिम का राजा हिन्दू न होता
२ देश के बहुत मुस्लिम पाकिस्तान गए लेकिन एक भी कश्मीरी नहीं
३ किसी कश्मीरी ने देश को बाटने की बात नहीं कही
४ कश्मीर प्रस्ताव पर किसी हिन्दू या मुस्लिम कश्मीरी ने महाराज का विरोध नहीं किया
५ अगर किसी कश्मीरी को भारत मैं नहीं आना था तो vo महाराज हरी सिंह का विरोध करता
महाराजा हरी सिंह ने जो किया था कश्मीरियत के लिए शेख
अब्दुल्लाह ने जो किया कश्मीरियत के लिए. मैं आपकी इस लड़ाई का एक पात्र हूँ तथा मेरे परिवार के सदस्य भी, हम आस लगाये बैठे हैं के हमें घर कब देखना नसीब होगा. इस चर्चा मैं कई लोगों ने अपनी राय दी है, हिंदुत्व और मुस्लित्व की बात की है धारा ३७० हिन्दू के लिए है तो मुस्लमान के लिए भी लेकिन सिर्फ कश्मीरी के लिए. अगर आज आप मुस्लमान को कह rahe हैं के वो स्वायतता की बात कर रहे हैं और वो राष्ट्रविरोधी हैं तो सबसे बड़े राष्ट्र विरोधी तो महाराज हरी सिंह थे जो भारत मैं आना ही नहीं चाहते थे और पाकिस्तान के खिलाफ जब उन्हों ने भारत से सहायता मांगी तो नेहरु ने blackmail किया अगर महाराज पाकिस्तान का हाथ थाम लेते तो?
आप सभी लोग अपने घरों मैं हैं जल तो मेरा कश्मीर रहा है और आप अपनी रोटी सेंक रहे हैं. यह सत्य है के वहा पर भारत के झंडे फूंक रहे हैं जो बहुत गलत है. हम लोग खाना बदोश बने हैं मगर बहुसंख्यक ने अल्पसंख्यक के साथ अत्याचार किया, ऐसा पहली बार तो नहीं हो रहा है भारत मैं कई उदाहरण हैं मगर मुझे अभी कश्मीर की बात करनी है
कुछ महीने पहले BSF ने एक १०-११ साल के लड़के को गोली मार दी क्योंकि उसकी क्रिकेट की रबर बाल अफसर को लग गयी थी
आर्मी ने ३ फर्जी एन्कोउन्टर किये
फौजी ने बलात्कार किया
फ़ौज जो कर रही है क्या वोह सही है, हुर्रियत कुत्ते सी भोंकती रहती है क्या वो सही है किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं है कश्मीरियों की हालत खरबूजे जैसी को गयी है चाहे छुरी हो या छुरा या कोई सुई कटना और घायल होना कश्मीरी का नसीब है. इसलिए मेरा आप सभी महानुभावों से अनुरोध है की अपने पुवाग्रह छोड़ दें कश्मीर के बारे मैं इमानदारी से सोचे अगर नहीं सोच सकते तो कृपया सोचना छोड़ दें जिस दिन हम भारतीय कश्मीर को कश्मीर की नजर से देखेंगे मेरा दावा है उसी दिन यह मुद्दा सुलझ जायेगा और तो और पाकिस्तान के गुर्दे मैं घुसा हुआ कश्मीर भी वापस आएगा वोह कश्मीरी भी वापस आएंगे वोह दिन ख़ुशी का होगा जिस दिन हम नया भारत बनायेंगे मवरा कश्मीर स्वर्ग होगा भारत का और हम गर्व से कहेंगे के ऐ भारत माँ तेरा मुकुट हिमाला कश्मीर शोभा वाला. आओ हम सभी प्यास करें –
आपकी टिपण्णी मैं कश्मीरियत का दर्द झलकता है हम आपके साथ हैं समर्थ साहब, आपका एक शब्द नया आविष्कार है मुस्लित्व. सभी लोग फालतू बहस कर रहे हैं पर ये बात सच है
वो क्या जाने पीर पराई
जिस के पैर परी न बिवाई
आदरणीय श्री मीणा जी,
मैं ईश्वर से आपकी पत्नी के स्वस्थ होने की कामना करता हूँ और आप दोनों के दीर्घायु होने की कामना करता हूँ.
आपने इतिहास की महत्वपूर्ण सच्चाई से अवगत कराया है इसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं. मैं नहीं समझता कि इस परिचर्चा मैं शामिल अधिकतर लोग भारत के अधिकतर राजनेताओं कि तरह से राष्ट्रवाद का चोला ओढ़कर कश्मीर का राग अलापने के अलावा इस समस्या के समाधान के बारे मैं सोचते होंगे. आप सभी लोग इस समस्या को हिदुत्व और मुस्लित्व के चश्मे से देखते है जबकि यहाँ मुद्दा कश्मीरियत का है. मैं आपकी इस परिचर्चा का एक पात्र हूँ मेरा मानना है आज भी कश्मीरी को कश्मीरी से कोई प्रॉब्लम नहीं है. भारत मैं आज भी अगर सहिष्णु है तो वो कश्मीरी है. कश्मीर का हिन्दू और मुस्लिम दोनों राष्ट्रवादी है अगर आप इसे हिदुत्व और मुस्लित्व के चश्मे से देखते है तो मैं आपको बता दूं के –
१ अगर कश्मीर का मुस्लिम अन्यों की तरह असहिष्णु होता तो वो पाकिस्तान की बात करता क्या किसी ने की?
२ अगर कश्मीर का मुस्लिम हिन्दू विरोधी होता तो क्या उसके ८० प्रतिशत मुस्लिम जनसँख्या में कश्मीर का राजा हिन्दू होता?
३ कश्मीर ने स्वतंत्र रहना चुना था। महाराजा हरी सिंह ने भारत और पाकिस्तान दोनों को यथास्थिति बरकरार रखने की संधि का प्रस्ताव दिया। और जब पाकिस्तान के आक्रमण के समय भारत से मदद मांगी तो नेहरु ने कश्मीर को ब्लेकमेल किया
४ यदि कश्मीरी स्वायत्ता मांग रहे हैं तो उसका क्या कारण है? स्वायत्ता तो महाराज हरी सिंह ने भी घोषित की थी तो क्या महाराज हरी सिंह को दोष दें. वास्तव मैं महाराज हरी सिंह और शेख अब्दुल्लाह ने कश्मीर और कश्मीरियत के लिए सच्चा काम किया है.
कश्मीर मैं भारत के झंडे जलाये जा रहे हैं, भारत विरोधी प्रदर्शन हो रहे है यह सरासर गलत है हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं है. कश्मीर मैं बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों पर जुलम कर रहे हैं तो ये कोई नयी बात नहीं है भारत का इतिहास भरा पड़ा है मगर इस समय मुझे कश्मीरियत पे बात करनी है इसका हल इमानदारी से होना चाहिए.
नफरत किस चीज का हल नहीं है मुरली मनोहर जोशी ने ९२ मैं लाल चौक पर तिरंगा फेहराया मगर क्या शांति हो गयी?, जन संघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आन्दोलन कर शहादत दी क्या शांति हो गयी? नेहरु ने सशर्त महाराज की मदद की क्या कश्मीर पूरा रहा? जिन्ना ने कश्मीर हथ्याना चाह क्या मिल गया? ये सब नफरत और इमानदारी न होने का परिणाम है.
प्रदर्शन विरोध क्यों? आज कश्मीर मैं जो हो रहा है वो कश्मीरियत के खिलाफ है आम कश्मीरी के खिलाफ है
आप सोचिये अगर एक ९-१० साल के बच्चे की एक क्रिकेट बाल BSF अफसर को लग जाये तो वो उसे गोली मरवा देता है. तो मैं सभी से पूछना चाहता हूँ कि क्या उस बच्चे के परिजनों को उस अफसर कि पूजा करनी चाहिए? क्या अफसर अपने बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार करता .
वास्तव मैं हम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं. वोह कश्मीर उस अफसर का घर नहीं रहा न ही आप मैं से अधिकतर लोगों का है मगर जिनके पास घर नहीं है उन्हें अपना घर बहुत याद आता है. मैं जानता हूँ अगर आज मैं कश्मीर जाऊंगा तो मेरा क्या हाल होगा मगर इसमें कमी न मेरी है और न उनकी कमी है तो तमाशा देखने वालों की.
आसमान मैं भी सुराख़ हो सकता है
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों
अगर हम वास्तव मैं कश्मीर के लिए सोचेंगे तो पाकिस्तान मुंह देखता रह जायेगा पूरा का पूरा कश्मीर हमारा होगा
धरती का स्वर्ग सबसे न्यारा होगा.
भारत माँ का मुकुट हिमाला होगा.
जो भी ये कर पायेगा वो दिलवाला होगा.
वो भारत पुत्र आएगा
जो सबको आइना दिखलायेगा.
मीणा जी मैं आपको यह मेल भी भेज रहा हूँ क्योंकि आपके पास शायद समय न हो. कृपया मार्गदर्शन करने का कष्ट करें
धन्यवाद।
शुभकामनाओं सहित।
समर्थ कांटरु
मीणा जी : आप अपने परिवारका ठीक ध्यान रखें। संवाद तो चलता ही रहेगा।
परमेश्वरसे प्रार्थना कि, आप की धर्म पत्नी को स्वास्थ्य प्रदान करें।
मीणा जी क्षमा चाहता हूँ आपको मेरे कारण कष्ट हुआ, मुझे उत्तर देना न तो आवश्यक था न ही उसमे विलंब हो रहा था, सर्व प्रथम तो आप अपने परिवार एवं अपना ध्यान रखें, यह संवाद उससे अधिक महत्वपूर्ण नहीं। ईश्वर से प्रार्थना करता हूं आपकी धर्म पत्नी के स्वास्थ्य के लिये।
मेरे पास कुछ और प्रश्न हैं पर अब वो सब तब जब आप मुझे संकेत देंगे।
आपका शुभाकांक्षी
रवीन्द्र नाथ
मेरा 22.08.2010 का संपादक जी को प्रेषित सुझाव :-
आज श्री तिवारी जी टिप्पणी पढ़कर उक्त बात याद आ गयी सो इसे सार्वजानिक कर रहा हूँ!
————————–
आदरणीय सम्पादक जी,
नमस्कार।
चूँकि आपने साफ तौर पर स्वीकार कर लिया है कि आप उन टिप्पणियों को हटा देते हैं, जो आप (सम्पादक) की नजर में निरर्थक, अश्लील और असंसदीय होती हैं, इसलिये इस विषय पर आगे विवाद या बहस करना निरर्थक है। मेरी ओर से बात यहीं पर समाप्त हो जाती है, क्योंकि मैं सम्पादक के निर्णय को सम्मान देने में विश्वास करता हूँ।
चूँकि मैं भी एक सम्पादक हूँ और किसी समय (१९८६ से १९८८ तक) जनसत्ता जैसे प्रतिष्ठित समाचार-पत्र, दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि से मेरा नाता रहा है। अत: पत्रकारिता के सम्बन्ध में अर्जित स्वल्प ज्ञान और जो कुछ सीखा है, उसके आधार पर मेरा विनम्र सुझाव है (आशा कर सकता हूँ कि आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे) कि हटायी गयी टिप्पणियों के अवशेष प्रवक्ता पर दिखते रहें तो उचित होगा। जैसे कि एक मामले में आपने मेरे आग्रह पर एक पाठक की टिप्पणी को हटाते समय छोडे (अवशेष) हैं और साथ ही आपका निर्णय भी लाल रंग में प्रदर्शित हो तो बेहतर होगा। जिसमें साफ तौर पर उल्लेख हो कि पाठक श्री…………………………………… की टिप्पणी निरर्थक/अश्लील/असंसदीय/अन्य कोई (जो भी कारण लागू हो) श्रेणी की होने के कारण हटा दी गयी है।
अभी तक ऐसे पाठकों के बारे में किसी को भी पता नहीं चल पाता है। मेरी नजर में ऐसा करना माता-पिता द्वारा अपने बच्चों के अवगुणों पर पर्दा डालने की सोच के समदृश्य ही है।
मेरे सुझाव पर अमल करने से-
प्रथम तो पारदर्शिता कायम होगी,
दूसरे उन तमाम पाठकों के नाम लाल रंग में अन्य पाठकों को भी इंगित होंगे, जो लगातार ऐसी असंगत टिप्पणियाँ करते रहते हैं, जिन्हें निरर्थक/अश्लील/असंसदीय होने के कारण सम्पादक को हटाना पडता रहा है।
तीसरे ऐसे पाठक अपनी टिप्पणियों में सुधार करने को प्रेरित होंगे।
मैं समझता हूँ कि मेरे विचार आप तक सम्प्रेषित हो गये हैं।
मैं फिर से दौहरा दूँ कि मेरे विचार सुझाव मात्र ही हैं। कृपया अपना स्वतन्त्र निर्णय लें, मैं आपके निर्णय का सदैव आदर करने वालों में शामिल हूँ।
आपका शुभाकांक्षी
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
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प्रवक्ता के सुखद भविष्य की लिए मैं इस सुझाव को सार्वजनिक कर रह हूँ!
आदरणीय सम्पादक जी
हमारे कुछ साथियों को लगता है की जो उनकी हलकट बातों या दकियानूसी कुतर्कों से सहमत न हो ;उसे देशद्रोही करार दिया जाए .यदि सारी समझदारी और राष्ट्र निष्ठां की ऐसी भोंडी और फूहड़ प्रस्तुती को आप प्रश्रय देंगे तो प्रवक्ता .कॉम की निष्पक्ष और निर्भीक प्रतिबद्धता पर प्रश्न चिन्ह तो लगेगा ही ;साथ ही जो वास्तविक गद्दार हैं वे कश्मीर एवं पूरे भारत को यथावत रौंदते चले जायेंगे .
में डॉ पुरषोत्तम मीना और सामर्थ कांत्रू जी से पूरी तरह सहमत हूँ .वाकी के टिप्पणीकारों से विनम्रतापूर्वक उनकी भावनाओं की कद्र करते हुए क्षमा चाहता हूँ .
आदरणीय श्रीराम तिवारीजी,
नमस्कार।
टिप्पणियों को लेकर हम पूरी सावधानी बरतते हैं और प्रतिदिन तीन चार समाजविरोधी और गाली गलौज वाली टिप्पणियां डिलीट की जा रही है। यदि आपको किसी टिप्पणी के बारे में आपत्ति है तो सूचित करने का श्रम करें। उचित कार्यवाही की जाएगी।
-संजीव, संपादक, प्रवक्ता
आदरणीय श्री रविन्द्र नाथ जी,
जहाँ तक मुझे याद है, मैं अन्तरजाल पर आपसे पहली बार मुखातिब हो रहा हूँ।
मेरा मानना है कि प्रवक्ता डॉट कॉम का मंच चर्चा एवं विमर्श का मंच है। जिसमें आपसी सद्भाव और सम्मान का भाव अन्तर्निहित होने पर ही बात आगे बढ सकती है।
इस आलेख पर प्रकट होकर आपने जितनी भी टिप्पणियाँ की हैं, प्रथमदृष्टया उनका उद्देश्य चर्चा को आगे बढाना कम और अन्य लोगों के ज्ञान की परीक्षा लेना अधिक प्रतीत हो रहा है।
परीक्षा देने के लिये किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता। परीक्षा देना या नहीं देना, परीक्षा देने वाले की इच्छा पर निर्भर है।
इसके अलावा आपकी टिप्पणियों से यह भी प्रतीत हो रहा है कि आपका विचार, इस चर्चा को देश हित में और वर्तमान सन्दर्भ में आगे बढाने के बजाय, अज्ञात कारणों से, किन्हीं अज्ञात दिशाओं की ओर मोडना लग रहा है।
यदि चर्चा करनी है तो अपनी ओर से तथ्य रखें न की लोगों की परीक्षा लेने का प्रयास करें।
बेहतर होता कि आप हमारा मार्गदर्शन करके चर्चा को आगे बढाने में इस मंच पर हमारा नेतृत्व करते और लेख या पाठकों के विचारों की समालोचना प्रस्तुत करते।
आपका शुभाकांक्षी।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश
मीणा जी, सत्य ही हम प्रथम बर ही आपसे मुखातिब हो रहे हैं। मैने अपने प्रथम टिप्पणी मे ही यह स्पष्ट कर दिया था कि इस विषय मे मेरा ज्ञान सीमित है (मैने शून्य नही कहा था) जो जानकारी मेरे पास थी मैने उसके आधार पर कुछ टिप्पणीयां की और आशा थी कि य तो मेरा भ्रम दूर होगा अन्यथा आप गलती से किसी बिन्दु को भूल गये है तो उसे जोद लेगे, परन्तु आपने इस्के दूसरे ही अर्थ लगाये (कैसे आप ज्यादा बेहतर जानते हैं)
रही परीक्षा लेने की बात तो मेरे पास इसका समय नही है।
मैने इस बात का पूरा प्रयत्न किया है कि मैं सार्थक प्रश्न ही करूं व्यर्थ के नहीं, रही बात तथ्य रखने की तो फिर कहुँगा मेरे पास तथ्य कम हैं प्रश्न अधिक, और तथ्यों की जानकारी न होने से मै प्रश्न न कर सकूं ऐसा मैं नही सोचता (यह तो शिक्षा पद्धति के मूल सिद्धान्त के खिलफ होगा)
मैं अपना प्रश्न फिर से आप सभी के सम्मुख रखता हूँ –> धारा ३७० हटाए जाने या रखे जाने के पूर्व हमे यह जानना जरूरी है कि यह क्यों लगा? और J&K ही इसका अधिकारी क्यों है शेष राज्य क्यों नहीं? जब तक हम इस जानकारी को प्राप्त नहीं कर लेते इस विषय पर समाधान नही निकल सकता।
आशा है कि आप इस पर मुझे अवश्य जानकारी प्रदान करेंगे। अन्यथा भी मैं किसी को मज़्बूर नही कर सकता। मैने देखा कि एक व्यक्ति इतने अधिकार से कश्मी र बात कर रहा है तो उससे प्रश्न किया, उत्तर देना या न देना पूर्णतः उस व्यक्ति के विवेक पर है।
शेष मैं कभी भी परीक्षा लेने के लिये अंतरजाल पर नही आता, आप जैसे मनीषीयों की परिक्षा लेने की योग्यता भी नही है मुझमें।
मीणा जी “नाग की भांति फुंफकारने” की बात मुझे ज़रूर खराब लगी थी और मैने पना विरूध उस पर दर्ज किया है, मैं नही समझता कि वहाँ भी मैने कोइ सीमा लांघी है, अगर आप को लगता है तो अवश्य स्पष्ट करें।
आदरणीय श्री मधुसूदन जी,
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि-
कश्मीर समस्या तो पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेने की समस्या है?
बल्कि इसके साथ-साथ यह भी उतना ही कडवा सच है कि कश्मीर का भारत में विलय करते समय कश्मीर के तत्कालीन शासकों ने भारत से यही अपेक्षा की थी, कि भारत कश्मीर को पाकिस्तानी आक्रमण से न मात्र बचाकर, सुरक्षा प्रदान करेगा, बल्कि जितने हिस्से में पाकिस्तानी सेना घुस आयी थी, वहाँ से पाकिस्तान सेना को वापस भी खदेड देगा।
जिसका सीधा और साफ अभिप्राय है कि भारत से कश्मीरियों को पक्की उम्मीद थी, कि वह पाक सेना से कश्मीर को मुक्त करवा देगा। जिसे हम आज तक मुक्त नहीं करवाया पाये हैं। फिर भी अपने अहंकार को चोट नहीं पहुँचे, इसलिये कहते रहते हैं कि हम वीर हैं और हम पाकिस्तान को एक झटके में उडा सकते हैं। ऐसा कहने वाले बिलों में दुबक कर ही दहाड सकते हैं।
हिन्दुत्व को बदनाम करके, कथित हिन्दू वीरता की हुंकार भरकर नाग की भांति फुंफकारने का नाटक करने वाले वालों को धारा ३७० को समाप्त करने की असम्भव बात कहकर वोटों की खातिर देश के लोगों को भडकाने एवं बरगलाने से पूर्व इस बात को याद रखना चाहिये कि हम कश्मीर विलय की प्रथम शर्त को पूरी नहीं कर पाये, फिर भी कहते हैं कि कश्मीर हमारा है। हमारे देश का अभिन्न हिस्सा है!
क्या ऐसा कहते समय हमें जरा भी शर्म नहीं आती है?
जब किसी विधवा औरत को लोग आयेदिन छेडें और परेशान करने लगें, जिससे तंग आकर वह एक दबंग पुरुष से इस आशय से विवाह रचा ले कि कम से कम इससे उसे गुण्डों से तो सुरक्षा मिलेगी। लेकिन न तो वह पुरुष, उस औरत को गुण्डों से निजात दिला पता है और न हीं उसको संरक्षण दे पाता है, ऐसे में क्या हम ऐसी औरत के कदमों को भटकने से रोक सकते हैं? क्या उस औरत से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह अपने नाम के पति के प्रति वफादर रहे?
“पाक अधिकृत” शब्द के प्रयोग पर गम्भीर आपत्ति!
अन्त में एक बात और भारत सरकार तथा भारत के मीडिया द्वारा दशकों से लगातार किये जा रहे “पाक अधिकृत” शब्द के प्रयोग पर भी मुझे गम्भीर आपत्ति है, क्योंकि “अधिकृत” शब्द का अर्थ होता है, “कानूनी अधिकार!” जबकि भारतीय कश्मीर को पाक में “गुलाम कश्मीर” कहा जाता है, जो उनके दृष्टिकोण से हम से अधिक सही है।
अत: मेरा विनम्र मत है कि इसके स्थान पर हमें आगे से “पाक काबिज” कश्मीर शब्द का प्रयोग करना अधिक उचित एवं प्रासंगिक प्रतीत होता है।
कृपया विद्वान पाठकगण इस बात पर विचार करें।
धन्यवाद।
“हिन्दुत्व को बदनाम करके, कथित हिन्दू वीरता की हुंकार भरकर नाग की भांति फुंफकारने का नाटक करने वाले वालों को धारा ३७० को समाप्त करने की असम्भव बात कहकर वोटों की खातिर देश के लोगों को भडकाने एवं बरगलाने से पूर्व इस बात को याद रखना चाहिये कि हम कश्मीर विलय की प्रथम शर्त को पूरी नहीं कर पाये, फिर भी कहते हैं कि कश्मीर हमारा है। हमारे देश का अभिन्न हिस्सा है!”
निःसंदेह हअम विलय मे चूक गये, और हम विलय की प्रथम शर्त पूर्ण नही कर पाए, इस परिस्थिति मे आप क्या चाहते है, हमे अगर कश्मीर को अपना नही कहना चाहिय तो क्या कहना चाहिए, क्या हमे उसको देश का अंग मानने से इंकार कर देना चाहिये? कश्मीर को अपना कहना नाग की फुंकार है तो उसे अपना न मानना क्या है? क्या यह देशभक्ति की पराकाष्ठा है?
आदरणीय डॉ. मीणाजी ने — “पाक अधिकृत” शब्द के प्रयोग पर गम्भीर आपत्ति! जतायी है।
—मीणाजी सही कहते हैं, मैं इस उल्लेखको वापस लेता हूं, इतना ही नहीं मैं सहर्ष उनके द्वारा सुझाए “पाक काबिज” शब्दोंका समर्थन करता हूं। मेरी टिप्पणी में पाक अधिकृत के स्थानपर “पाक काबिज” पढा जाए।
मीणाजी इस सूचना के लिए धन्यवाद।
आदरणीय सुनील पटेल जी,
आपकी यह बात सच है.
“जम्मू और कश्मीर में हिंदुस्तान का झंडा जलाना, सुरक्षा बलों पर हमला करना वाकई शर्मनाक है. ऐसे में हमारे देश के द्वारा स्वयात्यता की बात करना शर्म की बात है.”
धन्यवाद!
श्री धाराराम यादव जी को बहुत बहतु धन्यवाद जिन्होंने सिलसिलेवार बहुत कम शब्दों में जम्मू और कश्मीर का इतिहास बयान कर दिया. वास्तव में बहुत बड़ी राजनितिक भूल हुई है और उसे सुलगाया जाता रहा है.
यह तो हम जानते है की जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय कुछ शर्तो पर हुआ था किन्तु इसका मतलब यह यह नहीं की भारत के सुरक्षा बालो के जवान वहां पर अपनी जान गवाते रहे. जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा मिला हुआ है. पाकिस्तान जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद को सह दे रहा है बल्कि प्रायोजित कर रहा है. किन्तु हमारी सरकार कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठा रही है. अगर सरकार गंभीर अति गंभीर नहीं हुई तो हर राज्य स्ववात्यता की मांग करेगा.
हमारे घर की बागुड पर पडोशी कब्ज़ा कर ले तो हमारे ऊपर लानत है. क्या अहिन्षा से हमारा घर सुरक्षित रहेगा. लाठी मारने के लिए नहीं बल्कि बचाने के लिए भी होती है. जरुरत है हमें अपना खोया हुआ आत्म सम्मान को वापस लाने की.
कुछ वर्षो पूर्व तक क्रिकेट में पाकिस्तान जीत जाये तो भारत देश में पाकिस्तान का झंडा फेहराया जाना देश के कई हिस्सों में आम बात थी. आज जम्मू और कश्मीर में हिंदुस्तान का झंडा जलाना, सुरक्षा बलों पर हमला करना वाकई शर्मनाक है. ऐसे में हमारे देश के द्वारा स्वयात्यता की बात करना शर्म की बात है.
कश्मीर का इतिहास पूरी दुनिया जानती है.
श्री धाराराम यादव जी को बहुत बहतु धन्यवाद जिन्होंने सिलसिलेवार बहुत कम शब्दों में जम्मू और कश्मीर का इतिहास बयान कर दिया. वास्तव में बहुत बड़ी राजनितिक भूल हुई है और उसे सुलगाया जाता रहा है.
यह तो हम जानते है की जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय कुछ शर्तो पर हुआ था किन्तु इसका मतलब यह यह नहीं की भारत के सुरक्षा बालो के जवान वहां पर अपनी जान गवाते रहे. जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा मिला हुआ है. पाकिस्तान जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद को सह दे रहा है बल्कि प्रायोजित कर रहा है. किन्तु हमारी सरकार कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठा रही है. अगर सरकार गंभीर अति गंभीर नहीं हुई तो हर राज्य स्ववात्यता की मांग करेगा.
हमारे घर की बागुड पर पडोशी कब्ज़ा कर ले तो हमारे ऊपर लानत है. क्या अहिन्षा से हमारा घर सुरक्षित रहेगा. लाठी मारने के लिए नहीं बल्कि बचाने के लिए भी होती है. जरुरत है हमें अपना खोया हुआ आत्म सम्मान को वापस लाने की.
कुछ वर्षो पूर्व तक क्रिकेट में पाकिस्तान जीत जाये तो भारत देश में पाकिस्तान का झंडा फेहराया जाना देश के कई हिस्सों में आम बात थी. आज जम्मू और कश्मीर में हिंदुस्तान का झंडा जलाना, सुरक्षा बलों पर हमला करना वाकई शर्मनाक है. ऐसे में हमारे देश के द्वारा स्वयात्यता की बात करना शर्म की बात है.
एक राजा था जिसके पास एक बकरा था. राजा ने ऐलान किया की जो बकरे का पेट भर देगा उसे आधा राज्य दे दूंगा. हर व्यक्ति बकरे को लेकर जाता और रत भर चारा, खाना खिलाता और राजा के पास लेकर आता. राजा जैसे ही हरा घास बकरे को दिखता बकरा हरी घास पर मुह मारता. एक व्यक्ति समझदार था, उसने बकरे को लेकर गया और रात भर कुछ भी खाने को नहीं दिया. वोह उसकी तरफ हरी घास बढ़ता और जैसे ही बकरा हरी घास की और मुह बढ़ता राजा छड़ी उसकी मुह पर मारता. रात भर यही चलता रहा. दूसरे दिन राजा ने जैसे ही हरी घास उसकी तरफ बधाई, उस व्यक्ति ने अपना हाथ में रखा डंडा हिलाया, बकरे ने मुह वापस ले लिया.
यहाँ न तो कोई बकरा है, न कोई राजा है, न कोई डंडा है. केवल एक सीख है की जरुरत पड़ने पर डंडा से भी असंभव से असंभव कार्य करवाया जा सकता है. कश्मीर का इतिहास पूरी दुनिया जानती है.
sunil patel जी – विलय की शर्तें किसने रखी थीं, हरी सिंह तो इस स्थिति मे थे नहीं, यह एक रोचक जानकारी रहेगी, उन लोगो से यह प्रश्न अवश्य पूछिये जो ३७० के पीछे इतिहास को जिम्मेदार बता रहे हैं।
चेतावनी:
एक विशेष बिंदू की ओर आप सभीका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, जिस के विषयमें यादवजी ने कोई उल्लेख किया नहीं है।
कूटनैतिक दृष्टिसे सारे भारतके लिए सीमापर बसे हमारे प्रदेश बहुत महत्व रखते हैं। यह बात जब(इतिहासमें नयी है)–* विमान, *प्रक्षेपक, *मिसाईल, और *अणु युद्धकी सामग्री नहीं होती थी, ऐसे १९ वी सदीतकके समयमें कुछ विशेष महत्व नहीं रखती थी। हिमालय हमारा संत्री हुआ करता था।
चेतावनी! अब वह स्थिति नहीं है। अब चीन और पाकिस्तान दोनो हाथ मिलाकर हम पर धावा बोल सकते हैं।(परदेके पीछे वे क्या कर रहे हैं? इसकी जानकारी हमें नहीं है।) हाल ही मे, चीनने (प्रक्षेपक )मिसाइलें हमारे देश पर तानकर रखी हुयी, समाचार में आप सभी देशहितैषि पाठकों ने पढी होंगी। मुझे तो भय दिखाई दे रहा है।
और सिख बंधुओंको भी हमारे कश्मिरसे निष्कासित करने की गतिविधियां सुनी जा रही हैं।
भारतीय समाज मूलतः न्याय प्रिय है। पर दुश्मन के प्रति प्रियता, आत्मघात प्रतीत होती है।इतिहास साक्षी है, कि, हिंसकोके प्रति अहिंसा, अहिंसकोंके और अहिंसाके अंतमें ही परिणमती है।”शांतिमय सह अस्तित्व” जिन्हे दूसरोंके अस्तित्वमें विश्वास नहीं, उनके साथ सफल नहीं हो सकता। सर्व धर्म समभाव जो केवल एक मज़हब समभाव में मानते हैं, उनके साथ कैसे सफल होगा?
सर्व कल्याणकारी भारत इस”चीन और पाकीस्तानकी चाल” को समझ लें। और अपने आपको किसी ३७० या ३८० में बांधकर समस्या सुलझनेका प्रयत्न ना करें। अब War की परिभाषा स्वीकार करें। और कहते हैं कि Every thing is fair in love and war. चाहे तो क्षेत्रीय (Limited to J and K ) आपात्काल लाएं। सौ सुनारकी, बंद करें, दुम हिलाना बंद करें, —और एक लुहारकी लगाएं। आग लग जाए, तब किताबोंको पढना गलत है।
“Stop thinking(you can think strategy) and start Acting” अस्थायी ३७० को क्या स्थायी रूपसे सोचेंगे? पंडितोंका, जो शासन पुनर्वास करा सकता हैं, सिख्खों को सुरक्षा प्रदान करा सकता हैं, वही भारतका सफल शासन कर सकता हैं। कोई हैं? जो यह करा सकता हैं? कश्मिर समस्या तो पाक अधिकृत कश्मिरको वापस लेने की समस्या है।
चेतावनी:
एक विशेष बिंदू की ओर आप सभी का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, जिस के विषयमें यादवजी ने कोई उल्लेख किया नहीं है।
कूटनैतिक दृष्टिसे सारे भारतके लिए सीमापर बसे हमारे प्रदेश बहुत महत्व रखते हैं। यह बात जब(इतिहासमें नयी है)–* विमान, *प्रक्षेपक, *मिसाईल, और *अणु युद्धकी सामग्री नहीं होती थी, ऐसे १९ वी सदी तक के समयमें कुछ विशेष महत्व नहीं रखती थी। हिमालय हमारा संत्री हुआ करता था।
चेतावनी!
अब वह स्थिति नहीं है। अब चीन और पाकिस्तान दोनो हाथ मिलाकर हम पर धावा बोल सकते हैं।
लेकिन हम ऐसे राष्ट्र वादी है जो आपस मैं लड़ते और लड़ाते रहेंगे क्योंकि अब हमारी और मधुसुदन जी की रोटी इस से ही चलने वाली है
– श्री राम तिवारी
बंधु श्री. तिवारी जी– यह रोटी की बात किस संदर्भसे? क्या आप रोटी के लिए इस चर्चामें भाग ले रहे हैं ? या जो लिखते हैं, उसमें विश्वास करते हैं?मैं सोचता हूं, कि तिवारी जी जो लिखते हैं, उसमें विश्वास करते हैं, इस लिए लिखते हैं। मैं भी मूलतः कुछ नयी जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रवक्ता को पढता हूं, और जिस विषयमें कुछ सोच/विचार/चिंतन किया हुआ है, जिसे मैं सतत करते रहता हूं, प्रस्तुत करता हूं।
और जो दृष्टिकोण से देखा ना गया हो, उसे प्रस्तुत करना मैं मेरा कर्तव्य समझता हूं। वैयक्तिक जानकारी देना, कुछ बंधुओंको “मेरी आत्म श्लाघा” प्रतीत होगी, इस लिए उससे दूर रहना उचित समझता हूं। मेरा पूरा विश्वास है, कि “वादे वादे जायते शास्त्र(मेरे लिए सत्य बोधाः) बोधाः” —वास्तवमें इसे संवाद कहना मुझे अधिक जचेगा। आप और अन्य सभी हम यदि इसे संवादके रूपमें लें, तो “प्रवक्ता” की यह सारी उठा पटक सफल हो सकती है।मैं इसे संवाद समझता हूं।
हम जाने अनजाने एक अघोषित युद्ध में उलझे हुए हैं | वो जमाने और थे जब युद्ध सेना द्वारा हथियारों से लड़ा जाता था | आज तो देशवाशियों को सतत जागरुक रहकर आजादी की हिफाजत करना होगी | जयचंदों को परखना होगा | चीन और पाक पोषित आतंकवाद भी इसी की एक कड़ी है | दुर्भाग्य से हमारे नेतागण इन परिस्थितियों को न समझते हुए गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर रहे हें | वोट के लालच में देश को और देश के नागारिकों को विभाजित कर रहे है | बुनियादी तौर पर हिन्दुओं को समझाना होगा की १२ करोड़ हिन्दुस्तानी मुसलमानों को समुद्र में नहीं फेंका जा सकता, वहीँ दूसरी और मुसलमानों को भी हिन्दू भावनाओं को समझकर आचरण और व्यवहार में परिवर्तन करना ही होगा | पकिस्तान अथवा चीन अगर देश के किसी हिस्से पर बम पटकेंगे तो विस्फोट में केवल हिन्दू अथवा केवल मुसलमान नहीं बल्कि दोनों हताहत होंगे | इसलिए हमारे दुश्मन भी साझा हें | लेकिन क्या वोटों के भूखे भेडिये , फूट डालो राज करो की नीति को मानने वाले एसा होने देंगे ?
आपने बिल्कुल सही लिख है,जो लोग “मुस्तफ़ा मुस्त्फ़ा निजाम-ए-मुस्त्फ़ा के नारे लगाते हुवे सेना पर हमला कर रहे है,जो भारतिय ध्वज को जला रहे है,१ लाख करोड रुपये जिनकि चम्चागिरि मे खर्च हो चुके है,जिन लोगो के द्वारा हजारो सेनिक अपने यौवन को मात्रिभुमि पर कश्मिर मे होम कर चुके है,वो लोग कभी नही सुधरेन्गे,एक मात्र रास्ता है हिन्दुओ को योजनाबध्द रुप से बसाया जाये,अगर वो पत्थर मारे तो वापस पत्थर और गोलि मारे तो वापस गोलि,बिना एसके हजारो सालो तक ये सम्स्या सिर दर्द हि रहेगि,इस्लामिक कट्टर्ता है जिम्मेदार एसकि जो कि कभी खत्म नही होगि,कुछ उपाय तुरन्त किये जा सकते है:
१.सारे धर्म स्थल वहा के सरकार अपने कब्जे मे ले ले.
२.लाउड स्पिकर को बन्द कर दे.
३.जितने भी अलगावादि नेता है उन्हे तुरन्त जैल मे डाल कर राज्य के बाहर रख दे.
४.जो भी सडको पर दंगा फ़ेलाता दिखे तुरन्त गोलि मार दे,सारे मीडिया पर पाबंदि लगा दे वहा.
५.३७० को तुरन्त प्रभाव से खत्म कर दे,चाहे एसके लिये कुछ भी संसोधन करना पडे.
६.सेना को अपने परिवार वालो के साथ वहा बसने की छुट दि जाये तथा उन्के लिये जमीन का भी एन्तजाम करे सरकार.
७.जो पाकिस्तान जाना चाहे उसे जल्दि से जल्दि खदेड दे,जो भारत मे रहना चाहे उसको सुरक्षा प्रदान करे.
इस प्रकार कुछ प्रयास कर हम एस सम्स्या को थोडा रोक सकते है,विलय जैसि बाते करने वाले,३७० के पक्ष मे संविधान कि बतो को कोपि पेस्ट करने वाले एस विषय की गम्भिरता से या तो अवगत नही है या अपने दलिय स्वार्थ के कारण सामान्य पाठक को गुमराह कर रहे है और जातिय विध्वेष को बडावा दे रहे है और जिन लेखक महोदय ने एतनी परिश्र्म से यह लेख लिखा है,उनके लेख को ना पढ कर उनके पिछे लगे नाम पर “तत्व मीमांसा” कर रहे है……………………..जो बहुत ही गलत है और राष्ट्रिय एकता के गम्भिर विषय को अपने सन्कुचित जातिय स्वार्थ से तौल कर राष्ट्र विरोधियो को हम भारतियो पर हसने का मौका दे रहे है,आशा है एसे स्व्मान्य विध्वान लोग सम्झेन्गे………….
अभिषेक जी मधुसूदन जी आप जैसे कश्मीर परस्त लोगों की वजह से कश्मीर के ये हालात हैं. भगवन कृपया आप कश्मीर को कश्मीरियों के हाल पर छोड़ दो आप लोग वो लोग हैं कि घर किसी का भी jale alaav का kaam होना चाहिए. आप लोग कश्मीर के बारे मैं क्या जानते हो लिखना आसान है लोकतंत्र के पुजारियों पर क्या तुमने हुर्रियत से गठबंधन कर लिया है. अँधेरे से बाहर निकलो देशभक्तों
आदरणीय indian जी आप कहते हैं:
(१) => “भगवन कृपया आप कश्मीर को कश्मीरियों के हाल पर छोड़ दो” आप लोग वो लोग हैं कि घर किसी का भी jale alaav का kaam होना चाहिए.<==
(२) "इंडियन" आप कहते हैं कि—"भगवन कृपया आप कश्मीर को कश्मीरियों के हाल पर छोड़ दो" —-
क्या मैं पूछ सकता हूं, कि, ऐसा करनेसे क्या लाभ हो सकता है, और कैसे?
(३) आप के इस भरोसे का कारण हमें भी समझाइए?
(४)बताने का कष्ट करेंगे आप? कि कश्मिरका भला, उसको उसके अपने भरोसे छोड देनेसे कैसे हो सकता है?
(५)वैसे, आज तक तो, कश्मीरि यों को उनके के हाल पर छोड देनेसे, आज यह नौबत आयी है, कि वहां से सिक्ख बंधुओं को भी, अब, या तो इस्लाम स्वीकार करो, या कश्मिर खाली करो, कहा जा रहा है।(६) पंडित नेहरूके ही भ्रातृ जनों को वहांसे भगाया जा चुका है।(७) एक तिहायी कश्मिर इसी हाल पे छोडकर गंवाया गया है।(८) यदि हाल पर ना छोडा होता, और आगे कूच करती हुयी, बिजली की गतिसे आगे जीतकर- बढती हुयी, सेनाको रोका ना गया होता, तो आज नक्शा तो होता, पर नक्शेमें P O K, पाक अधिकृत कश्मिर ना होता। विश्वकी, विश्वसत्ता बनने की तैय्यारी रखनेवाला भारत,केवल राजनैतिक इच्छा-शक्ति के अभाव में शिखंडी सा व्यवहार क्यों कर रहा है? है कोई तर्क आपके पास? तर्क दीजिए, लेबल नहीं। मत नहीं। मान्यता नहीं। खोखला उपदेश नहीं। अलगाव नहीं चाह्ते हम।
हम तो अलगाव को चाहनेवाले कश्मिरको साथ मिला कर अलगाव को समाप्त करना चाहते हैं। अलगाव नहीं गले लगाव!
धर्म के आधार पर एक बंटवारा हो चुका है, अगर कश्मीरीयों को उनके हाल पर छोडने से तात्पर्य धर्म के आधार पर एक और विभाजन है तो यह आसानी से मान नही ली जायेगी। हाँ जिन्हे धार्मिक राज्य चाहिये वो निःसंदेह पडोसी देश मे मुहाजिर हो के जा सकते हैं।
सिर्फ कश्मीरियों को उनके हाल पर क्यों छोडा जाये? जम्मू एवं लद्दाख के लोग वर्षों से स्वायत्तता माँग रहे हैं, कश्मीरियॉ की बात करने वाले इन्हे कैसे भूल जाते हैं।
भक्त गण जरा बतायेंगें,मेरे जैसे लोगो के कारण क्या हालात है??और ये कश्मिरि-कश्मिरि क्या लगा रखा है??कश्मिरि तो पन्डित है जो जम्मु और दुसरि जगह तम्बुओ मे रहते है,………
वो क्षिरभवानि का क्षेत्र है जिसे देख कर विवेकान्नद जि इतने कुर्ध हुवे के अपनी डायरी मे लिखते है कि मै वहा होता तो दोनो हाथो मे तलवारे लेकर दुष्ट आक्रांताओ का संहार करता.वो अमरनाथ की भुमी है,वो शारदा के उस पीठ की भुमी है जिस पर शंकराचाये ने “सर्वग्य” उपाधी लेकर आरुढ किया था,४० लाख लोगो का संहार करना पडे तो भी की ज्यादा हानी नही है.
“राष्ट्र कभी शर्तों से नहीं बना करते है,राष्ट्र के निवासियों के अदम्य साहस और बाहुबल-सूझ्बूझ से बना करते है,सरदार वल्लभ भाई पटेल ने ना जाने कितनी रियासतॊ को साम-दाम-दण्ड-भेद की निति से भारत में विलय कराया था।”
अगर कोयी ये सोचे “अहिंसा के या स्वायत्ता” के गीत गाने से ये “अलगाववादी मुल्ले” सुधर जायेंगें तो उन्हें याद रखना चाहिये कि आजादि के अनेक तथाकथित नेता एसा ही सोचते थे उनकी छाती पर टाँग रख कर मुसलमानों ने देश को तोडा था जबकि उनका आजादि मे योगदान कितना ये बताने की कोयी जरुरत नही है चन्द नामों के अतिरिक्त केवल अलगाववाद ही है,हिन्दुओं को बरगलाने वालों!! वो कश्मिरि पंण्डित भी एसा ही कहते थे,क्या मिला??ना घर बचा,ना सम्पत्ति बची,ना इज्जत,भुगतना तो हिन्दु को ही पडा ना,अगर सेना ना हो तो जल्द ही कश्मिर भारत से अलग हो जाये,जो हम होंने देंगे नही………………..
नेहरूजी इस कश्मीर समस्या को जब सयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गए थे,तो मेरे मतानुसार उसके दो प्रमुख कारण थे.नेहरुजी उस नवगठित विश्वसंस्था पर आवश्यकता से अधिक विस्वास कर बैठे और दूसरा कारण था,उनका कश्मीर की जनता पर भरोसा.वे सोच भी नहीं सकते थे की जो जनता कवैलियों और पाकिस्तान सैनिकों द्वारा इतनी उत्पीडित हुई है,वह कभी भी भारत के विरुद्ध जा सकती है.पर इन दोनों बैटन में वे मार खा गए और इससे नेहरूजी केवल एक ही बात प्रमाणित करने में सफल रहे की कूटनीति में वे वे केवल एक बच्चा हैं.जो समस्या केवल और दो दिनों तक युद्ध जारी रखने में ख़त्म हो सकती थी,उसको किसी तीसरे पार्टी के हाथ देना उनकी बहुत बड़ी भूल थी.दूसरी बात वे यह बूल गए की समय बीतने के साथ ही काश्मीरी मुसलमान पाकिस्तान की काली करतूतों को भूल जायेंगे और उन्हें याद रह जाएगा उनका मजहब उसके बाद भी काश्मीर में जो कुछ हुआ और विकास के नाम पर और काश्मीर जनता की मदद के नाम पर जो अरबों रुपयों का घोटाला किया गयाऔर काश्मीर की आम जनता को जब उसका लाभ नहीं मिला,तो इस रवैये ने तो आग में घी का काम किया.काश्मीर आज भी पिछड़ा राज्य है. ऐसा क्यों हुआ ?जब विकास के नाम पर वहां न जाने कितना खर्च हुआ?यहाँ की कहानी भी भ्रष्टाचार की कहानी है.पूर्बोतर सीमा पर विद्रोह के पीछे भी यही भ्रष्टाचार है.सेना के दम पर हम कितने दिनों तक काश्मीर को अपने कब्जे में रख सकेंगे? हमें किसी न किसी तरह वहां की आम जनता का दिल जीतना ही होगा.पता नहीं यह कब होगा?
VIKASH KE NAAM PAR BHARAT SANGH KI OR SE APNE ANYA PRADESHON KI APEKSHA jand k PAR JYAADAA KHARCH HUA HAI .SENY BALON KI TENATI PAR ALAG OR JO VIGAT 63 VARSH MEN KURWANIYA DEE VI ALAG
अगर शत्रु द्वार पर हो तो सुरक्षा पर अधिक व्यय आता ही है।
यह प्रवक्ता .कॉम की उल्लेखनीय उपलब्धी ही कही जायेगी की जिस किसी सम्वेदनशील विषय पर जन चर्चा हुई ;उसमें प्रामाणिक तथ्योंको भी उपलब्ध कराया जा रहा है .श्री पुरषोत्तम जी मीणा के अथक परिश्रम ने श्री धारा राम जी यादव के आलेख की प्रतिपूर्ती कर दी ,हम सभी को विलीनीकरण की संवेधानिक प्रक्रिया का भले ही ज्ञान हो किन्तु अक्षरश ;प्रस्तुती के लिए श्री मीणा जी बधाई और धन्यवाद् दोनों के हकदार हैं .
आदणीय साथियो,
संविधान का अनुच्छेद 370 एक विचारधारा के पोषक आम लोगों की भी जुबान पर रहता है, लेकिन इसे कितनों ने संविधान में पढा होगा, यह मुझे नहीं मालूम, लेकिन यहाँ प्रस्तुत टिप्पणियों से लगता है कि अनेक को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।
अत: चर्चा को सकारात्मक दिशा में आगे बढाने के उद्देश्य से मैं अनुच्छेद 370 का मूल पाठ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। जो इस प्रकार है :-
–=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=–
2[370. जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी उपबंध– (1) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी,–
(क) अनुच्छेद 238 के उपबंध जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में लागू नहीं होंगे ;
(ख) उक्त राज्य के लिए विधि बनाने की संसद की शक्ति,–
(i) संघ सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों तक सीमित होगी जिनको राष्ट्रपति, उस राज्य की सरकार से परामर्श करके, उन विषयों के तत्स्थानी विषय घोषित कर दे जो भारत डोमिनियन में उस राज्य के अधिमिलन को शासित करने वाले अधिमिलन पत्र में ऐसे विषयों के रूप में विनिर्दिष्ट हैं जिनके संबंध में डोमिनियन विधान-मंडल उस राज्य के लिए विधि बना सकता है; और
(ii) उक्त सूचियों के उन अन्य विषयों तक सीमित होगी जो राष्ट्रपति, उस राज्य की सरकार की सहमति से, आदेश द्वारा, विनिर्दिष्ट करे।
स्पष्टीकरण–इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए, उस राज्य की सरकार से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जिसे राष्ट्रपति से, जम्मू-कश्मीर के महाराजा की 5 मार्च, 1948 की उद्घोषणा के अधीन तत्समय पदस्थ मंत्रि-परिषद की सलाह पर कार्य करने वाले जम्मू-कश्मीर के महाराजा के रूप में तत्समय मान्यता प्राप्त थी;
(ग) अनुच्छेद 1 और इस अनुच्छेद के उपबंध उस राज्य के संबंध में लागू होंगे;
(घ) इस संविधान के ऐसे अन्य उपबंध ऐसे अपवादों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए, जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा3 विनिर्दिष्ट करे, उस राज्य के संबंध में लागू होंगे:
1 संविधान (तेरहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1962 की धारा 2 द्वारा (1-12-1963 से) ”अस्थायी तथा अंतःकालीन उपबंध” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
2 इस अनुच्छेद द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति ने जम्मू और कश्मीर राज्य की संविधान सभा की सिफारिश पर यह घोषणा की कि 17 नवंबर, 1952 से उक्त अनुच्छेद 370 इस उपांतरण के साथ प्रवर्तनीय होगा कि उसके खंड (1) में स्पष्टीकरण के स्थान पर निम्नलिखित स्पष्टीकरण रख दिया गया है, अर्थात्: —
”स्पष्टीकरण– इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए राज्य की सरकार से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जिसे राज्य की विधान सभा की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने राज्य की तत्समय पदारूढ़ मंत्रि-परिषद की सलाह पर कार्य करने वाले जम्मू-कश्मीर के सदरे रियासत। के रूप में मान्यता प्रदान की हो।”
अब ”राज्यपाल” (विधि मंत्रालय आदेश सं. आ. 44, दिनांक 15 नवंबर, 1952)।
3 समय-समय पर यथासंशोधित संविधान (जम्मू और कश्मीर राज्य को लागू होना) आदेश, 1954 (सं. आ. 48) परिशिष्ट 1 में देखिए।
परंतु ऐसा कोई आदेश जो उपखंड (ख) के पैरा (i) में निर्दिष्ट राज्य के अधिमिलन पत्र में विनिर्दिष्ट विषयों से संबंधित है, उस राज्य की सरकार से परामर्श करके ही किया जाएगा, अन्यथा नहीं:
परंतु यह और कि ऐसा कोई आदेश जो अंतिम पूर्ववर्ती परंतुक में निर्दिष्ट विषयों से भिन्न विषयों से संबंधित है, उस सरकार की सहमति से ही किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
(2) यदि खंड (1) के उपखंड (ख) के पैरा (i) में या उस खंड के उपखंड (घ) के दूसरे परंतुक में निर्दिष्ट उस राज्य की सरकार की सहमति, उस राज्य का संविधान बनाने के प्रयोजन के लिए संविधान सभा के बुलाए जाने से पहले दी जाए तो उसे ऐसी संविधान सभा के समक्ष ऐसे विनिश्चय के लिए रखा जाएगा जो वह उस पर करे।
(3) इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा घोषणा कर सकेगा कि यह अनुच्छेद प्रवर्तन में नहीं रहेगा या ऐसे अपवादों और उपांतरणों सहित ही और ऐसी तारीख से, प्रवर्तन में रहेगा, जो वह विनिर्दिष्ट करे:
परंतु राष्ट्रपति द्वारा ऐसी अधिसूचना निकाले जाने से पहले खंड (2) में निर्दिष्ट उस राज्य की संविधान सभा की सिफारिश आवश्यक होगी।
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मेरा आग्रह है कि सभी विद्वान साथी इस अनुच्छेद 370 को इसके उप अनुच्छेद (1) के उपखण्ड (2) तथा उप अनुच्छेद (3) को परन्तुक सहित पढने का कष्ट करें।
अनुच्छेद 238 भी यहाँ प्रस्तुत है-
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भाग 7- अनुच्छेद 238 [पहली अनुसूची के भाग ख के राज्य]. संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा निरस्त
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संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति के प्रावधानों का अनुच्छेद 368 जो नीचे दिया जा रहा है –
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368. 1[संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसके लिए प्रक्रिया — 2[(1) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी, संसद अपनी संविधायी शक्ति का प्रयोग करते हुए इस संविधान के किसी उपबंध का परिवर्धन, परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन इस अनुच्छेद में अधिकथित प्रक्रिया के अनुसार कर सकेगी।
3[(2)] इस संविधान के संशोधन का आरंभ संसद के किसी सदन में इस प्रयोजन के लिए विधेयक पुरःस्थापित करके ही किया जा सकेगा और जब वह विधेयक प्रत्येक सदन में उस सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उस सदन के उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया जाता है तब 4[वह राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, जो विधेयक को अपनी अनुमति देगा और तब] संविधान उस विधेयक के निबंधनों के अनुसार संशोधित हो जाएगा :
परंतु यदि ऐसा संशोधन–
(क) अनुच्छेद 54, अनुच्छेद 55, अनुच्छेद 73, अनुच्छेद 162 या अनुच्छेद 241 में, या
(ख) भाग 5 के अध्याय 4, भाग 6 के अध्याय 5 या भाग 11 के अध्याय 1 में, या
(ग) सातवीं अनुसूची की किसी सूची में, या
(घ) संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व में, या
(ङ) इस अनुच्छेद के उपबंधों में,
कोई परिवर्तन करने के लिए है तो ऐसे संशोधन के लिए उपबंध करने वाला विधेयक राष्ट्रपति के समक्ष अनुमति के लिए प्रस्तुत किए जाने से पहले उस संशोधन के लिए 5 *** कम से कम आधे राज्यों के विधान-मंडलों द्वारा पारित इस आशय के संकल्पों द्वारा उन विधान-मंडलों का अनुसमर्थन भी अपेक्षित होगा।
2[(3) अनुच्छेद 13 की कोई बात इस अनुच्छेद के अधीन किए गए किसी संशोधन को लागू नहीं होगी।]
6[(4) इस संविधान का (जिसके अंतर्गत भाग 3 के उपबंध हैं) इस अनुच्छेद के अधीन [संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 55 के प्रारंभ से पहले या उसके पश्चात्] किया गया या किया गया तात्पर्यित कोई संशोधन किसी न्यायालय में किसी भी आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा।
(5) शंकाओं को दूर करने के लिए यह घोषित किया जाता है कि इस अनुच्छेद के अधीन इस संविधान के उपबंधों का परिवर्धन, परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन करने के लिए संसद की संविधायी शक्ति पर किसी प्रकार का निर्बन्धन नहीं होगा।
1 संविधान (चौबीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1971 की धारा 3 द्वारा द्रसंविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया के स्थान पर प्रतिस्थापित।
2 संविधान (चौबीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1971 की धारा 3 द्वारा अंतःस्थापित।
3 संविधान (चौबीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1971 की धारा 3 द्वारा अनुच्छेद 368 को खंड (2) के रूप में पुनर्संख्यांकित किया गया।
4 संविधान (चौबीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1971 की धारा 3 द्वारा ”तब वह राष्ट्रपति के समक्ष उसकी अनुमति के लिए रखा जाएगा तथा विधेयक को ऐसी अनुमति दी जाने के पश्चात्” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
5 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा ”पहली अनुसूची के भाग क और ख में विनिर्दिष्ट” शब्दों और अक्षरों का लोप किया गया।
6 अनुच्छेद 368 में खंड (4) और खंड (5) संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 55 द्वारा अंतःस्थापित किए गए थे। उच्चतम न्यायालय ने मिनर्वा मिल्स लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (1980) 2 एस.सी.सी. 591 के मामले में इस धारा को अधिमान्य घोषित किया है।
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मेरा सभी साथियों ने निवेदन है कि अनुच्छेद 368 के प्रकाश में यह सुझाने का कष्ट करें कि अनुच्छेद 370 को हमारे संविधान के प्रारम्भिक प्रावधानों का पालन करते हुए किस प्रकार से हटाया जा सकता है? और अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की मांग कितनी संविधान सम्मत है?
मीणा जी मेरा ज्ञान इस क्षेत्र मे अत्यंत सीमित है, धारा ३७० हटाने की बात करने के पूर्व आप यदि इस पर थोडा प्रकाश डाल सके कि इसकी आवश्यकता क्यों पडी, और दूसरे राज्यों को यह विशेष सुविधा क्यों नही, तो आपके द्वारा किया गया शोध और भी पूर्णता को प्राप्त करेगा।
– As per Article 1 of the Constitution of India, Jammu and Kashmir is a part of India.
– Article 370 of the Constitution, specifies “Temporary provisions with respect to the State of Jammu and Kashmir.”
– अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की मांग है ताकि यह अस्थाई प्रावधान समाप्त हों और जम्मू-कश्मीर अन्य राज्यों के बराबर हो जाये.
आदरणीय श्री यादव जी,
मैं यह लिखने के लिये आपने विवश किया हूँ कि आप जैसे लोगों के कारण आज कश्मीर धू-धू कर जल रहा है। पूर्वजों ने जो कूटनैतिक गलतियाँ या भूलें की, उस समय क्या हालात रहे होंगे, इसका कोई असानी से आकलन नहीं कर सकता, लेकिन मैं समझता हूँ कि आपकी ऐसी कोई मजबूरी नहीं होनी चाहिये कि आप कश्मीर की समस्या पर लेख लिखें और समस्या की आत्मा को बाहर निकाल का फैंक दें और आम भोले-भाले लोगों को असत्य बातों के बहाने, कश्मीरियों के खिलाफ भ‹डकाने का प्रयास करें।
भारतीय जनता पार्टी, आर एस एस या विश्व हिन्दू परिषद की भाषा बोलने से कोई देशभक्त नहीं बन जाता है। देशभक्त बनने के लिये देश के प्रति निष्ठा की जरूरत होती है और देश का मतलब सिर्फ हिमालय या गंगा-जमुना या भाजपा नहीं, बल्कि देश का मतलब सवा सौ करोड लोग हैं।
आपने अपने आलेख में सारी बातें तो क्रमवार और तफसील से लिखी हैं, लेकिन ब‹डी चुतराई से कश्मीर के भारत में विलय की शर्तों या विलय के अनुबन्ध की भाषा को आप भूल गये।
श्रीमान यादव साहब आप उन लोगों की भाषा बोल रहे हैं, जो युदवंशी और गीता के ज्ञान को ब्रह्माण्ड में गुंजायमान करने वाले कृष्ण कन्हैया को वैश्य सिद्ध करने पर तुले हुए हैं।
धारा ३७० का आपने बार-बार जिक्र किया है, लेकिन कश्मीर के भारत में विलय के हालातों और शर्तों पर एक भी शब्द नहीं लिखा, जबकि धारा ३७० विलय की शर्तों का ही परिणाम है। आप क्या सोचते हैं कि आप नहीं लिखेंगे तो देश के लोगों को इसका पता नहीं चलेगा।
आप उसी विचार को आगे बढा रहे हैं, जिसने भारत के वीर सपूत चन्द्र शेखर आजाद के बलिदान को विवादित बना दिया है।
हमने-आपने बचपन से बढा है कि वीर चन्द्र शेखर आजाद का प्राणान्त कैसे हुआ, लेकिन भाजपा की सरकार ने आजाद को शहीद घोषित करके जाति विशेष के लिये उपयोगी बनाने के लिये बच्चों की पाठ्य पुस्तकों में लिखवा दिया कि आजाद अन्तिम सांस तक गोली चलाता रहा और अंग्रेजों ने उसके बदन को गोलियों से छलनी कर दिया, जिसके चलते वह देश के लिये शहीद हो गया।
इस झूंठ से आजाद के बलिदान को विवादित जरूर बना दिया, लेकिन सच्चाई को नहीं बदला जा सका। उसी प्रकार आपने कश्मीर के भारत में विलय की शर्तों को छुपाकर अपने आपको उजागर जरूरी कर दिया, लेकिन विलय की शर्तों को आप नहीं छुपा सकते।
आप जानते हैं कि आप जिन लोगों के हाथों खेल रहे हैं, उनके इरादे नेक नहीं हैं। सत्य को जितना दबाओगे, वह उतना ही बाहर आयेगा। सत्य को छुपाने का दोष भी, उन पर नहीं आप पर लगेगा।
अन्त में इतना जरूर कहना चाहॅूंगा कि यदि आप विलय की शर्तों का उल्लेख करके धारा ३७० एवं काँग्रेस को कोसने के लिये १००-५० लाईन और भी लिख देते तो भी आपका आलेख शानदार कहलाता।
लेखन में बेईमानी का कोई स्थान नहीं है। बेशक हमारी विचारधारा कुछ भी हो, लेकिन न तो हम इतिहास को बदल सकते हैं और न हीं तथ्यों को झुठला सकते हैं। यह आयकर विवरणी नहीं है, जिसमें कुछ भी कालापीला किया जा सके।
मैं कुछ ऐतिहासिक एवं वर्तमान दशा को दर्शाने वाले तथ्य आपकी जानकारी के लिये प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा है कि आप इन पर विचार करेंगे।
-१९४७ तक भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के ८० प्रतिशत से अधिक पदों पर मुसलमान, कायस्थ और राजपूत कौमों के लोग पदस्थ थे। जिनमें क्रमश: करीब ३५ प्रतिशत पदों पर मुसलमान, ३० प्रतिशत पदों पर कायस्थ और १५ प्रतिशत पदों पर राजपूत पदस्थ हुआ करते थे। आज इन तीनों कौमों के कुल मिलाकर ०५ प्रतिशत लोग भी भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में नहीं हैं। क्यों?
-मेरे पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार २००४-०५ तक भारतीय प्रशासनिक सेवा के कुल ३६०० पद थे। जिनमें से-
-२२.५ प्रतिशत (८१०) पद अजा एवं अजजा के लिये आरक्षित होते हुए भी, अजा एवं अजजा के मात्र २१३ (५.९१ प्रतिशत) लोग ही चयनित किये गये थे। इन दोनों वर्गों की आबादी, देश की कुल आबादी का २५ प्रतिशत मानी जाती है।
-२७ प्रतिशत (९७२) पद अन्य पिछ‹डा वर्ग के लिये आरक्षित होते हुए भी, अन्य पिछ‹डा वर्ग के मात्र १८६ (५.१७ प्रतिशत) लोग ही चयनित किये गये थे। जिनकी आबादी देश की कुल आबादी का ४५ प्रतिशत मानी जाती है।
-बिना किसी आरक्षण के भारतीय प्रशासनिक सेवा के कुल ३६०० पदों में से २४०० पदों पर केवल ब्राह्मण जाति के लोग चयनित किये गये थे। जिनकी आबादी देश की कुल आबादी का ३.५ प्रतिशत मानी जाती है। जिसके अनुसार इनका अधिकार केवल १२६ पदों पर बनता है।
-बिना किसी आरक्षण के भारतीय प्रशासनिक सेवा के कुल ३६०० पदों में से ७०० पदों पर केवल वैश्य जाति के लोग चयनित किये गये थे। जिनकी आबादी देश की कुल आबादी का ७ प्रतिशत मानी जाती है। जिसके अनुसार इनका अधिकार केवल २५२ पदों पर बनता है।
नोट : आप समझ गये होंगे कि जाति के आधार पर जनगणना नहीं करवाने के पीछे कौन हैं और उनके इरादे क्या हैं?
-गोधरा काण्ड की प्रतिक्रिया में गुजरात के हुए या कराये गये कत्लेआम (जिन्हें दंगे कहा जाता है) में मरने वाले हिन्दुओ में ९९ प्रतिशत से अधिक गैर-ब्राह्मण और गैर-वैश्य थे। जिन हिन्दुओं पर मुकदमें चल रहे हैं या चल चुके हैं उनमें भी अधिकतर गैर-ब्राह्मण और गैर-वैश्य ही थे।
आदरणीय श्री मीणा जी
देशभक्त बनने के लिये देश के प्रति निष्ठा की जरूरत होती है और देश का मतलब सिर्फ हिमालय या गंगा-जमुना या भाजपा नहीं, बल्कि देश का मतलब सवा सौ करोड लोग हैं। वास्तव में कई लोग राष्ट्र को अपनी बपौती मान कर बैठे हैं.राष्ट्र के प्रति निष्ठा रखने का मतलब कदापि यह नहीं है क़ि भावनाओं को भड़काया जाये आज जो काम आतंकवादी और अलगाववादी कश्मीर में कर rahe हैं कश्मीरी को कश्मीरी से प्रॉब्लम नहीं है प्रॉब्लम है ऐसे देश भक्तों से. आपका कहना ठीक है अगर हर व्यक्ति को उसका हक़ मिल जाये तो कोई प्रॉब्लम ही नहीं होगी लेकिन आपकी बात कितने लोग पचा पाएंगे
आदरणीय,
आपने टिप्पणी देकर सच्चाई को वैचारिक समर्थन प्रदान किया।
इसके लिये आपका आभार और धन्यवाद।
मैं बतलाना चाहता हूँ कि सुपाच्य भोजन को पचाने के लिये हाजमोला की गोली या त्रिफला का चूरण फांकने की जरूरत नहीं होती है।
दस्तावेजों पर उपलब्ध आंकडों को झुठलाना असम्भव है। अब तो सूचना का अधिकार भी है, किसी को सन्देह हो तो संघ लोक सेवा आयोग से वर्तमान वस्तुस्थिति की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
धन्यवाद।
कश्मीरी जनता का ऐसा कौन सा हक आम हिन्दुस्तानी मार कर बैठा है जो एक कश्मीर घाटी से इतर के भारतीयों को तो प्राप्त है पर कश्मीरीयों को नहीं, कृपया मेरा ज्ञानवर्धन करें।
जैसा कि पहले से ही पता था कि अभी ब्रहाम्ण-बनियो के खिलाफ़ योजना बद्ध तरिके से आग उगलि जायेगि,कश्मिर की चर्चा मे ब्रहाम्ण-बनिये कहा से आ गये???अगर उस “बनिये” ने “बामण{?}” कि जगह उस “किसान” को प्रधान्मन्त्रि बनने दिया होता तो ४.५ लाक्क बामण आज अपने देश मे भी गैर नही होते.लेकिन ये सब बातें इस लेख मे उथाने के अर्थ है कि आपको हर चिज मे बामण-बनिया ही सुझता है.
भारत में अभी तक ऐसा कोई कानून नहीं बना है। जिसके तहत लेखन के नाम पर अशिष्टता और असत्य को बढावा देने वाले लोगो को यह बतलाना जरूरी हो कि कौनसी बात कहाँ पर, किसके द्वारा क्यों उठायी जा रही है, इसके लिये न तो किसी को, किसी से पूछने की जरूरत है और न हीं कोई भी, किसी को यह बतलाने के लिये बाध्य है कि लिखा गया विवरण किसी भी समस्या से क्यों सम्बन्धित है? हाँ जिन सत्यनिष्ट, निष्पक्ष और पूर्वाग्रह से मुक्त विद्वानों को अवगत करवाने के लिये यी विवरण लिखा गया है। उनको समझ में आ गया है। नहीं आया होगा तो आ जायेगा। सत्य को समझने और स्वीकार करने के लिये निष्पक्ष, न्यायप्रिय और पूर्वाग्रह से मुक्त हृदय की जरूरत होती है।
हा हा जब कोइ और नही तो खुद ही सही.जिस प्रकार से असत्य और घ्रिणा के लेख छाप रहे हो वो बताते है कि कौन कैसा है,जिसे दिन भर बाम्ण बामण सुझता हो उसे क्या कहे???बामण सिन्द्रोम तो नही हो गया है???
mujje lagta hai is tarah ke byakti jo kashmir ki samasya mein bhi Brahman aur baisya najar ate hain mere khayal se uspar koi tippani hi nahin karni chahhiye aur use najar andaj karna hi thik hoga. Nahin to yah log charcha ke disha ko hi badal dete hain. Yah mera byaktigat mat hai .
pandit pandit sab kare Dandit kare na koy
jo uttam purush dandit kare to halla kahe hoy
Dr madhusudan uvach
“गोधरा काण्ड की प्रतिक्रिया में गुजरात के हुए या कराये गये कत्लेआम (जिन्हें दंगे कहा जाता है) में मरने वाले हिन्दुओ में ९९ प्रतिशत से अधिक गैर-ब्राह्मण और गैर-वैश्य थे। जिन हिन्दुओं पर मुकदमें चल रहे हैं या चल चुके हैं उनमें भी अधिकतर गैर-ब्राह्मण और गैर-वैश्य ही थे।”
आप क्या कहना चाहते हैं? गैर ब्राह्मण एवं गैर वैश्य लोगो को झूठे मुकदमों मे फँसाया जा रहा है? अगर ऐसा है तो क्या आप उनकी कानूनी मदद के लिये आगे आयेंगे? मैं आपको सहयोग दूँगा।
कश्मीर पर सारा मामला राजनीति का शिकार है सिर्फ यह कहना की कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, से काम नहीं चलने वाला इतना कहने se कोई देशभक्त नहीं हो जाता, कश्मीर का मुद्दा सुलझाने के लिए एकाग्रचित होकर काम करना होगा, कश्मीरी पाकिस्तान के लिए नारे लगते हैं तो ये हमारे लिए एक चुनोती है की हमें किस प्रकार उनकी सोच बदलनी होगी. वर्तमान में हमारी व्यवस्था भी इसकी दोषी है जो बिना कश्मीरियों के कश्मीर की बात करती है. कश्मीर भारत का अभिन्न है ये प्रत्येक भारतीय मानता है और ये बात देशभक्ति की कसौटी नहीं हो सकती. जब आप यहाँ पर अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की दुहाई देते हो तो फिर भारत के परिप्रेक्ष्य में इसके बारे में किये गए प्रयासों को अल्पसंख्यक तुष्टिकरण क्यों कहते हो? वास्तव में हमें अपने इस दोहरे नज़रिए से निजात पानी होगी.
जम्मू कश्मीर के न केवल वर्तमान हालात ;अपितु उसके भारतीय गणतंत्र संघ में विलीनीकरण प्रक्र्या का वास्तविक आद्द्योपांत विवरण प्रस्तुत कर धाराराम यादव ने त्रासद ज्वलंत प्रश्न को प्रवक्ता .कॉम के माध्यम से राष्ट्र की जनता के समक्ष रखा है हालांकि .में इस आलेख को एकतरफा मानता हूँ ;क्योंकि किसी भी एतिहासिक चूक के भिन्न अर्थ लगाने बाले बहुत हैं अतेव समस्या को सुलझाने के लिए वर्तमान पीढी आगे aaye or iska nidaan jarur kare kintu उस कहावत को चरितार्थ मत करो की चींटिया तो वामियाँ वनाती हैं और सांप उसमें रहने आ जाते हैं ;.अर्थात जिन महान विभूतियों ने ;भले ही मजबूरी के चलते धारा ३७० के तहत आधा अधुरा ही सही ;लेकिन कश्मीर को भारत में विलय का प्राणपन से प्रयास किया ;उनकी तो हम आलोचना ऐसे करने लगते हैं मानू हम बड़े तीसमारखां हैं जो मिनटों में इस दुराधरष mahaa vikraal samsya का samaadhaan कर ही lenge .
कश्मीर smasyaa पर poora bharat ekjut है koi apne aap को jyaada deshbhkt batane का pryaash kare तो kya किया ja sakta है .कश्मीर par meedia को भी apnee maryada nirdharit karnee hogi की use apne ही desh के un महान shaheedon और ranbaankuron की kurwani vyrth nahin ganwaani pade
हम इसका दावा नही करते कि कश्मीर की समस्या का हल ह्मारे पास है / था, परन्तु जिस म्हान विभुति ने ५०० से उपर राज्यों का विलय कराया उसको इस राज्य से जबरन दूर क्यों रखा गया?
हम इसका दावा नही करते कि कश्मीर की समस्या का हल हमारे पास है / था, परन्तु जिस महान विभुति ने ५०० से उपर राज्यों का विलय कराया उसको इस राज्य से जबरन दूर क्यों रखा गया? यह प्रश्न निश्चित रूप से खडा होता होता है जब हम देखते हैं कि इस मामले मे कितनी परेशानियाँ हम झेल रहे हैं।
धनाराम जी आप निःसंदेह शाधुवाद के पात्र है जो कि आज के माहौल मे जहाँ कि राष्ट्र के प्रति निष्ठा रखने वालॉ को निरंतर उपेक्षित किया जा रहा हो, आप ने निर्भीक रूप से अपने विचार रखे। सत्ता प्रतिष्ठान तो अपने दायित्व को पूरा करने मे अक्षम रहा ही, समाचार जगत भी अपने निहित स्वार्थो के चलते ऐसे ही तत्वों को बढावा देने मे लगा हुअ है, ऐसे मे आपका लेख एक ताज़े हवा के झोंके जैसा है।