कब थमेगा यह खूनी मंजर

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ललित गर्ग

ब्रिटेन के मैनचेस्टर शहर में एक संगीत कार्यक्रम के दौरान हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर दुनिया को हिला कर रख दिया है। इस अमानवीय, क्रूर एवं आतंकवादी कार्रवाई की जितनी भी निंदा की जाए, कम है। समझ में नहीं आता कि मासूम बच्चों का खून बहाकर और नौजवानों की जिंदगी छीनकर कोई कौन-सा मकसद हासिल करना चाहता है। एक आत्मघाती हमलावर ने यह विस्फोट उस वक्त किया, जब शहर के एक इनडोर स्टेडियम मैनचेस्टर एरिना में अमेरिकी युवा गायिका एरियाना ग्रैंड का पॉप कॉन्सर्ट समाप्त ही हुआ था। विस्फोट में 22 लोगों की मौत हो गई और 59 लोग घायल हो गए। हमले में हमलावर की भी मौके पर ही मौत हो गई। बम के धमाके से भी ज्यादा आवाज दुनियाभर के मीडियातंत्र में हुई है, सर्वत्र इस घटना की घोर निन्दा की जा रही है, कभी मन्दिर, कभी मस्जिद, कभी स्कूल, कभी भीड़भरे बाजार और कभी संगीत सभाओं में आतंक एवं हिंसा का कहर बरपाना अमानवीयता की चरम पराकाष्ठा है। संगीत की मस्ती में सराबोर लोगों को इस तरह की डरावनी एवं खौफनाक मौत का गीत सुनाकर हमेशा के लिये गहरी नींद में झौंक देना-बर्बरता एवं क्रूरता की शर्मनाक निष्पत्ति है। इस तबाही से समूची दुनिया सहम गयी है। धमाके के बाद आग का बड़ा गोला हवा में उठा, शोलों की आंच न केवल ब्रिटेन के लोगों ने ही महसूस की है बल्कि इस आंच की तपिश भारत सहित दुनियाभर ने भी महसूस की।
मैनचेस्टर में एक पॉप कंसर्ट के बाद किशोर और युवा दर्शकों के बीच खुद को बम से उड़ाने वाले आत्मघाती हमलावर के बारे में माना जा रहा है कि वह अकेला ही था और वह पुलिस की निगाह में तो था, लेकिन उसे गंभीर खतरे के तौर पर नहीं देखा जा रहा था। पेरिस, बर्लिन, नाइस, बु्रसेल्स आदि में भी हमले करने वाले आतंकी ऐसे थे जो आइएस से सीधे जुड़े थे और उसके लिए कुछ कर गुजरने पर आमादा थे। यदि मैनचेस्टर में 22 निर्दोष लोगों को निशाना बनाने और 60 लोगों को जख्मी करने वाला आतंकी भी इसी श्रेणी का था तो इसका मतलब है कि सुरक्षा में किसी न किसी स्तर पर बड़ी चूक हुई। चूंकि ऐसे संदिग्ध तत्व बार-बार आतंकी हमलों को अंजाम देने में सफल हैं जो पुलिस के रडार पर होते हैं इसलिए यूरोपीय देशों के लिए यह आवश्यक है कि वे पश्चिम एशिया जाकर आतंक के खिलाफ लड़ाई लड़ने के पहले अपनी सुरक्षा एवं खुफिया व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करें।
हर आतंकवादी वारदात के बाद समय के साथ जख्म तो भर जाते हैं लेकिन इनका असर लम्बे समय तक बना रहता है। मानवता स्वयं को जख्मी महसूस करती है, घोर अंधेरा व्याप्त हो जाता है। यह जितना सघन होता है, आतंकियों का विजय घोष उतना ही मुखर होता है। आतंकवाद की सफलता इसी में आंकी जाती है कि जमीन पर जितने अधिक बेकसूर लोगों का खून बहता है, चीखें सुनाई देती है, डरावना मंजर पैदा होता है उतना ही आतंकवादियों का मनोबल दृढ़ होता है, हौसला बढ़ता है। इन घटनाओं के बाद उन मौत के शिकार हुए परिवारों के हिस्से समूची जिन्दगी का दर्द और अन्य लोगों के जीवन में इस तरह की घटनाओं का डर – ये घटनाएं और यह दर्द जितना ज्यादा होगा, आतंकवादियों को सुकून शायद उतना ही ज्यादा मिलेगा। इससे उपजती है अलगाव की आग, यह जितनी सुलगे कट्टरपंथियों की उतनी ही बड़ी कामयाबी। इन घटनाओं को अंजाम देने वाले जितने भी आतंकवादियों की मौत हो जाए, उनकी मौत संगठन की शहादत की सूची में शामिल हो जाती है। आत्मघातियों का महिमामंडन किया जाता है। ब्रिटेन हो, अमेरिका हो, फ्रांस हो या जर्मनी, जितने आतंकी सुरक्षा बलों के हाथों मरेंगे, बदले की भावना उतनी ही ज्यादा परवान चढ़ेगी।
ब्रिटेन के साथ अमेरिका को भी यह समझना होगा कि आतंकवाद के खिलाफ जिस तरह आधी-अधूरी लड़ाई लड़ी जा रही है वह नए-नए आतंकियों को पैदा कर रही है। यदि यह समझा जा रहा है कि आतंकी संगठनों के इलाकों में बमबारी करने मात्र से आतंकियों का खात्मा हो जाएगा तो ऐसा नहीं होने वाला। यह देखना दयनीय है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश आतंक के खिलाफ लड़ाई में अपने आर्थिक हितों को इस हद तक प्राथमिकता दे रहे कि कई बार आतंकी संगठनों के मददगार शासकों की ही तरफदारी करते हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल ट्रंप ने एक रोषभरी टिप्पणी की कि ”इस शैतानी विचारधारा को पूरी तरह नष्ट करना होगा और निर्दोष लोगों की सुरक्षा करनी होगी। सभी सभ्य राष्ट्रों को एक होना होगा।“ लेकिन यह एक राजनीति बयानभर है, वे अगर चाहे तो आतंकवाद को खत्म करना कोई महाभारत नहीं है। लेकिन उनकी कथनी और करनी में अंतर है, वे कहते कुछ है और करते कुछ और है।
अभी कल तक ट्रंप सऊदी अरब के शासकों के खिलाफ गर्जन-तर्जन करते दिखाई दे रहे थे, लेकिन अब सबसे पहले उन्हीं के पास जाना और हथियारों का सौदा करना जरूरी समझा। यह भी विचित्र है कि अमेरिका की तरह ज्यादातर यूरोपीय देश यह नहीं तय कर पा रहे कि सीरिया के राष्ट्रपति असद ज्यादा बड़ा खतरा हैं या उन्हें सत्ता से बाहर करने पर आमादा आतंकी गुट? बन्दूक किसी व्यक्ति को कीमती नहीं बना सकती। विडम्बना यह है कि हथियारों के ऊँचे भण्डार पर बैठे देश आतंकवाद के सामने कितना बौने है।
सवाल उठता है कि इस प्रकार के आतंकवाद से कैसे निपटा जाए। कारबम, ट्रकबम, मानवबम- ये ईजाद किसने किए? कौन मदद दे रहा है इन आतंकवादियों को। किसका दिमाग है जिसने अपने हितों के लिए कुछ लोगों को गुमराह कर उनके हाथों में हथियार दे दिए और छापामारों ने उन राष्ट्रों की अनुशासित व राष्ट्रभक्त सेना को सकते में डाल दिया। फिर शुरू कर देते हैं उन देशों को आधुनिक हथियारों की ऊँचे दामों पर बिक्री, वहाँ की सेना को अधिक ताकतवर बनाने के लिए। यह परिलक्षित है अफगानिस्तान, इजराइल, पाकिस्तान, खाड़ी के देश आदि में विश्व के करीब तीन दर्जन छोटे-बड़े देशों में, जो वर्षों से आतंकवाद से जूझ रहे हैं। जहां आतंकवाद प्रतिदिन सैकड़ों लोगों को लील रहा है। हजारों असहाय हो रहे हैं।
आतंकवाद निर्यात भी किया जाता है और आयात भी किया जाता है जिसको अंग्रेजी में ‘स्मगलिंग’ कहते हैं। नशीले पदार्थों, हथियारों और खतरनाक कैमिकल्स को इधर से उधर करने के लिए एक समानान्तर अपराध जगत का नेटवर्क है। जिसने कितने ही सशक्त सरकारी तंत्रों के सिर पर पिस्तौल तानी हुई है। ऐसी स्थिति में रोषभरी टिप्पणियों व प्रस्तावों से आतंकवाद से लड़ा नहीं जा सकता। आतंकवाद से लड़ना है तो दृढ़ इच्छा-शक्ति चाहिए। विश्व की आर्थिक और सैनिक रणनीति को संचालित करने वाले देश अगर ईमानदारी से ठान लें तो आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है। जैसे शांति, प्रेम खुद नहीं चलते, चलाना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार आतंकवाद भी दूसरों के पैरों से चलता है। जिस दिन उससे पैर ले लिए जाएँगे, वह पंगु हो पाएगा।
आतंकवाद पश्चिमी देशों की देन है। उनकी गलतियों के कारण ही अलकायदा और आईएस का जन्म हुआ। पश्चिमी देशों के स्वार्थ का इतिहास इस बात को प्रमाणित करता है कि आईएस जैसा संगठन सिर्फ धर्म के जज्बे से पैदा नहीं हुआ है। तेल की अर्थव्यवस्था का ‘जेहाद’ तो पश्चिमी देशों ने शुरू किया था, उन्हें तो इसकी जद में आना ही था। इन गलतियों से सबक सीखकर आतंकवाद के खिलाफ ईमानदार लड़ाई लड़नी ही होगी, लेकिन इसमें पश्चिमी देशों के अपने-अपने स्वार्थ आडे आ रहे हैं, इन्हें हटाए बिना आतंकवाद मुक्त विश्व का सपना देखना अर्थहीन ही है। विडंबना यह है कि दुनिया के सभी बड़े मुल्क आतंकवाद से लड़ने की बात तो करते हैं, पर इस मामले में भी फैसले अपना स्वार्थ देखकर ही करते हैं। तमाम राष्ट्राध्यक्षों को समझना चाहिए कि आतंकी घटनाएं लोगों का हौसला पस्त कर रही हैं। अगर वे इसे रोकने की गंभीर कोशिश नहीं करेंगे तो उन्हें जबर्दस्त आक्रोश एवं महाविस्फोट का सामना करना पड़ सकता है। अगर शक्ति सम्पन्न लोग सक्रिय नहीं होते तो छोटे-छोटे लोगों द्वारा एक क्रांति की संभावना से भी नकारा नहीं जा सकता जो दुनिया की तस्वीर बदल दे। प्रेषकः

 

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