मालदा में तो साम्प्रदायिकता से भी बड़ा यंत्र है

 mamtaडा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

                           पश्चिमी बंगाल का मालदा आजकल चर्चा में है । वहाँ कालियाचक में मुसलमानों की गुस्साई भीड़ ने पुलिस स्टेशन को आग के हवाले कर दिया । कुछ के अनुसार यह भीड़ दो लाख थी और दूसरों के अनुसार यह बीस हज़ार से ज़्यादा नहीं थी । पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री अग्निकन्या ममता बनर्जी की इच्छा तो यही मालूम होती है कि मुसलमानों की इस गुस्साई भीड़ को बीस पच्चीस हज़ार से ज्यादा न आँका जाए । इस गुस्साई भीड़ में बंगलादेश से अवैध रुप में आए मुसलमानों को वे शामिल करती हैं या नहीं , इसके बारे में उन्होंने स्पष्ट रुप से कुछ नहीं कहा । वैसे आधिकारिक रुप से उनकी सरकार का मानना है कि पश्चिमी बंगाल में अवैध रुप से कोई भी बंगला देशी नहीं रहता । लेकिन प्रश्न यह है कि चाहे पच्चीस हज़ार की , चाहे दो लाख की यह भीड़ ग़ुस्से में क्यों थी ? उसका उत्तर भी भीड़ के समर्थकों के पास है । ममता दी ख़ुद तो नहीं लेकिन तृणमूल के आधिकारिक प्रवक्ताओं ने चीख़ चीख़ कर अपना गला सुखा लिया है । उनका कहना है कि कहीं उत्तर प्रदेश में कमलेश तिवारी नामक किसी व्यक्ति ने हज़रत मोहम्मद की शान में ग़लत भाषा का प्रयोग किया है। इसलिए मालदा के ये मुसलमान ग़ुस्से में आ गये थे। तृणमूल की यह बात तो ठीक है। किसी के भी पैग़म्बर की शान में गुस्ताखी की जाए तो ग़ुस्सा तो आयेगा ही। इसीलिए मुस्लिम देशों में रसूल निन्दा के ख़िलाफ़ बाक़ायदा क़ानून बना हुआ है । इस अपराध की सज़ा भी कम नहीं होती। सज़ा-ए-मौत। अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी ऐसा क़ानून है । लेकिन ग़ुस्से में आई इस भीड़ के दुर्भाग्य से हिन्दुस्तान में ऐसा क़ानून नहीं है। ऐसा होता तो मालदा की इस भीड़ को ग़ुस्से में आने की जरुरत ही न पडती । पाकिस्तान की तरह कमलेश तिवारी नामक उस शख़्स को इस फ़ानी दुनिया से रुखसत कर दिया होता। लेकिन अब ऐसा नहीं है तो मुसलमानों को ख़ुद मालदा में एकत्रित होकर यह माँग करनी पडी  कि तिवारी की गर्दन को रस्सी में बाँध कर लटका दिया जाए। 
                     यही माँग करती हुई यह भीड़ कालिया चक में हथियार लेकर घूम रही थी । यह भीड़ अच्छी तरह जानती थी कि मालदा में और अनेक तिवारी हो सकते हैं लेकिन इनका शिकार कमलेश तिवारी वहाँ नहीं है। लेकिन भीड़ इससे निराश नहीं हुई। उसके निशाने पर वहाँ का पुलिस स्टेशन भी था। उन्होंने पुलिस स्टेशन को जला दिया। बाज़ार में दुकानों और वाहनों को आग लगा दी। भीड़ को कमलेश तिवारी के स्थान पर किसी न किसी की बलि चाहिए थी। पुलिस स्टेशन को बलि के रुप में भीड़ को अर्पित कर दिया गया। ममता दी और उनके सिपाहसिलारों का कहना है कि मुसलमानों की इस भीड़ का आचरण साम्प्रदायिक बिल्कुल नहीं था । उनकी निगाह में पुलिस स्टेशन को आग लगाना और जनता की सम्पत्ति को आग लगाना, सेक्युलर क़िस्म की गतिविधि है। लेकिन ममता के इस स्पष्टीकरण के बाद भी कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। जिस कमलेश तिवारी द्वारा रसूल के ख़िलाफ़ अभद्र भाषा के तथाकथित प्रयोग का आरोप है , वह घटना एक महीने से भी ज़्यादा पुरानी है। रसूल निन्दा के आरोप में तिवारी को पुलिस ने गिरफ़्तार भी कर लिया है । वह जेल में ही है और उसकी ज़मानत भी नहीं हो रही । इस घटना का पश्चिमी बंगाल से कुछ लेना देना भी नहीं है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि भावात्मक प्रतिक्रिया किसी घटना के घटित होने के तुरन्त बाद ही होती है । एक महीने बाद का यह प्रदर्शन मुसलमानों की सहज स्वाभाविक प्रतिक्रिया नहीं मानी जा सकती बल्कि यह गहरे षड्यंत्र की श्रेणी में ही माना जायेगा । दूसरा भी । यह प्रदर्शन  केवल मालदा में ही क्यों हुआ , पश्चिमी बंगाल के अन्य स्थानों पर क्यों नहीं ? मुसलमान तो बड़ी संख्या में अन्य स्थानों पर भी रहते हैं । 
                    इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए मालदा की भोगौलिक स्थिति जान लेना जरुरी है । मालदा की सीमा बंगला देश से लगती है । इसलिए यहाँ बंगलादेशियों की अवैध घुसपैठ की गति बाकी स्थानों से ज़्यादा है । पिछले दो दशकों से बंगलादेश की सीमा से लगते पश्चिमी बंगाल व असम के जिलों में मुसलमानों की संख्या आश्चर्य जनक तेज़ी से बढ़ती जा रही है । 2011 के जनसंख्या आँकड़ों के अनुसार मालदा ज़िले में मुसलमानों की संख्या 51 प्रतिशत को पार कर गई है । इस प्रकार के जिलों में एक अन्य स्थिति देखने में आ रही है । हिन्दु धीरे धीरे गाँवों से निकल कर शहर में आ रहे हैं और कुछ साल में पलायन कर वहाँ से अन्यत्र चले जाते हैं । बंगला देश से लगते ज़िले धुबडी( असम) में इसी के चलते मुसलमानों की संख्या 85 प्रतिशत हो गई है । ज्यों ज्यों ज़िले में मसलमानों की संख्या बढ़ती है त्यों त्यों वहाँ ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाता है ताकि हिन्दु अपनी सम्पत्ति बेच कर वहाँ से पलायन कर जायें और वे कर भी रहे हैं । आतंक पैदा करने के लिए भी कुछ गिरोह बाक़ायदा ऐसा वातावरण तैयार करते हैं। (कश्मीर घाटी में भी ऐसा ही हुआ था ) सीमा पर समगलिंग व अन्य ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ तेज़ी से बढ़ रही हैं । इसमें अवैध बंगलादेशियों की शमूलियत ज़्यादा होती है। उसमें स्थानीय नेताओं की संलिप्तता भी होती है । ज़ाहिर है सीमा सुरक्षा बल और स्थानीय पुलिस से इन गिरोहों की झड़प होती रहती है । किसी कमलेश तिवारी नामक व्यक्ति के भाषण को आधार बना कर मुसलमान गिरोहों द्वारा कालियाचक में किया गया तांडव , यही आतंक पैदा करने का सुनियोजित षड्यंत्र ही कहा जा सकता है। यह साम्प्रदायिक षड्यंत्र नहीं तो और क्या है ? ये अवैध बंगलादेशी अफ़ीम और अन्य नशों की तस्करी करते हैं, नक़ली नोटों का धंधा करते हैं। बी.एस.एफ और पुलिस जब मुक़ाबला करती है तो इन गिरोहों को दिक़्क़त होती है । इसलिए इन दोनों से निपटने की योजना बनाई गई थी। सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जब मुसलमानों के ये गिरोह बिना किसी भय के पुलिस थाना जला रहे हैं ,सीमा सुरक्षा बल से भिड़ रहे हैं तो वहाँ रहने वाले हिन्दुओं को भी परोक्ष संदेश दिया जा रहा है । पुलिस और सीमा सुरक्षा बल हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती , तो तुम्हारी क्या औक़ात है ? या तो चुपचाप रहो या फिर निकल जाओ यहाँ से । 
                         दुर्भाग्य से इस अहम मोड़ पर पश्चिमी बंगाल की सरकार परोक्ष रुप से ही सही , इस भीड़ के समर्थन में ही खड़ी आ रही है । साम्प्रदायिकता का अर्थ केवल यही नहीं होता कि कितने हिन्दू मरे और कितने मुसलमान । साम्प्रदायिकता का एक रुप वह भी होता है जिससे कश्मीर घाटी से हिन्दु निकाल दिए गये , धुबडी हिन्दुओं से ख़ाली हो गया । अब यही रुप मालदा में स्पष्ट देखा जा सकता है । लेकिन ममता बनर्जी अभी भी इस पूरे घटनाक्रम को मुसलमानों और सीमा सुरक्षा बल का स्थानीय झगड़ा बता कर देश के लोगों की आँखों में धूल झोंकने का काम कर रही हैं ।

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