डॉ. मयंक चतुर्वेदी
धर्म परिवर्तन पर जिस तरह इन दिनों संसद के दोनों सदनों और देश में चर्चा चल रही है, उसे देखकर लगता है कि यह विषय आज देश के अन्य महत्वपूर्ण मामलों से ऊपर हो गया है। सभी एक-दूसरे पर आरोप और प्रत्यारोप मढ़ने में लगे हुए हैं किंतु कोई यह समझना नहीं चाह रहा कि वास्तव में धर्म का मूल क्या है ? भारतीय दर्शन सीधे तौर पर कहता है कि जिससे अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और नि:श्रेयस (पार लौकिक उन्नति-यानी मोक्ष) सिद्ध होता हो वही धर्म है। धर्म अधोगति में जाने से रोकता है और जीवन की रक्षा करता है। कहने का आशय यह है कि जिस कार्य को करने से भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति दोनों ही एक साथ होती है वही धारण करने योग्य अपने मूल अर्थ में धर्म है। इस दृष्टि से देखें तो सिर्फ एक धर्म ऐसा प्रतीत होता है जो व्यक्ति के व्यवहार के अनुसार उसकी बनी धारणा के तुल्य उन्हें पुष्ट करने के लिए उनको विवध देव आधारित उपासना पद्धति का वरन करने का मार्ग सुलभ कराता है।
दुनिया में सनातन वैदिक धर्म ही वह धर्म है जो बार-बार यह कहता है कि अपने स्वभाव के अनुरूप अपने आराध्य का निर्धारण करो और उसकी उपासना करते हुए मोक्ष को प्राप्त करने के अंतिम चरण तक पहुंचो। अपने दिखाए मार्ग को स्पष्ट करने के लिए सनातन धर्म जिसे आधुनिकतम भाषा में हिन्दू धर्म भी कहते हैं सीधे तौर पर घोषणा करता है कि जिस प्रकार सभी नदियां विशालतम सागर में समाहित हो जाती हैं, इसी प्रकार समस्त उपासना पद्धतियां भी उसी सागर रूपी ईश्वर की ओर जा रही हैं। अत: मनुष्य उपासना के किसी भी मार्ग को अपनाते हुए उस विराट ईश्वर की आराधना किन्हीं भी स्वरूप के माध्यम से करे वह धर्म की गहनता को पा जाएगा। संभवत: यही कारण रहा होगा जो हिन्दुओं ने कभी अपने धर्म के प्रचार के लिए खूनी संघर्ष नहीं किया ना किसी को बलात और ना ही लालच में अपने धर्म की धारणा को मानने के लिए विवश किया है।
वस्तुत: भारत में आज जो गैर हिन्दू, खासकर इस्लाम और ईसाईयत के अनुयायी हैं या अन्य वह लोग जो कि उत्तरप्रदेश् के आगरा की घटना से उद्वेलित हो रहे हैं उन्हें समझना होगा कि भारत में हिन्दुओं का सनातन धर्म और उसकी शाखाएं किसी भी रूप में विस्तार पाए या भारत में अलग हुए जितने भी मत-पंथ आज हैं पारसियों को छोड़कर ये सभी अपने मूल में कभी हिन्दू ही थे और आज भी कहीं न कहीं इनकी परंपराओं तथा जड़ों में सनातन धर्म के अवशेष विद्यतान हैं। धर्म परिवर्तन पर उन्हें यह भी जानना होगा कि धर्म परिवर्तन उसका होता है जो पहले अपने मूल में किसी अन्य उपासना पद्धति को मानने वाला होता है और नए परिवर्तन में वह किसी अन्य पूजा पद्धति पर विश्वास करने लगता है। भारत में यदि धर्म परिवर्तन की दृष्टि को लेकर सम्रगता से विचार किया जाए तो अकेले हिन्दुओं का ही धर्म परिवर्तन अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं के लिए होता आया है ना कि किसी गैर पंथी को हिन्दू बनाया गया है।
आगरा में 60 मुस्लिम परिवारों के धर्म परिवर्तन की जिस बात पर आज जो सेक्युलर समुदाय जोर-शोर से चिल्ला रहा है, उसको भी यह समझना चाहिए कि भारत में यदि किसी अन्य धर्म का व्यक्ति खासकर ईसाईयत या इस्लाम से हिन्दू धर्म में वापिस आकर अपनी पुरानी उपासना पद्धति को पुन: अपनाता है तो वह नैतिक रूप से कहीं भी धर्म परिवर्तन के दायरे में नहीं आएगा, क्यों कि वह व्यक्ति पहले हिन्दू था बाद में किसी अन्य पंथ को अपनाने वाला हुआ और फिर से वापिस वह हिन्दू धर्म में आ गया, जिसे हम यदि कुछ कहेंगे तो वह है, सीमित शब्दों में उस व्यक्ति की घर वापसी।
हिन्दू सनातन धर्मियों द्वारा अपने बन्धुओं की यह घर वापिसी वास्तव में कोई नई बात भी नहीं है। क्यों कि जब से धर्मांतरण का कुचक्र भारत में शुरू हुआ तभी से हिन्दू संत और अन्य लोग अपने धर्म सहोदरों को धर्म परिवर्तन से बचाए रखने के लिए हर संभव प्रयास करते आ रहे हैं, उन्हीं में से एक प्रयास शुद्धि करण और घर वापसी है। शंकराचार्य, गुरू नानक देव, अंगददेव, तेगबहादुर, गुरू गोविन्द सिंह से लेकर संपूर्ण भक्ति काल में हुए रामानंद, तुलसीदास, वल्ल्भाचार्य, सूरदास, रैदास, समर्थ गुरू रामदास जैसे संत कवि-महात्मा हों या स्वामी दयानंद सरस्वती, श्रद्धानंद जैसे आर्यसमाजी और वर्तमान में विश्व हिन्दू परिषद एवं अन्य हिन्दू धर्म संस्थाओं के इस दिशा में किए जा रहे प्रयास, आखिर सभी सेकड़ों वर्षों से एक ही कार्य करते नजर आ रहे हैं अपने धर्म से भटके लोगों को वापिस अपने मूल धर्म के प्रति आस्थावान बनाना, इसीलिए यदि आज विश्व हिन्दू परिषद बिना किसी को दवाब देकर उसे उसके मूल धर्म सनातन में जोड़ने का प्रयास करती है तो इसमें विरोध का क्या औचित्य है ? आज यह बात वास्तव में सभी को समझना होगी।
देखा जाय तो धर्मांधता और धर्म परिवर्तन को लेकर सच यही है कि जब से इस्लाम और ईसाईयत का प्रवेश भारत में हुआ तभी से धार्मिक मान्यताओं की यह दोनों विचारधाराएं अपने क्रिया-कलापों के कारण विवादों में रही हैं। आज आप देश के किसी भी कोने में चले जायें आपको हिन्दू मंदिरों के भग्नावशेष देखने को मिल जायेंगे जिन्हें कभी इस्लाम या ईसाईयत को मानने वालों ने सिर्फ इसीलिए जमीदोज कर दिया क्यों कि वह उनकी मान्यताओं के विपरीत अथवा पुष्ट धारणाओं में फिट नहीं बैठते थे।
भारत में अभी तक जितने भी युद्ध हुए हैं उनमें ऐसे संघर्षों की संख्या हजारों में गिनाई जा सकती है जो कि हिन्दू या अन्य गैर इस्लाम और ईसाईयत के पक्षधरों से इस्लाम तथा ईसाईयों ने बलात उनका धर्मांतरण कराने के उद्देश्य से लड़ी थीं। जबकि संपूर्ण भारतीय इतिहास में एक भी ऐसा युद्ध नहीं दिखाई देता जो हिन्दुओं ने अपने धर्म में दीक्षित करने के लिए दूसरे धर्म के मानने वालों से लड़ा हो। हां, अपने स्वधर्म की रक्षा के लिए जरूर कई बार हिन्दू जनता और राजाओं ने तलवारें उठाई हैं। वस्तुत: आज भी क्या कोई इस बात को नकार सकता है कि दुनिया में इस्लाम और ईसाईयत का फैलाव तलवार की नौंक और लालच के वगैर हुआ है ?
भले ही भारत के लिए इस्लाम और ईसाईयत यह दोनों विदेशी धार्मिक मान्यताएं और विचारधाराएं जो आज अपनी विशाल जनसंख्या के कारण भारतीय हो गई हों लेकिन अपनी धर्म से जुड़ी अवधारणाओं के लिए अभी भी यह भारत के बाहर से प्राणवायु ग्रहण करती नजर आती हैं। ऐसा कहने के पीछे स्पष्ट तर्क यह है कि जब कोई विदेशी चित्रकार इस्लाम के धर्म गुरू को लेकर अश्लील चित्र बनाता है तब गैर मुसलमानों खासकर हिन्दुओं पर हमले भारत में होते हैं। निशाना भारत की उन महिलाओं, बच्चों और पुरूषों को ही बनाया जाता है जिनका कि इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है। बड़े-बड़े मजहबी जुलूस भारत में निकलते हैं और इस्लाम पर जिनकी आस्था नहीं उन्हें अपना शत्रु नम्बर एक बताए जाने की होड़ तक लग जाती है। दूसरी ओर यही काम एक इस्लाम का अनुयायी चित्रकार करता है तो उसे कला की अनुपम अभिव्यक्ति का नाम दे दिया जाता है।
भारत में आकर ईसाई धर्म गुरू 21 वीं सदी में भारत सहित संपूर्ण एशिया को ईसाईयत की शरणागति में लाने की बात कहते हैं और ईसाई संगठन पोप की इच्छा को प्राणपन से पूरा करने में जुटते हुए नजर आते हैं। यहां कैसे वह लालच दिखाकर अधिक से अधिक धर्म बदलवा सकते हैं वे अपनी पूरी शक्ति इसमें झोंकते दिखाई देते हैं। जबकि दूसरी ओर हिन्दू केवल यह प्रयास कर रहे हैं कि जो किसी कारण से अपने मूल धर्म से विलग हो गए हैं उन्हें वापिस अपने धर्म में ले आया जाए तो इस बात पर बार-बार संसद से सड़कों तक हंगामा मच जाता है। सोशल नेटवर्किंग साइट पर ट्वीट करती हुई बांग्लादेश की प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन आज सही कहती हैं कि भारतीय पत्रकार तब हंगामा नहीं करते जब हिन्दुओं का ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन कराया जाता है। तब बड़ी खबर क्यों बन जाती है, जब मुसलमानों को हिन्दू बनाया जाता है। पहले मुसलमानों और ईसाइयों ने लोगों को खाने और पैसे का लालच देकर ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन करवाया है, बिना ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन के इस्लाम का अस्तित्व ही नहीं होता। आज भी पूरे विश्व में इस्लाम और ईसाई धर्म का विस्तार हो रहा है, नहीं तो ईसाइयों की संख्या आज दो अरब और मुसलमानों की संख्या एक अरब 80 करोड़ नहीं हो जाती।
हम सभी के लिए यह भी जानने योग्य है कि जब 25 जून 2012 को केरल के मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने विधानसभा में बताया था कि 2006 से 2012 तक 7 हजार 713 लोगों ने इस्लाम धर्म को अपनाया जबकि 2803 लोग ही हिन्दू बने। 2009-2012 के बीच 2 हजार 687 महिलाएं मुस्लिम बनीं, जिसमें 2 हजार 195 हिन्दू थीं और 492 ईसाई थीं। इतनी बड़ी खबर तब स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया में स्थान नहीं पा सकी और न ही यह भारतीय संसद में चर्चा का विषय बन सकी थी। इसी प्रकार ओडिशा के कन्धमाल को लेकर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने 2008 में हुए कन्धमाल दंगों की रिपोर्ट में माना था कि इस क्षेत्र में हिन्दुओं के मुकाबले ईसाइयों की जनसंख्या में भारी इज़ाफ़ा हुआ है। भारतीय जनगणना के मुताबिक कन्धमाल में ईसाइयों की जनसंख्या 1961 में सिर्फ 19 हजार 128 थी जो 2001 में बढ़कर एक लाख 17 हज़ार हो गई, चालीस सालों में 66 प्रतिशत की बढ़ोतरी भला बिना भय और लालच के संभव है ? वस्तुत: यही तथ्य धर्मांतरण को लेकर अपने आपमें गौर करने लायक हैं।
सच तो यही है कि भारत की मीडिया को तब तक ये मुद्दा धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ नहीं लगता जब तक इसका शिकार कोई अल्पसंख्यक समुदाय से नहीं हो जाता है। मीडिया में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम लेने से टीआरपी बढ़ जाती है तो करो जितना हो सके अपने लाभ ले लिए इस राष्ट्रवादी संगठन को बदनाम। संघ को क्या फर्क पड़ता है वह तो अपने देशभक्ति के कार्य में दिन-रात प्राणपन से लगा हुआ है, जो उसकी स्वभाविक और मूल प्रवृत्ति है।
तनिक “धर्मो रक्षति रक्षितः” का अर्थ समझने से, कुछ पाठकों की कठिनाई दूर हो सकती है।
धर्म उसी की रक्षा करता है, जो धर्म की रक्षा करेगा।
यह अन्योन्य पोषकता का संबंध है। अंग्रेज़ी में इसे Symbiosis शब्द से जाना जाता है।
धर्म अपने आप स्वयं की रक्षा कर नहीं सकता।
वैयक्तिक जीवन में भी आप कुछ नियम(यही धर्म समझिए) तो बना ही लेते हैं; जिनके कारण आप के आरोग्य की रक्षा होती ही है। उदा: आप रोज स्नान करते हैं,दंतधावन करते हैं, जिससे आपके आरोग्य की रक्षा तो होती ही है।
समाज भी जो नियम बना लेता है, वे परम्परा प्राप्त हो कर धर्म बन जाता है।
कुछ प्रतीकों के पीछे समाज भी गौरव का अनुभव करता है।राम, कृष्ण इत्यादि राष्ट्र पुरुष (या भगवान) ऐसे ही प्रतीक है।
धर्म … जिसकी रक्षा करनी पड़े….. भगवान जिसे सुरक्षा देनी पड़े उसे मानने से मै इंकार करती हूँ। मै धर्मविहीन होकर जी सकती हूँ कट्टरवादी विचारधारा के साथ नहीं।मै आस्तिक हूँ मुझे भगवान को ढूँढने मंदिर या मस्जिद जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि वह प्रकृति के कण कण मे है।
डाक्टर साहब,आपने बहुत कुछ लिखा है और अपने तर्क या कुतर्क द्वारा उसको सही ठहराने का भी प्रयत्न किया है.सच्च पूछिये तो यह आलेख इतना उबाऊ होगया कि मैंने इसे अंत तक पढ़ना भी मुनासिब नहीं समझा.हो सकता है की आपको यह बुरा भी लगे.
अब मैं आपका ध्यान आपके आलेख के प्रथम वाक्य की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा.आपने लिखा है,”धर्म परिवर्तन पर जिस तरह इन दिनों संसद के दोनों सदनों और देश में चर्चा चल रही है, उसे देखकर लगता है कि यह विषय आज देश के अन्य महत्वपूर्ण मामलों से ऊपर हो गया है।” क्या मैं पूछ सकता हूँ कि यही बात वे लोग क्यों नहीं सोचते जो इस राष्ट्र विरोधी कार्य को अंजाम दे रहे हैं. क्या उनको यह मालूम नहीं था कि जिनका वे धर्म परिवर्तन करा रहे हैं या जिनकी घर वापसी का वे ढिढोरा पीट रहे हैं,वे बांग्ला देश से आये हुए गैर कानूनी घुसपैठिये हैं.वे तो खुश थे कि उनके गैर कानूनी प्रवेश को कानूनी जामा पहनाने के साथ ही उनकी रोजी रोटी की समस्या भी हल हो रही है. प्रवक्ता के पृष्ठों पर मैंने बहुत पहले लिखा था कि “गदहा मारे कुछ न दोष” .उसका लिंक है https://www.pravakta.com/short-story-1-r-singh इसके बादज्यादा कुछ कहने को शेष नहीं रह जाता है. एक अन्य बात भी,डाक्टर साहब क्या आप बता सकते हैं कि आपके सनातन धर्म में इन लोगों को किस जाति में रखा जाएगा?