इसलिये नहीं कि
इस अँधेरे में मुझे कुछ दिखायी नहीं देता
बल्कि इसलिये कि इस अँधेरे में ‘वे’ देख सकते हैं।
मैं जानता हूँ कि
जैसे जैसे इस अँधेरे की उम्र खिंचती जायेगी
’उनकी’ आंखें और अभ्यस्त होती जाएँगी
’उनके’ निशाने और अचूक होते जायेंगे।
तब तो उस फकीर की बात किसी ने नहीं मानी
उसने कहा था कि
’सूरज’ डूब जाये – जो कि डूबेगा ही – तो
ज़रा भी शोक न करना।
बस अपने घर के दियों को
जतन से जलाए रखना
उन्हें बुझने मत देना
’उन्हें’ अंधा बनाने को एक दिया भी काफी है।
और अब तुम सब बैठ कर रो रहे हो
यह अँधेरा तो पहले ही इतना भयावह है
पर मुझे तो दुःख इस बात का है कि
मुझे भी उस फकीर की बात सही लगी थी।
और मैंने सोचा भी था
दिया’ जलाने के लिए
इंतजाम करने को
पर न जाने क्यों मैंने कुछ नहीं किया…!
हिमवंत जी,
प्रतिक्रया के लिए आभार. कविता जब मानवीय परिस्थितियों और भावों के साथ खड़ी दिखे तो अक्सर वह कवि के द्वारा सर्वव्यापी चेतना में से ग्रहण किया गया विचार ही होती है … कवि तो माध्यम है, बस, शब्द रूप में व्यक्त हो जाती … हमारा यह देश और समाज उठ खडा होगा ऐसा विशवास है मुझे – अब भी …
कवि की कविता लिखने तक उसके अपने भावो मे कैद रहती है. प्रकाशित होते ही वह पाठक की हो जाती है. अच्छी कविता को मै पंख की तरह मानता हुं. वह मेरे अन्दर के भावो को एक नई उडान पर ले जाती है. कोई कवि मेरे इस प्रयोग को देखे तो असमंजस मे पड जाएगा.
यह कविता “बेलायती-अमेरिकी-युरोपीय” आर्थिक साम्राजयवाद के लिए लिखी गई लगती है. हम उनकी बनाई नीतियो पर चल रहे हैं और अंत मे जब अन्धेरा होगा तो हम अपने लिए एक दीपक भी सम्हाल कर जलाने की स्थिती मे रह पाए तो बडी बात होगी.
अच्छी कविता, धन्यवाद
राजीव जी नव बरस की हार्दिक बधाई आप की कविता में साहस भरी है जो उजाला की ओर बढ़ने के लिए
दम भर रही है
लक्ष्मी नारायण लहरे पत्रकार कोसीर छत्तीसगढ़
अनेक प्रतिमाओं को जगाती हुयी सुंदर कविता। धन्यवाद राजीव जी। मैं इसका गुजराती अनुवाद करने की कोशिश करूंगा। आपके नामका श्रेय सहित, कहीं छपने भी, भेजूंगा।अनुमति चाहता हूं।–इसके मेरी दृष्टिमें और भी अर्थ के आभा मंडल है, जो इस कविता को और सुंदर बना देते हैं।
अनेकार्थी कविताके लिए धन्यवाद।
अनिल जी ,
लोकतंत्र जनमत से चलता है, राष्ट्रहित के प्रयासों में जनमत को जीत कर नयी सरकार बनायी जा सकती है . जनमत के दीप जलाये जा सकते हैं ….बुनियादी सुधार तभी संभव हैं .
कविता : बस एक दिया – by – राजीव दुबे
“पर न जाने क्यों मैंने कुछ नहीं किया…!”
राजीव दुबे जी, अब “कुछ-न-कुछ” किये जाने में क्या-क्या किया जा सकता है ? – better late than never
– अनिल सहगल –