देर से ही सही, उस सच को देश के पूर्व गृहमंत्री लेकिन अब केंद्रीय वित्त मंती पी. चिदंबरम ने कुबूल कर ही लिया कि जम्मू-कश्मीर में एक वर्ग ऐसा भी है जो आज भी पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाता है और यह सिलसिला 1990 से चला आ रहा है. लेकिन इसके उलट अफसोस और आश्चर्य दूसरे बयान में दिखा. केंद्रीय गृह मंत्री की ओर से संसद में बोलने के लिए खड़े हुए चिदंबरम ने कहा कि ‘यह कोई नई बात नहीं है. ऐसा ईद के मौके पर एक वर्ग सालों से करता आ रहा है.‘ उनके एक और वक्तव्य पर मेरी तरह पूरा देश उनके साथ है कि 1990 की तरह हालात बिगडऩे नहीं दिये जायेंगे और ऐसे असामाजिक तत्वों से निबटने के लिये सेना पूरी तरह स्वतंत्र है? चिदंबरम की इस दृढ़ता को भी पूरा समर्थन है कि किसी को भी जम्मू-कश्मीर से विस्थापित नहीं होने दिया जायेगा.
निश्चित तौर पर कट्टरता भारतीय समाज का चरित्र कभी नहीं रहा. मगर सवाल यह मौजूं है कि यदि एक वर्ग देशद्रोही विचारों के साथ पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाता है तो दूसरा वर्ग उनसे यह सवाल तो कर ही सकता है कि भाई जब इस देश में रहते हो, यहां का हवा-पानी-अन्न खाते हो तो हिन्दुस्थान पर बुरी नजर रखने वाले पाकिस्तान की जय-जय क्यों? इसलिए जम्मू-कश्मीर के एक वर्ग ने यही किया. सरकारी ऐलान है कि ईद के दिन नमाज पढऩे के बाद खुरेंजी के जुनून में अंधे एक गुट ने देश विरोधी नारे लगाये जिसका स्थानीय लोगों ने विरोध किया. इससे गुस्साई भीड़ ने बंदूक, तलवार और डण्डे हाथ में लिये मुनीद चौक पर लगभग सौ दुकानों को फूंक डाला और तीन को गोली मार दी. इसमें दो की मौत हो गयी और सैंकड़ों घायल हुए. पुलिस और अन्य सिविल अथॉरिटी ने पूरे मामले में किसी प्रकार का प्रतिरोध दर्ज नहीं करवाया बल्कि दंगाईयों को और सहायता प्रदान की गयी. अफसोस कि रामबन में सुरक्षा बलों तक को निशाना बनाया गया.
आजादी के बाद से ही जम्मू की देशभक्त जनता ने लगातार न केवल आतंवाद के विरुद्ध आवाज उठाई बल्कि उसे हराया भी है. आतंक और अलगाववाद का खूनी खेल, खेल रहे लोग हताश हो चले हैं. उन्हें लगता था कि बंदूकों के दम पर या तो वे अल्पसंख्यकों को कश्मीर से भगा देंगे या फिर इस्लाम कबूल करवा लेंगे लेकिन कश्मीर की बहादुर जनता ने उनकी इन धमकियों पर कभी कान नही धरे. ऐसे में आतंकवाद और अलगाववाद को करारी शिकस्त मिली तो उन्होंने इन लोगों को बदनाम करने के लिए नए तरीके ईजाद कर लिए हैं. घटना के बाद मचे राजनैतिक कोहराम और दबाव के बाद राज्य के गृहमंत्र्री ने आखिर इस्तीफा दे ही दिया लेकिन कश्मीर के स्थानीय अखबार जो लिख रहे हैं, उसके मुताबिक नमाज में राज्य के गृहमंत्री भी शामिल हुए थे. उनकी आंखों के सामने दंगाईयों ने उत्पात मचाया लेकिन गृहमंत्री मानो उनका साथ देने के लिये ही खड़े थे!
बात चाहे गुजरात की हो या जम्मू-कश्मीर की, एक राजा को धर्मनिरपेक्ष रहना-दिखना चाहिए. उमर अब्दुल्ला अपने पापों को गुजरात दंगों का बहाना बनाकर भले ही छिपा लें लेकिन इस इतिहास को सभी जानते हैं कि कश्मीर की समस्या को भाड़े के आतंकवादियों से ज्यादा भारतीय सियासतदांओं ने उलझाया है. पहले शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू, अहं की लड़ाई लड़ रहे थे बाद में उनके खानदानी वारिसों ने इस जंग की जिम्मेदारी उठा ली. कश्मीर के सत्तानायकों से उम्मीद है कि वे कश्मीर को अपनी राजनीतिक लिप्साओं का मुददा नही बनाएंगे. कश्मीर राजसत्ता का नहीं बल्कि इस देश की भावसत्ता का मुद्दा है. कश्मीर के लोग अपने दम पर अकेले इस चक्रव्यूह से निकल पाएंगे, यह मान लेना भूल होगी. इससे निबटने में नईदिल्ली और श्रीनगर की ससरकारों की नेकनीयती और मजबूत इच्छाशक्ति भी बेहद जरूरी है.
सत्ता, शक्ति और मजहब का अनूठा कॉकटेल तैयार करने वाले कुछ राजनीतिक दलों की चुप्पी ने इस बात का अहसास कराया है कि मानो जम्मू-कश्मीर भारत का अंग ना हो. अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात करने वाले ऐसे छुपे बैठे हैं मानो कश्मीर के अल्पसंख्यकों के दर्द और उन पर हो रहे अन्याय से उन्हें कोई लेना-देना ही नहीं है. यहां बहुजन समाज पार्टी के नये और ताजा रूख की तारीफ करना चाहूंगा कि उन्होंने वोट बैंक के खातिर ही सही, देश की एकता और शांति बनाये रखने की अपील करते हुए दोषी गृहमंत्री के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने की मांग तो रखी.
और सरकार से ज्यादा जरूरत हमारी चिंताओं की है जो महज परिवार और अपने स्वार्थपूर्ति तक आकर खत्म हो गई हैं. हनीमून मनाने से लेकर धार्मिक यात्रा करने तक हमारे पांव जम्मू (कटरा) से आगे कम ही बढ़ते हैं. क्या हमने कभी जम्मू-कश्मीर जाने की हिमाकत की? पाकिस्तानी सेना के दुस्साहस से लेकर आतंकवादियों तक यदि कश्मीर में पनपे-पसरे हैं तो इसके जिम्मेदार हम भी हैं क्योंकि हमने कश्मीर को उसके भागय और हाल पर छोड़ दिया है. सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर मौज-मस्ती, गॉसिप या अश्लील चित्रों को एक-दूसरे से बांटकर दिल बहलाने वालों को देश की समस्या पर बोलने या लिखने की फुरसत कब मिलेगी! सही समय है कि मजहब के नाम पर जुनून बांटने वालों को जुदा करने की मुहिम में हमें जुटना ही होगा. ना भूलें कि चलना, जीना और बढऩा ही हमारी रवायत है,
अनिल जी अंतिम पैरा की अंतिम चार लाइनों में आपने मेरे मन की बात कही है, आज फिर देश सो रहा है, चंद नाचने गाने वालों पर तो अरबों रूपए लुटा रहा है, लेकिन देश के लिए कुछ सोचने समझने से इंकार कर रहा है. लोग सो रहे हैं तभी सरकारें हावी हैं नहीं तो अपने चुने हुए नुमाइन्दों की इतनी हिमाकत नहीं हो सकती है. अपने लोग वहां भय में जी रहे हैं और यहाँ सारा हिंदुस्तान सो रहा है. क्या बच्चा क्या जवान और क्या बुजुर्ग सभी एक अजीब सी बेहोशी में जिए जा रहे हैं. देश, धर्म, समाज कहाँ जा रहा है किसी को सोचने की भी फुर्सत नहीं है.
अच्छा सवाल उठाया आपने,बहुत विचारनीय व चिंताजनक स्तिथ्ती है.पट तुष्टिकरण नको अपनाने वाली सरकार से चुप हो यह सब देखने के अलावा कोई रास्ता नहीं.अन्य किसी समुदाय के लोगों द्वारा ऐसा किये जाने पर,. उसी या दुसरे दिन पकड़ उन लोगों को जेल में डाल देती.मेरे बहुत से सत्ता समर्थक मित्रों को यह बात कटु जरूर लगेगी, क्योंकि हमेशा निष्पक्ष विचार लिखने पर वे मुझ पर सत्ताविरोधी व राष्ट्र विरोधी तक का तगमा पहना देते हैं.आरोप लेकिन भाव से देखने वाले लोग इस बात का सही आकलन करेंगे ऐश विश्वास है.