(मार्कण्डेय जी द्वारा कलियुग-वर्णन)
समय भी कैसा पखेरू है! अपने श्याम-धवल पंखों को फैलाए निरन्तर उड़ता ही चला जाता है। कभी थकता भी तो नहीं। उसकी दिनचर्या में विश्राम का कोई स्थान नहीं।
हमारे बारह वर्षों के वनवास का उत्तरार्ध आरंभ हो चुका था। हस्तिनापुर से वनवास के लिए प्रस्थान करते समय आने वाले बारह वर्ष एक दुर्गम पर्वत की तरह दिखाई दे रहे थे। लेकिन धीरे-धीरे हमने ग्यारह वर्ष दुर्गम घाटियों पर्वतों, वनों और कन्दराओं में भ्रमण करते हुए व्यतीत कर दिए। दुर्योधन यह सोच रहा था कि वनवास के कष्ट हमें सन्मार्ग से विचलित कर देंगे लेकिन यहां तो विपरीत ही हो रहा था। हम तो कुन्दन की भांति दमकते जा रहे थे। आचार्य द्रोण के आश्रम में हमने अस्त्र-विद्या तो सीखी थी लेकिन शास्त्र-विद्या में हमारा ज्ञान अपूर्ण था। वनवास की अवधि में हमारे ज्ञान का भंडार भरता जा रहा था। हमें सदैव मुनिवर मार्कण्डेय, देवर्षि नारद, महर्षि व्यास, मुनिवर वैशंपायन और लोमश मुनि जैसे देवदुर्लभ महात्माओं के सानिध्य, उपदेश एवं मार्गदर्शन प्राप्त होते थे। हमें वन में ज्ञान की वह निधि प्राप्त हुई जो हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ में रहते हुए कभी प्राप्त नहीं हो सकती थी। मेरे लिए तो यह अरण्यवास एक वरदान की तरह सिद्ध हुआ। दिव्यास्त्रों की प्राप्ति अरण्यवास का महत्त्वपूर्ण सुपरिणाम था।
अग्रज युधिष्ठिर सदैव ऋषि-मुनियों के स्वागत और सेवा में तत्पर रहा करते थे। उनके पास असंख्य प्रश्नों का कोष था। वे भांति-भांति के प्रश्न कर ज्ञानी ऋषियों से उत्तर प्राप्त करते और अपना ज्ञान एक विद्यार्थी की तरह नित्य ही समृद्ध करते।
एक दिन श्रीकृष्ण, सत्यभामा भाभी और मुनिवर मार्कण्डेय जी एक साथ प्रकट हुए। हमारे आनन्द की कोई सीमा नहीं रही। सबका यथोचित सत्कार करने के उपरान्त हम एक साथ बैठे। यह हमारे शंका समाधान का सत्र था। युधिष्ठिर धर्म के उत्तरोत्तर पतन से अत्यन्त चिन्तित थे। भरी सभा में द्रौपदी के चीरहरण की घटना ने उनके मर्मस्थल को जैसे चीरकर रख दिया था। सभा में महात्मा विदुर और विकर्ण के अतिरिक्त सभी ज्येष्ठ पुरुषों के मौन से वे अत्यन्त आहत थे। सार्वजनिक रूप से अधर्म के सम्मुख, धर्म के समर्पण ने उन्हें यह विश्वास करने के लिए विवश कर दिया था कि आनेवाले समय में अधर्म का ही आधिपत्य होगा। उन्होंने अपनी शंका मुनिवर मार्कण्डेय जी के सम्मुख रखी।
मार्कण्डेय जी ने अपनी शीतल और मृदु वाणी में युधिष्ठिर की शंका का समाधान किया –
“भरतश्रेष्ठ राजन! धर्म और अधर्म दिन और रात की भांति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ये दोनों प्रायः प्रत्येक युग में उपस्थित रहते हैं। विधाता द्वारा प्रदत्त अवधि में कभी एक की अधिकता होती है, तो कभी दूसरे की। मनुष्य की आयु युगों की तुलना में नगण्य होती है लेकिन वह अपने अनुभवों के आधार पर ही धारणा बनाता है। तुम्हारी धारणा के अनुसार इस समय अधर्म अपने उत्कर्ष पर है। द्रौपदी के चीरहरण के समय धार्मिक श्रेष्ठजनों का अधर्म के सम्मुख लज्जाजनक समर्पण इसका प्रमाण है। लेकिन संकट की इस घड़ी में भी विदुर और विकर्ण का विद्रोह, श्रीकृष्ण द्वारा कृष्णा की लाज की रक्षा, धर्म की उपस्थिति का भी प्रमाण है। तुम्हें ज्ञात नहीं, आनेवाले युग के अन्तिम चरण में कोई विदुर, कोई विकर्ण, कोई कृष्ण द्रौपदी की लाज बचाने के लिए उद्यत नहीं होगा। अधर्म अट्टहास करेगा, धर्म गिरि-कन्दराओं का शरणार्थी बनेगा।
सृष्टि ने कालचक्रों को चार भागों में विभाजित किया है – सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग। कालचक्र घूमता रहता है – कभी सतयुग की बारी, तो कभी त्रेता की। इस समय द्वापर की बारी है। आनेवाल कल, कलियुग का है।
भरतश्रेष्ठ! सतयुग में मनुष्यों के भीतर वृषरूप धर्म अपने चारो पैरों पर खड़ा रहता है, इसलिए संपूर्ण रूप से प्रतिष्ठित होता है। उसमें छल, कपट या दंभ नहीं होता।
त्रेता में धर्म, अधर्म के एक पाद से अभिभूत होकर अपने तीन अंशों से ही प्रतिष्ठित होता है। द्वापर में धर्म आधा ही रह जाता है, आधे में अधर्म आकर मिल जाता है।
कलियुग आने पर वृषरूप धर्म के तीन पैर अधर्म पर आश्रित होते हैं और सिर्फ एक पैर धर्म पर। प्रत्येक युग में मनुष्यों के आयु, वीर्य, बुद्धि तथा तेज क्रमशः क्षीण होते जाते हैं।
कलियुग में चारो वर्णों के मनुष्य कपटपूर्वक धर्म का आचरण करेंगे, धर्म का जाल बिछाकर अन्यों को ठगेंगे। स्वयं को पण्डित मानने वाले लोग सत्य का त्याग कर देंगे। लोभ नामक दुर्गुण सभी गुणों पर भारी पड़ेगा। विद्या और ज्ञानार्जन की प्राथमिकता समाप्त हो जाएगी। लोभ और क्रोध के वशीभूत हुए मूढ़ मनुष्य कामनाओं में फंसकर आपस में वैर भाव लेंगे और एक दूसरे के प्राण लेने की घात में लगे रहेंगे।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आपस में सन्तानोत्पादन करके वर्ण संकर हो जाएंगे। ये सभी तपस्या और सत्य से रहित हो जाएंगे। चाण्डाल – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का काम करेंगे और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों और चाण्डालों के।
कलियुग के पुरुष, स्त्रियों से मित्रता कर गौरवान्वित होंगे। मछली-मांस मदिरा का व्यवसाय चरमोत्कर्ष पर होगा। कुछ लोग पूर्वजन्म के संस्कारों और सत्संग के कारण इस युग में व्रत धारण करेंगे लेकिन अवसर पाते ही लोभ का शिकार बन जाएंगे। लोग एक-दूसरे को लूटेंगे, मारेंगे। युगान्तकाल के मनुष्य जपरहित, नास्तिक और चोरी करने वाले होंगे। अपनी प्रशंसा के लिए लोग बड़ी-बड़ी बातें बनाएंगे लेकिन समाज में उनकी निन्दा नहीं होगी। लोग प्रायः दीनों, असहायों तथा विधवाओं का भी धन हड़प लेंगे। युगान्तकाल के सभी क्षत्रिय जगत के लिए कांटे बन जाएंगे। वे प्रजा की रक्षा तो करेंगे नहीं, उनसे बलपूर्वक धन ऐंठेंगे, सदा मान और अहंकार के मद में चूर रहेंगे। वे केवल प्रजा को दण्ड देने के काम में रुचि रखेंगे।
सामान्य जन इतने निर्दयी हो जाएंगे कि सज्जन पुरुषों पर बार-बार आक्रमण करके उनके धन और स्त्रियों का बलपूर्वक उपभोग करेंगे तथा उनके रोते-बिलखने पर भी दया नहीं करेंगे।
कलियुग के अन्तिम चरण में न कोई अपनी कन्या के लिए वर ढूंढ़ेगा और न कन्यादान करेगा। उस समय वर-कन्या स्वयं ही एक दूसरे का चयन कर लेंगे। राजा घोर असन्तोषी और मूढ़ चित्तवाला होगा एवं सभी प्रकार से प्रजा के धन का अपहरण करेगा। एक हाथ दूसरे हाथ को लूटेगा – सहोदर भ्राता अपने भाई के धन को हड़प लेगा। अपने को पण्डित मानने वाले व्यक्ति संसार से सत्य को मिटा देंगे। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का नाम भी नहीं रह जाएगा। युगान्तकाल में सारा विश्व एक वर्ण और एक जाति का हो जाएगा। युग क्षय काल में पिता पुत्र के अपराध को क्षमा नहीं करेंगे और पुत्र भी पिता की आज्ञा नहीं मानेंगे। स्त्रियां अपने पतियों की सेवा से विरत हो जाएंगी तथा स्वच्छंद, स्वेच्छाचारी आचरण करेंगी। पत्नी अपने पति से तथा पति अपनी पत्नी से संतुष्ट नहीं होंगे। ब्राह्मण वेद-विक्रय करेंगे और स्त्रियां वेश्यावृति अपनाएंगी।
सभी लोग सिर्फ अपने अधिकार की बात करेंगे, कर्त्तव्य की चर्चा समाप्त हो जाएगी। शूद्र धर्मोपदेश करेंगे और ब्राह्मण उनकी सेवा में रहकर उसे सुनेंगे तथा उसी को प्रामाणिक मान उसका पालन करेंगे।
जनमानस क्रूर से क्रूरतर होता जाएगा। एक-दूसरे पर मिथ्या कलंक लगाना साधारण बात होगी। लोग बगीचों और वृक्षों को कटवा देंगे, ताल-तलैया पाट देंगे। ऐसा करते समय उनके मन में पश्चाताप या पीड़ा भी नहीं होगी।
सारे विश्व में एक जैसा आचार-व्यवहार और एक जैसी वेश-भूषा होगी। हर सबल व्यक्ति निर्बल से बेगार लेना आरंभ कर देगा। शासक अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु प्रजा पर करों का बोझ बढ़ाता चला जाएगा। सद्वृत्तियुक्त पुरुष-स्त्री पीड़ित हो एकान्त आश्रमों में चले जाएंगे और फल-फूल खाकर जीवन-निर्वाह करेंगे। संपूर्ण संसार में उथल-पुथल मच जाएगी – कोई मर्यादा नहीं रह जाएगी। शिष्य गुरु का उपदेश नहीं मानेगा और विपरीत आचरण करेगा।
युगान्त उपस्थित होने पर, धीरे-धीरे प्राणियों का अभाव हो जाएगा, सारी दिशाएं प्रज्ज्वलित हो उठेंगी और नक्षत्रों की प्रभा विलुप्त हो जाएगी। इस सूर्य के अतिरिक्त छः और सूर्य उदित होंगे और सब एक साथ तपेंगे। सारी सृष्टि का एक साथ विनाश होगा। पश्चात कालान्तर में सतयुग का आरंभ होगा। उस समय लोक के अभ्युदय के लिए, दैव अनायास ही अनुकूल होगा। भगवान विष्णु का ‘कल्कि’ अवतार होगा – धर्म की स्थापना होगी, अधर्म का नाश होगा”
कालों के ज्ञान के साथ उनका प्रवचन समाप्त हुआ।
क्रमशः