आरक्षण का अनचाहा पहलू: एक विचार-प्रवर्तक टिप्पणी

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डॉ. मधुसूदन

(एक)
सारांश:
अपनी टिप्पणी में, पिछडे समाज का,एक टिप्पणीकार अपना अनुभव बताता है; ==>
***आरक्षण के कारण समाजपर होनेवाले मानसिक दुष्परिणाम***
***सभी से बुरा है, आरक्षित समाज में, हीन ग्रंथि का उदय***
***और समग्र देश में फैलती परस्पर अलगाव की भावना***

अंत में टिप्पणीकार अपना निश्चय व्यक्त करता है:
***इस लिए, आरक्षण की *पंगुगाडी* फेंक, मैं लेखनी रगड रहा हूँ।***
और अपना प्रामाणिक परामर्श देता है, कि——-
***आरक्षण की विषैली मीठी गोली शीघ्रता से फेंकी जाए।***

(दो)
मेरे कुछ प्रश्न:
प्रश्न उठता है; कि अलगाव दूर करने के लिए जो आरक्षण अपनाया था, उसका बिलकुल उलटा परिणाम, *अलगाव की वृद्धि* कैसे स्वीकारा जाए?
और क्या हम अपमी जनता की *हीन ग्रंथि* बढाने के लिए आरक्षण पर राष्ट्रीय मुद्रा खर्च कर अपने ही समाज का अहित करना चाहते हैं?

हमने जिस उद्देश्य से आरक्षण प्रदान किया है, उसके कोई हितकारी फल नहीं मिल रहे; वास्तव में उलटे कुफल मिल रहे हैं। एक,समाज मे एकता के बदले अलगाव फैल रहा है। साथ साथ हीनता ग्रंथि भी उतनी ही बढ रही है।
अकर्मण्यता को बढावा, अपना भाग्य गढनेका स्वातंत्र्य और पुरुषार्थ खोना इत्यादि भी प्रतिफलित हो रहा है।

(तीन)
टिप्पणी कार का परिचय:
*श्री. शिवाजी निवृत्तिराव घुगे* नामक, मराठी के लेखक स्वयं पिछडे वर्ग के हैं। आरक्षण के विषय में, आपका निम्न टिप्पणिरूपी अनुभव मात्र ध्यान देने योग्य ही नहीं, पर विचारोत्तेजक भी है।
उनका यह कथन मराठी में है, जिसे उन्हीं के मराठी शब्दों में परिशिष्ट में संदर्भ के लिए दिया है। और उन्हीं की टिप्पणी का प्रामाणिक अनुवाद पाठकों के लिए हिन्दी में, प्रस्तुत किया है। बिना परिवर्तन (मात्र भाषांतर) प्रस्तुत है। तो, लीजिए उन्हीं के शब्दों का प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद, आरक्षण के अनदेखे पहलुपर। अंत में मैंने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।

(चार)
अनुभव उनका का अनुवाद मेरा:
====================================================
*मैं स्वयं पिछडी जाति का होने के परिणाम स्वरूप, आरक्षण के कारण होनेवाले सामाजिक एवं मानसिक दुष्परिणाम, मैंने बिलकुल निकटता से देखें, और अनुभव किए हैं।
उनमें सब से बुरा परिणाम है,खुली स्पर्धा से आगे बढे हुए व्यक्ति के सामने खडे होकर काम करते समय, अनिवार्यतः जन्म लेती हीन ग्रंथि की भावना। साथ समाज में, एकता नहीं पर अलगाव का पैदा होना।
और (स्व-प्रतिभा से आगे बढे हुए व्यक्ति की) अस्वीकृति की प्रतिक्रिया और उसका स्वाभिमान जो उसके व्यवहार और वाणी में व्यक्त होता है। उसकी दृष्टि में सूक्ष्मता से दिखाई देती है, उसकी अन्यों के प्रति तुच्छता।
तभी समझमें आया कि जब तक हम खुली स्पर्धा में ही इन लोगों को “धोबी पछाड” नहीं देंगे तब तक मनो-मनमें में फैली हुयी यह उच्चनीचता की खाई पाटी ही नहीं जाएगी।
इसी लिए मैं आरक्षण की *पंगुगाडी* फेंक कर सीना तान कर खडा होने के लिए अपनी लेखनी रगड रहा हूँ।
समाज में सभी के साथ बराबरी के नाते बिना झुके यदि खडा रहना है, तो, ऊपर ऊपर से सुनहरे दिखनेवाले इस आरक्षण के जुए को कभी ना कभी कंधो पर से उतार फेंकना ही होगा। इस विषैली मीठी गोली को जितनी शीघ्रता से फेंका जाए उतना ही अच्छा होगा।
=================भाषान्तर का अंत==============

(पाँच) लेखक का विवेचन:
हमें भी गम्भीरता से इन नकारात्मक पहलुओं पर गहराई से विचार करना चाहिए। हम सचमुच, इस उपेक्षित वर्गका समाज में एकीकरण (इन्टिग्रेशन)चाहते हैं। पर उपेक्षित समाज में अपनेपन का भाव कैसे जगाया जाए, इस पहलुपर विद्वानों द्वारा विचार होना चाहिए।

समस्या दोनों ओर है। और समस्या मानसिक ही अधिक है। तो हल भी मानसिक विचार किए बिना संभव नहीं होगा। साथ साथ अकर्मण्यता, पुरुषार्थ हीनता, स्वयं का जीवन गढने की उनकी स्वतंत्रता इत्यादि भी विचारणीय़ है।

(१) उन्हों ने धोबी पछाड की बात कही। यह संघर्षात्मक दृष्टिकोण का उल्लेख हैं। हमारी समन्वयवादी और सुसंवादी विचारधारा के लिए भी यह अच्छी बात नहीं है। हमारी सांस्कृतिक परम्परा संवाद से समाधान करने में मानती है।
(२) टिप्पणी लेखक, श्री. शिवाजी घुगे ने अपनी बात बडे मुक्त मन से बताई है। यह बिन्दु बहुत महत्व रखता है; क्यों कि यह प्रत्यक्ष अनुभव है।
(३)पर उन्होंने भी हीनता ग्रंथि का जन्म और उसकी अभिव्यक्तिका दोष दर्शाया है।
यह टिप्पणी छोटी होते हुए भी विचार प्रवर्तक है।
(४) इस समस्या का स्थायी समाधान खोजा जाना चाहिए। और, हमें ऐसा समाधान चाहिए, जिससे हम निम्न पाँच सामूहिक प्रेरणाएँ भी प्रोत्साहित कर पाएँ।

(क) समरसता से समानता,
(ख) परस्पर सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार,
(ग) उपेक्षित समाज की स्वतंत्रता,
(घ) सहयोग की भावना
(ङ) और सहिष्णुता का व्यवहार।

इस पर राजनीति न हो।

लेखक के मत में ===>
असीमित स्थायी आरक्षण घाटे की लेन देन है; उस समाज के लिए भी, जिसे आरक्षण दिया जा रहा है। आरक्षण के अतिरेक से पुरुषार्थ विहीन अकर्मण्य समाज भी प्रोत्साहित हो रहा है।
समाज पंगु बन कर जीवन भर कर्मठता में विश्वास खोता है।
राष्ट्रीय उत्पाद में अपना योगदान नहीं दे पाता।
यदि पराक्रमहीन, निष्क्रीय जीवन ही प्रोत्साहित हो रहा है; तो वांछनीय नहीं है।

आरक्षण एक अस्थायी औषधि है, पूर्व में हुए, अन्याय को ठीक करने के लिए; उसे स्थायी बनाना देशहित में नहीं है। न उनके हित में है, जिन्हे आरक्षण दिया जाता है।
शिवाजी निवृत्तिराव घुगे का अनुभव पढनेपर जो विचार आए, उन्हें इस लेख में प्रस्तुत किया है।

पश्चिम में का द्वन्द्वात्मक संघर्ष समाधान या हल निकालता है, जिसमें आर्थिक रीति से लेन देन करवाकर न्याय दिलवाया जाता है, पर साथ साथ शत्रुता भी पैदा होती है। प्रेम, लगाव इत्यादि घट जाता है; समाप्त होता है।
वहाँ इसी प्रकारके संघर्ष कुटुम्बों में भी फैलते हैं।और इस लिए वहाँ कुटुम्ब नष्ट हो रहे हैं। विस्तृत संयुक्त परिवार तो कभी दिखे भी नहीं।
औषधि ही रोग बढा रही है? इसपर चिन्तन होना चाहिए। हम अपने समाज में अन्याय नहीं चाहते। अपने पिछडे बंधुओं का भी चिरस्थायी कल्याण चाहते हैं।
संघर्ष से मित्रता नहीं शत्रुता पैदा होती है। आज की संघर्षवादी पार्टियाँ पश्चिम की द्वंद्वात्मक विचार धारा से प्रेरित हैं। और ऐसी शत्रुता पैदा करने की दोषी हैं। शत्रुत्व के कारण प्रत्येक अगले अवसर की ताक में ऊपर से शान्त बैठे दिखते हैं। मन में होती है, शत्रुता और ऊपर से शान्ति का दिखावा। अवसर की ताक में सारा जीवन चला जाता है।

वास्तव में आरक्षण की यह औषधि अलगाव का रोगनिवारण करने के बदले बृहत समाज में अलगाव, बिखराव, और वैमनस्यता फैलाने की दोषी है। यह औषधि ही समाज में जहर घोल रही है।

(छः)
परिशिष्ट: (मूल मराठी )संदर्भ के लिए प्रस्तुत:
Shivaji Nivruttirao Ghuge (शिवाजी निवृत्तिराव घुगे)
मी स्वत: मागास जातीतील असल्यामुळे आरक्षणाचे समाजावर होणारे सामाजिक तथा मानसिक पातळीवरचे दुष्परिणाम अगदि जवळून बघीतले तथा अनुभवले आहेत.त्यापैकी सर्वात मोठा दुष्परिणाम म्हणजे खुल्या स्पर्धेतून पुढे आलेल्यांसमोर उभे राहतांना ,काम करतांना, निर्माण मनात अपरिहार्यपणे होणारी वेगळेपणाची तथा न्यूनगंडाची भावना होय.
व त्याची प्रतिक्षिप्त प्रतिक्रिया म्हणून त्यांच्या वागण्याबोलण्यातून जाणवणारी अहंता.
व नजरेमधून सुक्ष्मपणे जाणवणारी इतरांबद्दलची तुच्छता.
तेंव्हाच मला जाणवलं कि जो पर्यंत आपण खुल्या स्पर्धेतून ह्या लोकांना “धोबीपछाड” देणार नाहीत तोपर्यंत मनामनातून असणारी उच्चनीचतेची ही दरी भरुन निघणारच नाही.
म्हणूनच मी आरक्षणाचा “पांगूळगाडा” झुगारून ताठपणे उभे राहण्यासाठी आपली लेखणी झिजवतोय.
समाजात इतरांसोबत बरोबरीच्या नात्याने ताठपणे उभे रहायचे असेल तर वरकरणी सोनेरी वाटणारे हे आरक्षणाचे “जू” केंव्हा ना केंव्हा तरी मानेवरून झुगारावेच लागणार आहे.
हे गुळमट विष जितक्या लौकर फेकून देता येईल तितके चांगले.
सूचना:
आप टिप्पणी कीजिए। उत्तर में विलम्ब की अपेक्षा।

3 COMMENTS

  1. आरक्षण के कारण भारत का बौद्धिक और सामाजिक स्तर गिरा है और जब बौद्धिक और सामाजिक स्तर गिरता है तो राष्ट्र की उन्नति मे भी असर पड़ता है । किसी ने कहा है की भारत में हर निम्न ब्यक्ति अपने को ऊँचा साबित करने के लिए अपनी से तो एक निम्न ढूड़ ही लेता है । आरक्षण कुछ समस्याओं के समाधान के लिए अपनाया गया था जो समयानुसार खत्म कर दिया जाना था लेकिन आजादी से लेकर आज तक लगभग सत्तर वषो के शासन काल में देश को देश द्रोही नेताओं ने वोट बैंक बनाकर उपयोग किया । इसका दुष्परिणाम है कि देश की जनता का विकास रुक गया और जैसा की लेखक ने अति विस्तार पूर्वक से इस लेख मे प्रस्तुत किया है ” हीन ग्रंथि ” आदि आदि । हमे दूरदर्शी , समदर्शी बनकर आरक्षण को ख़त्म करना होगा और सबका साथ सबका विकास को अपनाना होगा । सामाजिक कटुता , खत्म होने से ही समानता , समभाव , संभव है । अपनी अपनी योग्यतानुसार विकसित होने से सम्पन्नता , आत्म सम्मान और आत्म गौरव का विकास संभव है । ऐसा होने से धर्मान्तरण की प्रक्रिया मे भी सुधार होगा और जो लोग सामाजिक और आर्थिंक कारणों से शोसित होने के कारण आत्म गौरव खो देते है और धर्मांतरण के शिकार बनकर राष्ट्र द्रोह , देश द्रोह के चंगुल मे आ जाते है और स्वयं ही अपने जीवन को पूर्ण विकसित नही कर पाते है , उससे बच जाऐगे । देश के सभी नागरिकों के समुचित विकास मे आरक्षण एक रोड़ा है । खत्म होना चाहिए इसे ताकि सब एक हो ।

  2. मधु भाई , सादर प्रणाम ।
    आपने अपने आलेख में जिन बिन्दुओं को उठाया है , वे सभी न्यायसंगत , तर्कसिद्ध और सत्य पर आधारित हैं ।
    विगत वर्षों में समाज में अनुभूत विषमताओं एवं दुष्परिणामों के आधार पर यह स्वत: सिद्ध है कि आरक्षण वह अनचाहा पहलू है ,
    जो देश की प्रगति के मार्ग में प्रमुखता से बाधक है । इसे पूर्णरूपेण निरस्त करना परमावश्यक है । आपके विचारों से मेरी पूरी
    सहमति है ।
    सादर,
    – शकुन्तला बहादुर

  3. आरक्षण का अनचाहा पहलू: एक विचार-प्रवर्तक टिप्पणी

    मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ .आरक्षण ऐसी दवा नहीं कि अनिश्चित काल तक असमर्थ लोगों को सामर्थ्यवान बना सके .
    आगे बढ़ने के लिये केवल सहारा काम नहीं करता ,पात्र में सामर्थ्य क्षमता का होना बहुत आवश्यक है .योग्य पात्र को सुविधायें मिलें -किसी वर्ग विशेष को लगातार सुविधायें और छूटें देते चले जाने से हानि की संभावना ही अधिक है .सामाजिक न्याय की दृष्टि से भी यह उचित नहीं .स्वस्थ प्रतियोगिता स्तरीयता में वृद्धि करती है और मनोबल बढ़ाती है ,जब कि आरक्षण, निर्भर बना कर दोनो पक्षों में कुंठाओं का जनक बन जाता है .
    – प्रतिभा सक्सेना.

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