उत्तराखंड के धराली में ऊपर पहाड़ियों पर बादल फटा और उसके साथ जिस प्रकार बड़ा भारी मलबा पहाड़ से नीचे की ओर आया तो उसने धराली गांव को अतीत बना दिया। हम सबके लिए यह घटना बहुत दुखद रही है। परंतु यह घटना हमें बहुत कुछ सिखा कर भी गई है। इसने बताया है कि यदि मनुष्य प्रकृति के साथ छेड़छाड़ जारी रखेगा तो उसको अपनी इस प्रकार की अनुचित हरकतों के गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
इस घटना के संदर्भ में हमें अतीत को समझना पड़ेगा, अपनी नैतिक व्यवस्थाओं को समझना पड़ेगा, समाज के विधि विधान को समझना पड़ेगा। जिसमें प्रकृति, मनुष्य और पशु पक्षियों के मध्य उत्तम सामंजस्य स्थापित करने का हर संभव प्रयास किया जाता था। अपने ऋषियों के उस चिंतन को समझना पड़ेगा, जिसके अंतर्गत वे पहाड़ों पर बसने का अधिकार उन योगियों या तपस्वियों ही दिया करते थे जो आत्म साधना के लिए वहां जाना उचित मानते थे। इसके अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति को वहां जाने का कोई अधिकार नहीं होता था। योगी तपस्वी लोग पहाड़ों पर जाकर पहाड़ों के साथ-साथ पहाड़ी जीवन के साथ भी कोई खिलवाड़ नहीं करते थे। वे पहाड़ी जीवन का आनंद लेते थे और उसे अपने अनुकूल बनाकर जीने का प्रयास नहीं करते थे। जिससे उनका जीवन पहाड़ के लिए किसी प्रकार की समस्या नहीं बनता था। पहाड़ी पशु पक्षी भी अपने आप को उन ऋषियों और तपस्वियों के साथ सहज समझते थे ।
जनसाधारण इन पहाड़ियों की ओर स्वाभाविक रूप से ही जाने की नहीं सोचता था। उनके मन मस्तिष्क में एक बात स्थापित कर दी गई थी कि यह क्षेत्र उन आत्मवेत्ताओं के लिए सुरक्षित है जो संसार के विषय भोगों, वासनाओं, लिप्साओं, काम क्रोध, मद , मोह, लोभ इत्यादि से ऊपर उठ चुके हैं और मोक्ष के अधिकारी बन चुके हैं। ऐसी दिव्य आत्माओं का निवास होने के कारण उत्तराखंड ऋषि भूमि कहलाया। यह बात उत्तराखंड पर ही लागू नहीं होती थी, कश्मीर पर भी यही बात लागू होती थी। जनसाधारण का प्रवेश यहां पर किसी धारा 370 जैसी बदनाम धारा के द्वारा वर्जित नहीं था बल्कि बहुत ही सात्विक भाव से उसे लोगों ने अपनी सहमति प्रदान कर दी थी । यहां पर जाकर व्यक्ति के शुद्ध सात्विक भाव बन जाते थे। इसलिए विषय भोगों के लिए इस क्षेत्र को प्रयोग में लाना और यहां जाकर मौज मस्ती करने की बात लोग सोचते भी नहीं थे।
समय परिवर्तनशील होता है। धीरे-धीरे समय ने पलटी खाई तो कई गृहस्थी लोगों को अपने परिवार के बिछड़े हुए लोगों से अर्थात संन्यासी हो गए योगियों से मिलने की अभिलाषा होने लगी। उधर जो लोग पहाड़ों पर जाकर तपस्या कर रहे थे, उनमें से ही कई ऐसे कच्चे सिद्ध हुए, जिन्हें अपने परिजनों से मिलने की इच्छा बनने लगी। दोनों ओर के इस प्रकार के मोह भरे आकर्षण ने पहाड़ों की जिंदगी को बर्बाद करने की ओर पहला कदम रखने के लिए मनुष्य को प्रेरित किया। लोगों ने धीरे-धीरे अपने परिवार से निकले किसी तपस्वी साधक से जाकर मिलना आरंभ किया। कुछ समय तक तो यह परंपरा मिलने के बाद लौट आने तक सीमित रही, परंतु कालांतर में कुछ लोगों ने तपस्वी साधक लोगों के गुरुकुलों या तपस्या स्थली के पास नीचे पहाड़ी में अपना अस्थाई निवास बनाना आरंभ कर दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे पहाड़ी जीवन बोझिल होता चला गया।
इसके बाद बारी थी – भारत की ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ की। जिसने ऋषियों की तपस्थली, तपोभूमि, ऋषि भूमि ( कश्मीर और उत्तराखंड ) को व्यभिचार का अड्डा बनाने का काम किया। भारत की कथित गंगा जमुनी संस्कृति की सबसे बड़ी विडंबना ऋषि भूमि की तस्वीर को पूर्णतया विकृत कर देना है। मुगलों ने हिंदुस्तान पर अपने शासन करने के दिनों में कश्मीर और उत्तराखंड को अपने लिए सैरगाह ( जिसे शुद्ध शब्दों में व्यभिचार का केंद्र कहा जा सकता है ) के रूप में प्रयुक्त किया। पहाड़ी जीवन के प्रति मुगलों की इस प्रकार की सोच ने पर्वतीय जीवन शैली के प्रति लोगों का दृष्टिकोण परिवर्तित कर दिया। प्रारंभ में तो हिंदू समाज की ओर से इसे मुगलों का अनुचित कृत्य माना गया। परंतु जैसे-जैसे गंगा जमुनी संस्कृति का प्रभाव हिंदुओं की नई पीढ़ी पर चढ़ता गया वैसे-वैसे ही अनेक ‘जहांगीर’ और ‘शाहजहां’ अपनी – अपनी ‘नूरजहांओं’ और ‘मुमताजों’ के साथ इस पहाड़ी जीवन के एकांत जीवन को विकृत करने लगे। पर्वतों का यह शांत वातावरण चीख उठा। पर्यटन के नाम पर लोगों ने अपने घरों को भी सैर करने आए सैलानियों के लिए किराए पर देना आरंभ कर दिया। उन्हें सब पता होता है कि सैर करने के लिए आए ये सैलानी यहां पर क्या करने आए हैं ? इनमें से बड़ी संख्या की सोच क्या है ? और वे यहां आकर क्या पाना चाहते हैं ? परंतु उन्हें भी पैसा चाहिए। इससे आगे उन्हें कुछ नहीं देखना।
आज कुछ ऐसी चीजें हमारी जीवन शैली में स्थाई प्रवास कर चुकी हैं जो कभी हमारे पूर्वजों की जीवन शैली में सम्मिलित होकर भी स्थाई नहीं होती थीं। पश्चिम की संस्कृति के प्रभाव ने इस प्रकार की जीवन शैली को और भी अधिक हवा दी है। इस दुर्गन्धित हवा ने हमारी सांस्कृतिक विरासत को दुर्गन्धित करने का प्रयास किया है। इस प्रकार की दुर्गंध भरी जीवन शैली को और बोझ बनती जा रही मनुष्यों की भीड़ को पहाड़ अपने लिए ‘बाधा’ समझते हैं। पहाड़ों की इस मूक आवाज को हमारे पूर्वज समझते थे। इसलिए उन्होंने पहाड़ों को पहाड़ों की तरह जीने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया था। वह था वास्तविक लोकतंत्र । जिसमें प्रकृति के अधिकारों का भी सम्मान किया जाता था। जब तानाशाह पैदा होने आरंभ हुए तो उन्होंने प्रकृति के अधिकारों का हनन करना आरंभ किया और उसी का परिणाम है आज की धराली जैसी घटनाओं का निरंतर होना।
अभी भी समय है कि हम जागरूक हो जाएं और अपने पूर्वजों की जीवन शैली को अपना लें। इससे पहले कि भयंकर विनाश को हम देखें, हमें गंगा जमुनी संस्कृति की भयावह परिणति से अपने आप को बाहर निकलने का प्रबंध करना चाहिए । विषय भोग और सांसारिक वासनाओं का खेल इंद्रियों को अच्छा लगता है। जिसे यह गंगा जमुनी संस्कृति और पश्चिम की अपसंस्कृति का दुष्प्रभाव हमारी ऋषि संस्कृति पर स्पष्ट दिखाई देने लगा है। हमें ऋषि भूमि को ही नहीं, कृषि भूमि अर्थात भारत को भी बचाने के लिए समय रहते उपाय करने की आवश्यकता है। हमें कठोर कानून बनाने की आवश्यकता नहीं है, अभी तू अपने पूर्वजों की भांति मनुष्य के मानस को कठोर अनुशासन में ढालने की आवश्यकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य