हिमांशु शेखर
जो भी यह सोच रहे थे कि 2008 के गुजरने के साथ ही खाद्यान्न संकट और भुखमरी की समस्या से काफी हद तक निजात मिल जाएगी, वे गलत साबित हुए हैं। उन्हें गलत साबित किया है संयुक्त राष्ट खाद्य एवं कृषि संगठन यानी एफएओ की एक रपट ने। बीते दिनों इस संस्था ने अनाज संकट और इससे उपजी भुखमरी पर अपनी रपट जारी की। इस रपट के मुताबिक विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के कारण इस साल यानी 2009 में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या सबसे अधिक हो जाएगी।
संस्था का अनुमान है कि दुनिया भर में इस साल भूखे रहने वाले लोगों की संख्या बढ़कर 102 करोड़ हो जाएगी। जबकि पिछले साल जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स में यह बताया गया था कि भुखमरी की समस्या से दो-चार हो रहे लोगों की संख्या तकरीबन 80 करोड़ है। उस वक्त भी कुछ संस्थाओं ने इस संख्या को 92 करोड़ बताया था। इससे इतना तो तय है कि पिछले एक साल में भूखे रहने वालों की संख्या काफी तेजी के साथ बढ़ी है। एफएओ के नए अनुमान के मुताबिक भूखे लोगों में से आधे से ज्यादा यानी 64.2 करोड़ लोग एशिया के हैं। वहीं सहारा अफ्रीकी देशों में भुखमरी की समस्या झेल रहे लोगों की संख्या 26.5 करोड़ है। जबकि विकसित देशों के डेढ़ करोड़ लोग भी भुखमरी की समस्या झेल रहे हैं।
दरअसल, अनाज संकट और भुखमरी की समस्या का इस कदर गहराते जाने दुनिया की आर्थिक व्यवस्था की असफलता की कहानी बयां कर रही है। दुनिया आर्थिक मंदी की मार झेल रही है लेकिन पूंजीवाद के पैरोकार अभी भी साम्राज्यवादी नीतियों को प्रोत्साहित करते हुए नहीं अघा रहे हैं। पूंजीवाद पर आधरित भूमंडलीकरण के जिस युग में दुनिया जी रही है उसने अमीरों को और भी ज्यादा अमीर और गरीबों को और भी ज्यादा गरीब बनाया है। अमीरपरस्त आर्थिक नीतियों की वजह से एक खास तबके का बैंक बैलेंस कापफी तेजी से बढ़ा और ये लोग तेजी से शेयर बाजार की ओर गए। जहां से ये थोड़े ही समय में अपनी मूल पूंजी से कई गुना ज्यादा के स्वामी हो गए। वहीं दूसरी तरपफ अमीरों की इस दुनिया में ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या है जिन्हे दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पा रही है। साथ ही अभी भी दुनिया के कई हिस्सों में लोग भूख की वजह से काल कवलित हो जा रहे हैं। खाद्यान्न संकट ने भूखमरी की समस्या को और गहरा कर दिया है।
भुखमरी की समस्या को गहराने के लिए कई चीजें जिम्मेवार हैं। इसमें पहला है अनाज उत्पादन में कमी आना। दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में अनाज उत्पादन में कमी आई है। इसका असर यह हुआ कि बाजार में अनाज की आपूर्ति कम हुई और उसका भाव बढ़ता ही गया। हालत यह है कि वैश्विक स्तर पर 2005 के मुकाबले अनाज की कीमतों में औसतन 33 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। वहीं अगर अनाज के मौजूदा भाव की तुलना 2000 के स्तर से किया जाए तो इसमें तकरीबन 75 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इस अनुपात में लोगों की आमदनी बढ़ी नहीं है। लिहाजा उनके लिए जीवन बसर करना और भी चुनौतीपूर्ण हो गया है।
सच तो यह है कि मंदी की वजह से बड़ी संख्या में लोग अपनी नौकरी गंवा चुके हैं। कई उद्योग पूरी तरह ठप पड़े हुए हैं। इसका असर निचले स्तर के लोगों पर सबसे ज्यादा पड़ा है। इस वजह से ऐसे लोगों का एक बड़ा वर्ग तैयार हो गया है जिसकी आमदनी बहुत ज्यादा कम हो गई है। गरीबों पर तो इस संकट की दोहरी मार पड़ रही है। एक तरफ तो अनाज के भाव चढ़ गए हैं। दूसरी तरफ कल-कारखाने ठप पड़े हैं। यानी दिहाड़ी की गुंजाइश वहां भी नहीं है। साथ ही दुनिया के कई क्षेत्र ऐेसे हैं जहां कई वजहों से खेती भी सही ढंग से नहीं हो पा रही है। इसलिए उनके लिए खेतों में भी काम नहीं है। उदाहरण के तौर पर भारत को ही लिया जा सकता है। यहां कई राज्य माॅनसून में हो रही देरी की वजह से सूखे की चपेट में आ गए हैं। इन राज्यों में फसल लगाने में काफी देरी हो रही है। इन राज्यों के लोग अगर शहरों का रुख करें तो वहां नौकरियां पहले से ही नहीं हैं। बजाहिर, ऐसे में उनके लिए जीवन बसर कर पाना बेहद मुश्किल है।
ऐसा इसलिए भी है कि अनाज संकट और आर्थिक संकट ने खाद्यान्न के भाव काफी बढ़ा दिए हैं। भारत में ही महंगाई दर तो शून्य के नीचे है लेकिन महंगाई अपने चरम पर है। दालों की कीमत आसमान छू रही है। अरहर दाल 90 रुपए प्रति किलो के भाव पर बेचा जा रहा है। ऐसी ही स्थिति दुनिया के और भी देशों में है। उन देशों में यह अनाज के भाव और भी ज्यादा बढ़े हैं जहां भुखमरी की मार झेलने वाले लोगों की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है। अनाज का भाव बढ़ने की वजह से भुखमरी की मार झेलने वाले इस समस्या से उबर नहीं पा रहे हैं। इस वजह से भुख का एक नया चेहरा विकसित हो रहा है। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि अब भुखमरी की चपेट में आने वाले नए-नए वर्ग तैयार हो रहे हैं। यह ऐसा वर्ग है जो कभी इस समस्या में नहीं फंसा। लेकिन मौजूदा अनाज संकट और आर्थिक संकट ने उन्हें अपने जाल मंे फांस लिया है। भूख और गरीबी का विस्तार गांव से लेकर शहरों तक हो रहा है।
दरअसल, खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों के लिए अनाज उत्पादन में कमी के अलावा और भी कई चीजें जिम्मेवार हैं। इसमें से एक है जैव ईंधन का बढ़ता उत्पादन। जैव ईंधन को लेकर पूरी दुनिया में इस तरह से तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है कि लोग चकमा खा रहे हैं और अच्छी-खासी खेती वाली जमीन पर भी जैव ईंधन के उत्पादन का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि अनाज के उत्पादन का ग्राफ गिरने लगा है। जाहिर है, ऐसे में खाद्यान्न उत्पादों की कीमत में ईजाफा होना स्वभाविक है। दुनिया भर में व्याप्त अनाज संकट को इससे जोड़कर देखना स्वाभाविक ही है।
विश्व में मक्के के अधिकांश उत्पादन का उपयोग पेट की आग शांत करने के लिए नहीं हो रहा है बल्कि इससे वैकल्पिक ईंधन बनाया जा रहा है। इस वजह से एक बड़े तबके की थाली सूनी होती जा रही है। जबकि उसी अनाज से तैयार किए जाने वाले ईंधन का इस्तेमाल अमीरों की कारों के टैंक को भरने में किया जा रहा है। यानी गरीब दाने-दाने को मोहताज है और दूसरी तरपफ ऐशोआराम के लिए अमीर तबका बगैर किसी अपराध बोध के उनका निवाला छिनते जा रहा है। साथ ही यह तबका बडे़ गर्व से अपनी कारों पर ‘ग्रीन कार’ का स्टीकर चिपका कर इस तरह चल रहा है जैसे उसे ही सबसे ज्यादा चिंता पर्यावरण की है। यह तबका इस बात से भी बेखबर है कि उनके उपभोग की कीमत किसी को भूख की आग में जल कर चुकाना पड़ रहा है। क्यूबा के राष्ट्रपति पिफदेल कास्त्रो ने बहुत पहले अनाज से जैव ईंधन बनाने की इस अमेरिकी प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए घोषणा कर दी थी कि अमेरिकी नीतियों के चलते खाद्य पदार्थोें के दामों में तेजी आएगी और विश्व के कई भागों में अकाल जैसी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाएंगी।
अमेरिका के अलावा कई देशों में मक्का उपजाने वाले किसान अपने उत्पाद का बड़ा हिस्सा जैव ईंधन का उत्पादन करने वालों के हाथों बेच दे रहे हैं। इन्हें अपने उत्पाद के एवज में अच्छा पैसा भी मिल जा रहा है। इससे आकर्षित होकर वहां सोयाबीन उपजाने वाले किसान भी मक्का उपजाने लगे हैं। इससे एक तरह का असंतुलन कायम हो रहा है। जिसके परिणामस्वरूप वहां खाद्य पदार्थाें की कीमतों में ईजाफा हो रहा है। ब्राजील में चारागाहों को खेत में तब्दील करके वहां मक्का का उत्पादन किया जा रहा है ताकि जैव ईंधन के निर्माण में बढ़ोतरी हो सके। इसका नकारात्मक असर वहां के पशुपालन पर भी पड़ रहा है।पिछले कुछ समय से पशुओं का पलायन तेजी से अमेजन की जंगलों की तरपफ हुआ था। पर अब पर्यावरण संरक्षण के नाम पर पैसा बनाने वालों की बुरी नजर अमेजन के जंगलों को भी लग गई है। और उन्हें उजाड़ने की गति को बढ़ा दिया गया है। जंगल को उजाड़े जाने से पर्यावरण की तो दुर्गति होगी ही साथ ही साथ पशुओं की संख्या में भी भारी कमी आएगी। जब पशुओं की संख्या घटेगी तो उसके उत्पादों से अपने पेट की आग शांत करने वालों को भूख मिटाने के लिए कोई दूसरा रास्ता तलाशना होगा। यानि पशुओं के घटने का सीध दबाव खाद्यान्न पर ही पड़ेगा। इस वजह से अनाज संकट दूर होने के बजाए और गहराता ही जाएगा।
इसके अलावा कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों ने भी खाद्यान्न संकट को पैदा करने में अहम भूमिका निभाई है। हालांकि, अंतरराष्ट्रीय बाजार में अभी कच्चे तेल के दामों में जबर्दस्त कमी आई है। पर भारत जैसे देशों में घरेलू बाजार में तेल के दाम बढ़े ही हैं। खाद्य संकट पैदा करने में तेल एक अहम कारक है। क्योंकि तेल की दाम बढ़ने से कृषि लागत बढ़ गई। जिसके परिणामस्वरूप अनाज के दाम भी बढ़े। तेल की कीमत बढ़ने की वजह से खाद्यान्न को एक जगह से दूसरे जगह ले जाने में आने वाली परिवहन लागत भी बढ़ी। इस वजह से भी अनाज के दाम चढ़े। जिसकी मार से गरीब तबका ही हलकान हुआ।
खाद्यान्न की आवश्यकता की पूर्ति के मकसद से किए जाने वाले विरोध प्रदर्शनों में भी बीते कुछ सालों में काफी बढ़ोतरी हुई है। यह विरोध प्रदर्शन कई स्थानों पर हिंसात्मक और उग्र भी रहा है। खाद्यान्न के मसले पर मलेशिया, मोरक्को, रूस, थाईलैंड, ट्यूनेशिया, कैमरून, इंडोनेशिया, कीनिया, सेनेगल, हैती, मोजाम्बिक, पाकिस्तान और यमन जैसे देशों में हिंसा हो चुका है। खाद्यान्न संकट गहराने के दरम्यान और भी कई देशों में अनाज के खातिर हिंसा और हिंसात्मक प्रदर्शन हुए। इसमें बांग्लादेश, ब्राजील, ईजिप्ट, हैती, मैक्सिको, मोरक्को, पेरू, पफीलिपिंस, सेनेगल और दक्षिण अप्रफीका जैसे देश शामिल हैं। इसके अलावा शांतिपूर्ण तरीके से अनाज के बढ़ते दामों को लेकर दर्जनों देशों में विरोध प्रदर्शन हुए।
खाद्यान्न के दाम बढ़ने से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत मिलने वाले अनाज पर भी नकारात्मक असर पड़ता है। कई देशों में जन वितरण प्रणाली अनाज के दाम बढ़ने की वजह से चरमरा गई। इस वजह से जन वितरण प्रणाली पर आश्रित रहने वालों को और भी खतरनाक स्थिती से गुजरना पड़ रहा है। इसके अलावा संकट वाली जगहांे पर होने वाली अनाज की आपूर्ति पर भी खाद्य संकट का बुरा असर पड़ा। युद्धग्रस्त इलाकों या प्राकृतिक आपदाओं की मार झेलने वाले क्षेत्रों में खाद्यान्न की आपूर्ति उतनी मात्रा में नहीं हो पाई जितनी मात्रा की आवश्यकता थी। राहत के मद में खर्च किए जाने वाले खाद्यान्न में कमी की पुष्टि विश्व खाद्य कार्यक्रम के आंकड़ों से भी होती है। विश्व खाद्य कार्यक्रम के तहत राहत में खर्च किए जाने वाले अनाज में सिर्फ 2007 में पंद्रह फीसद की कमी आई। इस वजह से युद्ध या प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका को झेल रहे लोगों को भूख की मार से भी दो-चार होना पड़ रहा है और भुखमरी की समस्या का विस्तार उन क्षेत्रों तक भी हो रहा है।
खाद्यान्न के दाम बढ़ने के लिए अनाज पर बाजार का बढ़ता प्रभुत्व भी कम जिम्मेवार नहीं है। अप्रैल 2008 में जारी फेडरल बैंक आॅफ कंसास की रपट बताती है कि अनाज पर बाजारवादी ताकतों का बढ़ता प्रभुत्व इसकी बढ़ती कीमतों के लिए सर्वाधिक जिम्मेवार है। साठ के दशक में खेत में पैदा होने वाले अनाज की कीमत और उपभोक्ता तक पहुंचने पर उसकी कीमत के बीच 59 फीसद का ाफर्क होता था। जो अब बढ़कर अस्सी फीसद हो गया है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाजारवादी ताकतें किस कदर अनाज की कीमतों के साथ खेल रही हैं। स्वार्थ के उनके खेल का परिणाम यह हो रहा है कि भूखे लोगों की संख्या में कमी आने के बजाए इसमें बढ़ोतरी ही होती जा रही है।
खाद्यान्न संकट और बढ़ती महंगाई के लिए विश्व बैंक की नीतियां भी कम जिम्मेवार नहीं हैं। बीते 40 साल में विश्व बैंक ने जिन नीतियों को विकासशील देशों पर थोपा है उससे इन देशों की कृषि बदहाल हो गई है और किसान तबाह हो गया है। वायदा बाजार भी विश्व बैंक की नीतियों की ही देन है। आज पूरी दुनिया में यह तेजी से बढ़ रहा है। इसमें अनाज के उत्पादन या उपलब्ध्ता से कहीं ज्यादा का वायदा कारोबार पहले ही हो जाता है। वास्तविकता में जब उतनी मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध ही नहीं होगा तो संकट का पैदा होना स्वभाविक है। एक अनुमान के मुताबिक सिर्फ भारत में सलाना वायदा कारोबार चालीस लाख करोड़ से ज्यादा का है।
भुखमरी की समस्या इस कदर गहार गई है कि इसका समाधान आसान नहीं लगता। इसके बावजूद यह भी सच है कि हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से तो समस्या और भी गहराती ही जाएंगी। बाजारवादी ताकतें तो हर वैसे ताक की तलाश में रहती हैं कि उन्हें मनमाफिक तरीके से भाव तय करने का मौका मिले। ऐसे लोगों के मंसूबों पर पानी फेरना बेहद जरूरी है। वैसे इंटरनेशनल फूड पालिसी रिसर्च इंस्टीटयूट ने दो स्तरों पर खाद्यान्न संकट और भूख की समस्या से निजात पाने के रास्ते सुझाए हैं। पहले स्तर पर कुछ कदम तत्काल उठाने की सलाह दी गई है तो दूसरे स्तर पर दीर्घकालिक तौर पर चलने वाले कदमों की बात की गई है।
जिन कदमों को तुरंत उठाने की बात यह संस्था करती है उसमें सबसे पहला यह है जिन क्षेत्रों में लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल पा रहा है वहां के लिए तत्काल राहत दिया जाए और एक ऐसी एजंसी बनाई जाए जो ऐसी आपातकालिन स्थितियों से निपटने में सक्षम हो। संस्था कहती है कि अनाज संकट से पार पाने के लिए जिन देशों ने कृषि उत्पादों के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रखा है, वे जल्द से जल्द इस प्रतिबंध को हटाएं। इसके अलावा संस्था की तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश यह है कि किसान और किसानी को यथाशीघ्र आवश्यक मदद पहुंचाई जाए। यह मदद किसानों तक बीज, खाद और कर्ज के रूप में दिए जाने की बात संस्था करती है।
भारत जैसे देशों के लिए इस सुझाव को जल्दी से जल्दी लागू करना बेहद जरूरी है। अमेरिकापरस्त होकर भारतीय कृषि को विनाश के कगार पर पहुंचाने वाली सरकारी मानसिकता और उससे उपजी नीतियों को पलटे बगैर भारत को इस संकट से बाहर नहीं निकाला जा सकता है। संस्था की चैथी सिफारिश यह है कि दुनिया जैव ईंधन की नीतियों को बदले। संस्था कहती है कि जैव ईंधन के उत्पादन के उस तकनीक पर लगाम कसने की जरूरत है जो खाद्यान्न के जरिए बनाई जाती है। जैव ईंधन के उन रास्तों को तलाशा जाना चाहिए जिसमें उत्पादन के लिए खाद्यान्न की जरूरत नहीं पड़ती हो। इसके अलावा संस्था हर देश को अपने-अपने यहां अनाज का एक ऐसा रिजर्व तैयार करने का सलाह देती है जिसका उपयोग अचानक पैदा होने वाले खाद्यान्न संकट से निपटने में किया जा सके।
भारत के संबंध में एक बात और जरूरी हो जाती है। यहां अनाज के भाव में आ रही तेजी के लिए वायदा बाजार काफी हद तक जिम्मेवार है। इससे जमाखोरी बढ़ रही है और कारोबारी भाव के साथ खेल रहे हैं। इसका असर यह हो रहा है कि अनाज के भाव चढ़ते ही जा रहे हैं। इस वजह से वैसे लोगों की संख्या भी बढ़ती जा रही है जिनकी पहुंच से अनाज दूर होते जा रहे है। इसलिए अगर भारत में भूख की मार झेल रहे लोगों को इससे बचाना हो तो वायदा बाजार पर प्रतिबंध लगाना बेहद जरूरी है। आखिर आम आदमी के साथ होने का दंभ भरने वाली सरकार को तो यह तय करना ही चाहिए कि वह आम आदमी के साथ है या फिर बाजारवादी ताकतों के साथ।
भुखमरी की मार बच्चों पर सबसे ज्यादा पड़ रही है। आवश्यक भोजन नहीं मिलने की वजह से बड़ों का शरीर तो फिर भी कम प्रभावित होता है लेकिन बच्चों पर तो इसका असर तुरंत पड़ता है और यह असर लंबे समय तक रहता है। पहली बात तो यह कि गर्भवती महिलाओं को जरूरी भोजन नहीं मिल पाने की वजह से उनके बच्चे तय मानक से कम वजन के पैदा हो रहे हैं। इसके बाद अनाज का टोटा उन्हें कुपोषण की जाल में जकड़ ले रहा है। कुपोषण की मार इतनी गहरी होती है कि इसका असर पूरी जिंदगी पर दिखता है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रपट में एक अध्ययन का जिक्र किया गया है। यह अध्ययन ग्वांटनामो के बच्चों पर किया गया है। इस अध्ययन के मुताबिक जिन बच्चों को अपने शुरूआती जीवन में आवश्यक उर्जा किसी ना किसी खाद्य या पेय पदार्थ के माध्यम से मिलती है वे जवान होकर एक सामान्य व्यस्क से 46 फीसद ज्यादा पैसा कमाते हैं। इससे एक बात साफ है कि व्यस्क होने पर व्यक्ति की उत्पादकता उसके बचपन के पोषण पर काफी हद तक निर्भर करती है। यानि मौजूदा खाद्यान्न संकट से प्रभावित होने वाले बच्चे आगे भी इसकी मार झेलते रहेंगे और उनकी उत्पादकता अपेक्षाकृत कम रहेगी।
खाद्यान्न की अनुपलब्ध्ता से कुपोषण की समस्या दुनिया के एक बड़े हिस्से में गहराती जा रही है। खास तौर पर विकासशील देशों की हालत तो और भी खराब है। अनाज के टोटा से जो लोग जूझ रहे हैं उनकी अगली पीढ़ी पर भी इसका दुष्परिणाम पड़ रहा है। गर्भवती महिलाओं को आवश्यक भोजन नहीं मिल पाने की वजह से उनके गर्भ में पल रहे बच्चे को समुचित पोषण नहीं मिल पा रहा है। इस वजह से कई बच्चे तो पैदा होते ही दम तोड़ दे रहे हैं। जो बच रहे हैं वे कुपोषण के जाल में फंसने को अभिशप्त हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मुताबिक भारत, यमन और तिमोर के में बच्चों की दशा बेहद चिंताजनक बनी हुई है।
इन देशों में पांच साल तक की उम्र के बच्चों में से चालीस फीसद बच्चों का वजन तय मानक से कम है। अगर बात भारत की हो तो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थय सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में तीन साल से कम उम्र के 46 फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि ऐसे बच्चों को बचपन की बीमारियों से जान गंवाने का खतरा सामान्य बच्चों की तुलना में आठ गुना अधिक होता है। वहीं दूसरी तरफ तो वैसे लोगों की एक तगड़ी जमात है जिनके बच्चे मोटापा की मार झेल रहे हैं। यह कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो लोग दाने-दाने को मोहताज हैं तो दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जो खा-खाकर परेशान हैं।
हिमांशु शेखर जी आपका लेख प्रसंसनीय है आपको हार्दिक बधाई ………