क्यों हैं हमारे समाज में इतने अतुल सुभाष ?

भाषणा बंसल गुप्ता

अतुल सुभाष का केस हमारे पूरे समाज के मुंह पर जोरदार तमाचा है। यही सुनते आए हैं कि विवाह एक सामाजिक संस्था है मगर अब इस संस्था का संपूर्ण ढांचा चरमरा रहा है। इस संस्था की विवाह रूपी गिरती हुई इमारत को अगर समय रहते नहीं संभाला गया तो पता नहीं कितने अतुल सुभाष और उनके परिवार तबाह हो जाएंगे।

जैसे ही अतुल सुभाष का वीडियो सामने आया, पूरा देश सन्न रह गया लेकिन जिन पर पहले ही ये सब बीत चुका था, उनके जख्म भी हरे हो गए। अभी ताजा मामला दिल्ली के पुनीत खुराना का है। इसी तर्ज पर यूपी में पुष्कर जायसवाल ने अपनी पत्नी से दुखी होकर आत्महत्या कर ली। आगरा में भी एक व्यक्ति ने खुद को गोली मार दी। दिल्ली में भी एक वकील अपनी तलाक की कार्रवाईयों से इतना तंग आ चुका था कि उसने अपने लाइसेंसी रिवॉल्वर से अपने जान ले ली।

हैदराबाद की एक लड़की प्रत्युषा छल्ला का वीडियो भी काफी वायरल हो रहा है जिसमें उसने अपनी भाभी की ज्यादतियों के बारे में बताया। हैरानी की बात ये है कि उसकी भाभी ने केवल दस दिन बाद ही उनके खिलाफ धारा 498 के अंतर्गत मुकदमा दर्ज करा दिया था। अब पांच साल हो चुके हैं, उसका पूरा परिवार झूठे केस को भुगत रहा है।

जयपुर के रमाकांत शर्मा बाकायदा अतुल सुभाष को अमर जवान ज्योति, दिल्ली में श्रद्धांजलि देने पहुंचे। उन पर मेंटेनेंस और घरेलू हिंसा का केस दर्ज है। दीवांकर नाम का एक और पुरुष है, जिसकी दूसरी पत्नी ने उस पर घरेलू हिंसा का केस दर्ज किया हुआ है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया, प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया पर ऐसे अनेक उदाहरणों की भरमार है।

शादी में मनमुटाव होना, संबंधों में बहस और लड़ाई-झगड़ा होना आम बात है लेकिन कुछ पत्नियां इसे अपना हथियार बना लेती हैं और ठान लेती हैं कि जब तक ससुराल वालों को तबाह नहीं कर देंगी, चैन से नहीं बैठेंगी। पति ही नहीं, उसके मां-बाप, भाई-बहन, यहां तक कि रिश्तेदारों को भी नहीं बख्शतीं। कुछ लड़कियां तो उसके सहकर्मियों तक को फोन करके उनकी बदनामी करने से बाज नहीं आतीं। पड़ोसियों को फोन करके झूठे किस्से बताती हैं ताकि ससुराल वालों की इतनी बदनामी हो कि वो कहीं मुंह न दिखा पाएं।

डिटेक्टिव गुरू के नाम से मशहूर प्राइवेट डिटेक्टिव राहुल राय गुप्ता का कहना है,  “इसका सबसे बड़ा कारण शादी से पहले जांच-पड़ताल न करना है। जयपुर वाला केस भी इसीलिए हुआ क्योंकि उन्होंने लड़की की कोई छानबीन नहीं की। अगर उन्होंने पता किया होता तो वो शादी हरगिज नहीं होती क्योंकि उस लड़की की पहले भी कई शादियां हो चुकी थीं। आज का जमाना ऐसा नहीं है कि किसी के कहे पर विश्वास कर लिया जाए। रिश्ता पक्का करने से पहले आपको पूरी जानकारी होनी चाहिए कि लड़की का परिवार कैसा है। लोग शादी से जुड़ी हर बात पर बारीकी से ध्यान देते हैं लेकिन असली काम नहीं करते जो है, शादी से पहले जांच करना। अतुल सुभाष के केस में ये बात निकलकर आई कि उसकी पत्नी शादी करना ही नहीं चाहती थी।  अगर उन्होंने गहराई से छानबीन की होती तो पता चल जाता कि वो शादी की इच्छुक नहीं है। इसलिए मैं हमेशा कहता हूं कि शादी से पहले जब तक पूरी तहकीकात न हो जाए, रिश्ता पक्का मत करो। इससे शादी सफल होने की संभावना बनी रहती है क्योंकि बहुत सारी चीजें पहले ही साफ हो जाती हैं जो दूसरा पक्ष आपको नहीं बताता।”

तो क्या हमारी न्यायिक व्यवस्था का इसमें कोई कसूर नहीं है? इस सवाल के जवाब में डिटेक्टिव राहुल राय गुप्ता कहते हैं, “अगर महिला पति पर झूठे आरोप भी लगाती है तो उसके मायने होते हैं। पति को ये साबित करने में सालों लग जाते हैं कि इल्जाम सच नहीं हैं। तलाक के केसों में इतना ज्यादा टाइम लगता है कि लोगों के कैरियर तक खराब हो जाते हैं। मैंने ऐसे बहुत-से केस देखे हैं, जहां पूरे प्रूफ होते हैं कि केस झूठा है, लड़की झूठ बोल रही है लेकिन फिर भी तारीख पर तारीख चलती रहती है, केस खत्म नहीं होता। मेंटेनेंस केस में साबित करना होता है कि लड़की नौकरी करती है। सारे सबूत होने पर भी जज महीने की रकम तय कर देते हैं जो पति को देनी पड़ती है। ये बात बिल्कुल समझ नहीं आती। एक तरफ तो हम बराबरी की बात करते हैं. दूसरी तरफ महिलाएं पूरा खर्चा पति से लेना चाहती हैं। हमारे कानून में प्रावधान है कि अगर तलाक का केस चल रहा है और पत्नी के संबंध किसी और व्यक्ति के साथ हैं तो उसका मेंटेनेंस नहीं बनता है। हम कितने ही ऐसे केसेज में पूरे प्रूफ देते हैं अफेयर के लेकिन फिर भी कोर्ट उस पर विचार नहीं करती।”

हमारा समूचा समाज भी इसके लिए कम दोषी नहीं है। ऐसा नहीं है कि केवल पुरुष ही पीड़ित हैं। आज भी महिलाओं को ससुराल में मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। बहुत-से ऐसे परिवार हैं, जहां घर की महिलाओं की हैसियत केवल चूल्हा-चौका संभालने और पुरुषों की तीमारदारी करने तक ही सीमित है। जब दूसरी महिलाएं उन दुखी महिलाओं को देखती हैं तो उनके मन में पुरुषों और ससुराल वालों के प्रति एक अजीब सी नफरत घर कर लेती है जो बाद में एलिमनी और मेंटेनेंस की मांग के रूप में बाहर निकलती है। अगर सामाजिक  ढांचे में लिंग भेद खत्म कर दिया जाए तो शायद माहौल कुछ अच्छा हो सकता है। अगर हम नहीं चाहते कि और अतुल सुभाष हों हमारे समाज में, तो हमें अपने पूरे ढांचे को दुबारा से व्यवस्थित करना होगा, उस पर विचार करना होगा कि क्या गलत हो रहा है, कहां सुधार की गुंजाइश है। तो ही शायद हम ऐसी घटनाओं को होने से रोक सकते हैं।


भाषणा बंसल गुप्ता

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