-मनीष सिंह-
सब कहते मुझको मजदूर।
धनी हूँ मैं परिश्रम का ,
पर हालत से हूँ मजबूर।
बसाए मैंने शहर कई ,
कितनी ही बनाई मीनारें।
किस्मत ही अपनी बना न सका ,
मिलीं राह में दीवारें।
नेता के भाषण में रहता ,
सरकारी कागज़ में रहता।
क़ानून बने कई मेरे लिए ,
फिर भी हर ज़ुल्म को मैं सहता।
गर्मी बरसात में काम करूँ ,
तब मुश्किल से पेट भरूँ ,
शॉपिंग मॉल हैं बनाए जो,
उनमें खुद ही जान सकूँ।
सर्दी में भी बहे पसीना मेरा ,
और मालिक मेरा मौज करे।
जान भी जाए मेरी अगर ,
तो भी कोई ना आह भरे।
करके मेहनत भी हूँ बदहाल ,
जाने ये कैसा माज़रा है।
हे ईश्वर करो इन्साफ ,
अब बसते राही आसरा है