भारत छोड विदेशों में बसना चाहते नवजवान

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मैकाले-अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का परिणाम
मनोज ज्वाला
२० दिसम्बर २०१६ के हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित उसके एक
सर्वेक्षण पर गौर करने की जरुरत है , जिसमें बताया गया है कि हमारे देश
के पढे-लिखे और शहरी नवजवानों में से आधे से अधिक ऐसे हैं , जो अपने भारत
देश को पसंद नहीं करते ; वे विदेशों में जकार बस जाना चाहते हैं । उनमें
से ७५% युवाओं का कहना है कि वे किसी तरह बे-मन से और मजबुरीवश भारत में
रह रहे हैं । ६२.०८ % युवतियों और ६६.०१ % युवाओं का मानना है कि इस देश
में उनका भविष्य ठीक नहीं है , क्योंकि यहां अच्छे दिन आने की सम्भावना
कम ही है । उनमें से ५०% का मानना है कि भारत में किसी महापुरुष का अवतरण
होगा तभी हालात सुधर सकते हैं , अन्यथा नहीं ; जबकि ४०% युवाओं का मानना
है कि उन्हें अगर इस देश का प्रधानमंत्री बना दिया जाए , तो वे पांच साल
में इस देश का काया-पलट कर देंगे ।
अखबार का यह सर्वेक्षण बिल्कुल सही है , बल्कि मेरा तो यहां तक
मानना है कि और व्यापक स्तर पर अगर सर्वेक्षण किया जाता , तो देश छोडने
को तैयार युवाओं का प्रतिशत और अधिक बढा हुआ दिखता । यह सर्वेक्षण तो
सिर्फ शहरों तक सीमित है , जबकि अपने देश में गांवों पर भी तेजी से शहर
छाते जा रहे हैं , गांव के लोगों की सोच भी शहरी सोच से प्रभावित हो रहे
हैं । खास कर युवाओं में अनुकरण और पलायन की प्रवृति ज्यादा बढ रही है ।
गौर कीजिए कि देश छोडने को तैयार ये युवा पढे-लिखे हैं और शहरों
में पले-बढे हुए हैं । ये किस पद्धति से किस तरह के विद्यालयों में क्या
पढे-लिखे हैं और किस रीति-रिवाज से कैसे परिवारों में किस तरह से पले-बढे
हैं , यह ज्यादा गौरतलब है । किन्तु यह जानने के लिए हमें अपना दिमाग
ज्यादा खपाने की जरूरत नहीं है । विद्यालय सरकारी हों या गैर सरकारी ,
सबमें शिक्षा की पद्धति एक है और वह है मैकाले-अंग्रेजी पद्धति । शिक्षा
का माध्यम हिन्दी-अंग्रेजी कोई भी भाषा हो , पद्धति सबकी एक ही है-
मैकाले-अंग्रेजी पद्धति ; क्योंकि इसी पद्धति को सरकारी मान्यता प्राप्त
है , सरकार का पूरा तंत्र इसी पद्धति की शिक्षा के विस्तार में लगा हुआ
है । वैसे अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालय सबसे अच्छे माने जाते हैं । गैर
सरकारी निजी क्षेत्र के अधिकतर विद्यालय अंग्रेजी माध्यम के ही हैं ।
शहरों में ऐसे ही विद्यालयों की भरमार है और जिन युवाओं के बीच अखबार ने
उपरोक्त सर्वेक्षण किया उनमें से सर्वाधिक युवा ऐसे ही ‘उत्कृष्ट’
विद्यालयों से पढे-लिखे हुए हैं । अब रही बात यह कि इन विद्यालयों में
आखिर शिक्षा क्या और कैसी दी जाती है , तो यह इन युवाओं की उपरोक्त सोच
से ही स्पष्ट है । जाहिर है उन्हें शिक्षा के नाम पर ऐसी-ऐसी डिग्रियां
दी जाती हैं , जिनके कारण वे या तो निकम्में बेरोजगार आरामतलबी
महात्वाकांक्षी स्वार्थी बन असंतोष अहंकार खीझ पलायन जैसी मानसिक
बीमारियों एवं हीनता-बोध से ग्रसित हो जाते हैं , अथवा कमाने-खाने भर
थोडे-बहुत ज्ञान-हुनर हासिल कर भी लेते हैं , तो उसके परिणाम-स्वरुप
स्वभाषा व स्वदेश के प्रति ‘नकार’ भाव से पीडित और अमेरिका युरोप आदि
विदेशों की ओर उन्मुख हो जाते हैं ।
प्रसंगवश मुझे अहमदाबाद में प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति
का एक गुरुकुल चलाने वाले प्रयोगधर्मी शिक्षाविद उत्तम भाई की वो बातें
याद आ रही हैं , जो उन्होंने पिछले साल पुनरुत्थान विद्यापीठ नामक एक
स्वैच्छिक संस्था की ओर से वहां आयोजित शिक्षा-विषयक एक संगोष्ठी के
दौरान व्यक्तिगत भेंटवार्ता में कही थी और जिसकी चर्चा वे प्रायः किया
करते हैं । वे कहते हैं- “ जहां डिग्री है , वहां अंग्रेज है , हर
डिग्रीधारी अपने मन-मिजाज से अंग्रेज है और जिसके पास जितनी बडी डिग्री
है , वह उतना ही ज्यादा अंग्रेज है ”। अपने बच्चों को डिग्रियां देने
वाले आधुनिक स्कूलों से निकाल कर उन्हें घर में ही अनौपचारिक शिक्षा देने
के पश्चात पिछले दस वर्षों से ‘डिग्री-मुक्त’ गुरुकुल- हेमचन्द्राचार्य
संस्कृत पाठशाला चलाने वाले उत्तम भाई का मानना है कि ब्रिटिश जमाने से
हमारे देश में कायम मैकाले-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति यहां के युवाओं को
देश-द्रोही , राष्ट्र-द्रोही तथा धर्म-संस्कृति-विरोधी और भ्रष्टाचारी
बना रही है । हिन्दुस्तान टाइम्स के उपरोक्त सर्वेक्षण से न केवल उत्तम
भाई की यह उक्ति सत्य प्रमाणित हो रही है , बल्कि हमारी मौजूदा
शिक्षा-पद्धति के जनक थामस मैकाले की कुटिल कूटनीति भी पूरे रौब से फलित
होती दीख रही है ।
मालूम हो कि थामस विलिंग्टन मैकाले कोई शिक्षा-शास्त्री नहीं था
बल्कि एक षड्यंत्रकारी था , जिसने भारत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की
जडें जमाने की नीयत से भारत की धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-आधारित भारतीय
शिक्षा-पद्धति की जडें उखाड कर इस मौजूदा शिक्षा-पद्धति को प्रक्षेपित
किया था , जो आज भी उसी रूप में कायम है । ३० अक्तूबर सन १९३० को लन्दन
के रायल इंस्टिच्युट आफ फौरन अफेयर्स के मंच से महात्मा गांधी ने जो कहा
था कि अंग्रेजी शासन से पहले भारत की शिक्षा-व्यवस्था इंग्लैण्ड से भी
अच्छी थी , उस पूरी व्यवस्था को सुनियोजित तरीके से समूल नष्ट कर देने के
पश्चात ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की जरुरतों के अनुसार उसके रणनीतिकारों ने
लम्बे समय तक बहस-विमर्श कर के मैकाले की योजनानुसार यह शिक्षा-पद्धति
लागू की थी । मैकाले की योजना यही थी, जिसके बावत उसने ब्रिटिश
पार्लियामेण्ट की ततविषयक समिति के समक्ष कहा था “ हमें भारत में ऐसा
शिक्षित वर्ग तैयार करना चाहिए , जो हमारे और उन करोडों भारतवासियों के
बीच , जिन पर हम शासन करते हैं उन्हें समझाने-बुझाने का काम कर सके ; जो
केवल खून और रंग की दृष्टि से भारतीय हों , किन्तु रुचि , भाषा व भावों
की दृष्टि से अंग्रेज हों ”।
भारत छोड विदेशों में बस जाने को उतावले इन यवाओं ने
पूरी मेहनत व तबीयत से मैकाले शिक्षा-पद्धति को आत्मसात किया है , ऐसा
समझा जा सकता है । यहां प्रसंगवश मैकाले के बहनोई- चार्ल्स ट्रेवेलियन
द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की एक समिति के समक्ष ‘भारत में
भिन्न-भिन्न शिक्षा-पद्धतियों के भिन्न-भिन्न परिणाम’ शीर्षक से
प्रस्तुत किये गए एक लेख का यह अंश भी उल्लेखनीय है कि “ मैकाले
शिक्षा-पद्धति का प्रभाव अंग्रेजी राज के लिए हितकर हुए बिना नहीं रह
सकता, … हमारे पास उपाय केवल यही है कि हम भारतवासियों को युरोपियन ढंग
की उन्नति में लगा दें …..इससे हमारे लिए भारत पर अपना साम्राज्य कायम
रखना बहुत आसान और असंदिग्द्ध हो जाएगा ”। ऐसा ही हुआ , किन्तु इतना ही
नहीं हुआ , जितना मैकाले का लक्ष्य था ; बल्कि उसकी योजना तो लक्ष्य से
ज्यादा ही सफल रही ।
हमारे देश के मैकालेवादी राजनीतिकारों ने अंग्रेजों के
औपनिवेशिक शासन की समाप्ति के बाद भी उनकी अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति
को न केवल यथावत कायम ही रखा , बल्कि उसे और ज्यादा अभारतीय रंग-ढंग में
ढाल दिया । धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-लक्षी प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति को
अतीत के गर्त में डाल कर शिक्षा को उत्पादन-विपणन-मुनाफा-उपभोग-केन्द्रित
बना देने और उसे नैतिक सांस्कृतिक मूल्यों से विहीन कर देने तथा
राष्ट्रीयता के प्रति उदासीन बना देने का ही परिणाम है कि हमारी यह युवा
पीढी महज निजी सुख-स्वार्थ के लिए अपने देश-राष्ट्र से विमुख हो जाना
पसंद कर रही है , उसे विदेशों में ही अपना भविष्य दीख रहा है । माना कि
हमारे देश में तरह-तरह की समस्यायें हैं , किन्तु इनसे जुझने और इन्हें
दूर करने के बजाय पलायन कर जाने अथवा कोरा लफ्फाजी करने कि हमें
प्रधानमंत्री बना दिया जाए तो हम देश को सुंदर बना देंगे , अति
महात्वाकांक्षा-युक्त मानसिक असंतुलन का ही द्योत्तक है । लेकिन आधे से
अधिक ये शहरी युवा मानसिक रुप से असंतुलित नहीं हैं , बल्कि असल में वे
पश्चिम के प्रति आकर्षित हैं और इसके लिए हमारे देश की चालू
शिक्षा-पद्धति का पोषण करने वाले हमारे नीति-नियंता जिम्मेवार हैं । यह
‘युरोपीयन ढंग की उन्नति’ के प्रति बढते अनावश्यक आकर्षण का परिणाम है ।
इस मानसिक पलायन को रोकने के लिए जरुरी है कि हम अपने बच्चों को हमारे
राष्ट्र की जडों से जोडने वाली और संतुलित समग्र मानसिक विकास करने वाली
प्राचीन भारतीय पद्धति से भारतीय भाषाओं में समस्त ज्ञान-विज्ञान की
शिक्षा देने की सम्पूर्ण व्यवस्था कायम करें ।

• मनोज ज्वाला ;

27 COMMENTS

  1. मैं आर. सिंह से… कहना चाहता हूँ, कि, आपका,….
    (१) *पलायन* शब्द हीन मानसिकता का परिचायक मानता हूँ।
    (२) वैसे, कारण आप खोज कर आलेख बनाइए।
    (३) कोई न कोई प्रदेश किसी विशेष प्रवृत्ति में आगे होगा ही।
    (४) सारे प्रदेश सभी रुझानों में समान होने की अपेक्षा करना तर्कसम्मत नहीं।

  2. मैं स्वयं मैकॉले-मानस से इतना पीड़ित नहीं रहा हूँ जितना कि खाते पीते और हगते उन मैकॉले-मानस के पिछलगू तिलचिट्टों से जो आज अपनी भाषा, दर्शन, संस्कृति भुला अपनी मुकुलित राष्ट्रीयता को भी दाव पर लगाए हुए हैं| प्रकृति ने गंदगी और बीमारी फैलाते तिलचिट्टों के साथ सुव्यवस्थित चींटियों की रचना भी की है तो हम तिलचिट्टों की मनोवृति लिए स्वच्छ-भारत अभियान अथवा भारत-पुनर्निर्माण में कैसे योगदान दे सकते हैं? हमें नीतिगत प्रयासों से न केवल फिर से समाज में रहते इन तिलचिट्टों को बल्कि चिरकाल से खोए हुए मैकॉले-मानसों को भी मुख्य राष्ट्रीय विचारधारा में लाना होगा क्यों न हमें वस्तुतः एक ऐसे समानांतर समाज की रचना करनी पड़े जहां इक्कीसवीं शताब्दी की वैश्विकता के लाभप्रद तत्वों से लाभान्वित देशानुकूल वातावरण में भारतीय जीवन का अनुसरण किया जा सके|

    • जो भी और जैसा भी प्रयास करना पडे , करिए । यही तो मेरी भी अपेक्षा है ।

  3. देखता हूँ कि मनोज ज्वाला जी को संबोधित करती मेरी टिप्पणी लेखक के ध्यान से वंचित रह गई है अन्यथा मैकॉले शिक्षा-पद्धति पर निष्क्रिय-मन हो रहे यहाँ निरर्थक वाद-विवाद में सांप के नियंत्रण पर, न कि उसकी लकीर पर चर्चा होती| देश-प्रतिकूल शिक्षा-पद्धति व वैश्विक परिस्थितियों के बीच सामान्य भारतीयों को पीछे छोड़ती अर्थव्यवस्थाओं से जूझने के स्थान पर पहले से ही युगपुरुष नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में केंद्र शासन देश-अनुकूल नीतिगत योजनाओं द्वारा विकास का अभियान चलाए हुए है| आज तथाकथित स्वतंत्रता के सत्तर वर्षों बाद देश की दुर्गति देख किसी भी राष्ट्रवादी भारतीय को देश में जन्म लेने पर शर्मिंदा होना चाहिए अन्यथा उसका व्यक्तिगत गर्व उसे राष्ट्रद्रोही राजनीतिक तत्वों की गोद में बिठाए हुए है!

    प्रवक्ता.कॉम पर लेखक द्वारा सितम्बर १९, २०१६ को प्रस्तुत लेख “मैकॉले-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति से भारतीय भाषाओं की दुर्गति” पर अपनी टिप्पणी को दोहरा रहा हूँ ताकि लेखक विषय को नई दिशा दे सके|

    “इतिहास इस बात का साक्षी है कि विदेशी आक्रमणकारी और धूर्त ठग प्रायः भारतीय उप महाद्वीप के मूल निवासियों में बुद्धिजीवियों को अपने संरक्षण में ले उनके सहयोग से शासन करते चिरकाल तक सत्ता में बने रहते थे। बहादुरशाह ज़फर के अंतिम जीवन में कही उनकी पंक्तियाँ, “दो गज ज़मीन भी न मिली कूए यार में” भारतीयों के दिलों में भले ही राष्ट्रप्रेम न जगाएं, उन्हें रोमांचित अवश्य कर देती हैं। कैसी विडंबना है कि भारतीय संपदा और संस्कृति लूट घर लौट गए उन धूर्त ठगों के प्रतिनिधि कार्यवाहक व उनकी सेवा में लगे बुद्धिजीवी आज भी कालांतर में मूल निवासियों में पूर्णतया विलीन उन आक्रमणकारियों के वंशज और मातृभूमि पर अन्य सहचर नागरिकों को शोषित किये हुए हैं।

    मुझे कोई अचंभा नहीं कि आज भी मैकॉले को अपनी वेबसाइट पर बड़े गर्व से याद करते अजमेर स्थित मेयो कालेज वहां अपने उत्तम विद्या संबंधी कार्यकलाप की प्रशंसा करता है। और मैकॉले को सदैव दोष देते निष्क्रिय मन स्वयं हम अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति, अपनी भाषाओं को नष्ट किये जा रहे हैं। क्यों न राष्ट्रप्रेम में रमें बुद्धिजीवी देश भर में ऐसी संस्थाएं स्थापित करें जहां समाज की समस्याओं पर विचार करते उनका समाधान ढूंढा जाए? भारत में एक अरब पच्चीस करोड़ जनसमूह को एक डोर में संगठित करती एक सामान्य भाषा की महत्वता और आवश्यकता पर कोई दो विचार नहीं हो सकते और इस लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हमें प्रस्तावित राष्ट्रभाषा को रुचिकर व उपयोगी बनाने हेतु उसमें जीवन के प्रत्येक विषय को परिभाषित करते विभिन्न शब्दकोशों की बड़ी कुशलता से रचना की जानी चाहिए। अभी तो सर्वसम्मति से भारतीय मूल की सभी भाषाओं में से एक सामान्य राष्ट्रभाषा का सह गर्व चयन करना होगा!”

    • दोष मैकाले का नहीं है बन्धु , हमारे नीति-नियन्ताओं ने ही उसकी रीति-नीति-पद्धति को देश पर थोपे रखा है । असल में देश को आजादी मिली ही कहां है ? मैकाले के मानस-्पुत्रों से शासित होते रहे हैं हम । मोदी जी अपवाद हो सकते हैं , लेकिन पूरा का पूरा शासनतंत्र आज भी मैकाले-पुतों के हाथ में ही है ।

      • अगर इस विचार धारा के अनुसार मोदी जी के बारे में भी पीछे मुड़ कर देखिएगा,तो वे भी अपवाद नहीं निकलेंगे.शिक्षा राज्य के अंदर आता है,अतः राज्य इसके मामले में स्वतन्त्र हैसियत रखता है.जहाँ तक मुझे ज्ञात है,मोदीजी ने इतने लंबे काल तक गुजरात में एकछत्र शासन करते हुए भी कोई क्रांतिकारी कदम नहीं उठाया.प्रधान मंत्री के रूप में तो उनके पास बहाना है कि शिक्षा राज्य के अन्तर्गत आता है,केंद्र इसमें कुछ नहीं कर सकता.

      • आप बार बार मैकॉले चालीसा लिखते, पढ़ते, और उसे दोहराते हैं तो मुझे आश्चर्य नहीं आप अंग्रेजी भाषा से उत्पन्न दुर्गति के लिए मैकॉले को दोष नहीं देगें| मैं नहीं पूछूँगा कि कितने हैं नीति-नियंता और मैकॉले के मानस-पुत्र और उनके हाथ में पूरा शासनतंत्र कैसे आया क्योंकि ऐसा कर मैं केवल आपकी मैकॉले चालीसा को ही तूल देता दिखाई दूंगा| हमने मुट्ठी भर फिरंगियों को अपने सिर पर बिठाया तो आज हमारे बीच रहते उनके अल्पसंख्यक मानस-पुत्रों से कैसा वैर? मैं दोष आपको दूंगा क्योंकि संगठन के अभाव के कारण आप बहुसंख्यक नहीं, बिलकुल अकेले हैं उस हिरन की तरह जो चार शेरों का शिकार बना हुआ है| प्रकृति ने हमें शेर नहीं तो भैंसा बने अवश्य शेरों को खदेड़ने का पाठ पढ़ाया है| मेरी टिप्पणियों को ध्यान से पढ़िए और उन्हीं के संबंध में अपनी प्रतिक्रिया दीजिये| धन्यवाद|

        • आपकी बातों से सहमत हूं । संगठन के अभाव में मैं (हम) अल्पसंख्यक हूं (हैं) । संगठन बने इसी कोशिश में लगा हुआ हूं । आपसे भी अपेक्षा है ।
          सधन्यवाद !

      • विषय की नीरसता को भंग करते अक्तूबर २६ २०१० को जगदीश्वर चतुर्वेदी जी के लिए लिखी अपनी टिप्पणी को संपादित कर यहाँ फिर से प्रस्तुत करने का दुस्साहस करता हूँ|

        “जैसे ही हमारी दृष्टि रमश सिंह जी द्वारा प्रस्तुत फिर से युगपुरुष मोदी जी को लेकर उनकी एक और नई टिप्पणी पर गई, हमें तुरंत एक चुटकुला याद आ गया| शादी के दिन दुल्हे ने अपने मित्र का दुशाला ओड़ा हुआ था| मित्र मुख्य द्वार पर खड़ा आमंत्रित-गण द्वारा दुल्हे का पूछने पर कहता कि दुल्हा हाल में है और दुशाला मेरा है| जब बात दुल्हे तक पहुंची तो उसने इस पर आपत्ति जताई| जब फिर किसी ने दुल्हे के बारे में पूछा तो मित्र ने कहा दुल्हा हाल में है और दुशाला उसी का है| लेकिन जब दुल्हे की ओर से इस पर भी आपत्ति हुई तो मित्र ने अन्य मेहमानों से कहा कि दुल्हा हाल में है और दुशाला पता नहीं किसका है| इन टिप्पणियों में युगपुरुष मोदी जी न हुए रमश सिंह जी का दुशाला हो गया!”

        मैं पूछूँ रमश सिंह जी ने जो टोपी और मफलर अरविन्द केजरीवाल जी को ओढ़ाया है और वो झाड़ू उन्हें थमाया है उनका क्या हुआ?

        • निरसता अवश्य भंग हुई , किन्तु इस उद्धरण को यहां उद्धृत करने का आशय समझ में नहीं आया । कृपया स्पष्ट करें ।

  4. *भारतीय बॉन्साई पौधे* नामक (आलेख हमारे भारतीय उथले विचारकों के विषय में लिखा गया है।) आलेख कि निम्न कडि चटका कर देख लीजिए। टिप्पणी उसी आलेख पर करें।

    https://www.pravakta.com/the-bonsai-plants/

    • आपने इस आलेख में पांच वर्षों पहले कुछ लिखा था. क्या आज भी परिस्थितियां वही हैंया कुछ बदला है? गुजरात में मोदी जी का शासन इस शताब्दी के प्रारम्भ से हीं रहा है.इस सब प्रश्नों काउत्तर अगर गुजरात के सन्दर्भ में देखा जाये,तो आज आपका उत्तर क्या होगा? यह प्रश्न इसलिए आवश्यक है,क्योंकि सबसे ज्यादा पलायन गुजरात से ही है.

      • सिंह साहब -अनुरोध:
        आलेख पढकर उसी का संदर्भ देकर, टिप्पणी भी वहीं करें। आज भी आलेख समयोचित मानता हूँ।

      • सिंह साहब, (१) पढकर टिप्पणी दीजिए।
        (२) शायद ही कोई प्रमुख प्रश्न बचेगा, जिस को आवरित ना किया हो।
        (३) हीन ग्रंथि को दर्शाते प्रश्न भी पढ पाएंगे। ऐसे और भी १०-१५ आलेख तो होंगे।
        (४) पर इसे आपने पढा होगा ही; ऐसा मानता हूँ।
        (५)शायद टिप्पणी करने में संकोच हो सकता है।

        • आप प्रश्नों से क्यों भागते हैं?मैंने लिंक में दिए गए पूरे आलेख को पढ़ कर हीं टिपण्णी की थी.आपके कहने से मैंने उसे दोबारा पढ़ा,फिर भी प्रश्न अपनी जगह पर हीं है.हमेशा दूसरों से प्रशंसा और केवल हाँ में हाँ मिलाने की उम्मीद न रखिये.कुछ प्रश्न अवश्य तीखे होते है.उनका उत्तर देना भी सीखिये.ऐसे प्रवक्ता आपके रूतबे का ख़ास ख्याल रखता है.इसलिए मेरी बहुत सी टिप्पणियां अप्रकाशित हीं रह जाती हैं.इस बार भी यही हो रहा है.आपके हर एक टिपण्णी पर मैं समुचित टिपण्णी कर चूका हूँ,पर वे अभी इस पृष्ठ पर नहीं दिखी.

          • आप विषय पर क्रमानुसार. (१, २, ३,…) प्रश्न पूछिए।
            मैं अपनी ओर से पूरा प्रयास करूँगा उत्तर देनेका।

          • अभी केवल एक प्रश्न. सबसे ज्यादा पलायन गुजरात से हीं क्यों है?

          • (१) *पलायन* शब्द हीन मानसिकता का परिचायक मानता हूँ।
            (२) वैसे, कारण आप खोज कर आलेख बनाइए।
            (३) कोई न कोई प्रदेश किसी विशेष प्रवृत्ति में आगे होगा ही।
            (४) सारे प्रदेश सभी रुझानों में समान होने की अपेक्षा तर्कसम्मत नहीं।

  5. भारतीयों की अंग्रेज़ियत से और पश्चिमी वादों से, अतिरेकी मात्रा में, प्रभावित वैचारिकता भी मॅकाले शिक्षा का ही दूरस्थ परिणाम है। इसके अंतर्गत आप भारतीयता से शत्रुता जगानेवाले, संघर्षवादी, खोखले (अ)भारतीय विचारक भी पाएंगे।
    संक्षेप में, इस वैचारिकता के प्रभाव स्तर, अनुक्रमानुसार मुझे निम्न लगते हैं।
    (१)हमारे बीच एक राष्ट्रीय भाषा का अभाव,
    (२)और अंग्रेज़ी का अतिरेकी प्रभाव
    (३) विचारों में अंग्रेजियत का प्रभाव
    (४) पश्चिमी वादों के संघर्षवादी आदर्शों से हर समस्या का आकलन और समाधान ढूँढना।

    ऐसे अनेक स्तर अनुक्रम की वरीयता से गिनाए जा सकते हैं।
    विषय स्वतंत्रता से चिन्तनीय है।
    (ये टिप्पणी का नहीं पूरे लेख का विषय है।)
    मेरा *भारतीय बॉन्साई पौधे* नामक आलेख देख लेने की कृपा कीजिए।
    आगे उसकी कडि भेजता हूँ।
    इस विषय से संबंधित इसी प्रवक्ता में मेरे द्वारा (२०+) आलेख डाले गए हैं।
    सारे आलेख दीर्घ अध्यवसाय का प्रतिफल है। आप की टिप्पणी उन आलेखों पर बहुत बहुत उपयोगी होंगी।

  6. प्राथमिक पाठशाला में हमें शब्द को वाक्य में प्रयोग करना सिखाया गया था और यहाँ हिंदुस्तान टाइम्स से लिए गए वाक्य, “यहाँ अच्छे दिन आने की सम्भावना कम ही है” को मनोज ज्वाला जी अपने लेख में दोहरा अनायास “मैकाले-वंशियों” का साथ दे रहे हैं| इस वाक्य के प्रयोग से युवा पाठकों को कोई लाभ तो छोड़ो, “भारत देश को पसंद नहीं करते” हतोत्साहित वे युगपुरुष मोदी जी के बारे में अवश्य सोचते हैं| इसका परिणाम? चंदामामा में बेताल की कहानियां!

  7. प्राथमिक पाठशाला में हमें शब्द को वाक्य में प्रयोग करना सिखाया गया था और यहाँ हिंदुस्तान टाइम्स से लिए गए वाक्य, “यहाँ अच्छे दिन आने की सम्भावना कम ही है” को मनोज ज्वाला जी अपने लेख में दोहरा अनायास “मैकाले-वंशियों” का साथ दे रहे हैं| इस वाक्य के प्रयोग से युवा पाठकों को कोई लाभ तो छोड़ो, “भारत देश को पसंद नहीं करते” हतोत्साहित वे युगपुरुष मोदी जी के बारे में अवश्य सोचते हैं| इसका परिणाम? चंदामामा में बेताल की कहानियां!

  8. लेख में शिक्षा व्यवस्था के बारे में गंभीर मुद्दे उठाये गए हैं!इनसे इंकार नहीं किया जा सकता! लेकिन स्थिति इतनी निराशाजनक नहीं है! मेरे विचार में वास्तविकता यह है कि आज हमारे युवाओं को अपनी क्षमता और प्रतिभा का पूरा दोहन करने के अवसर पहले से अधिक उपलब्ध हैं! और इसमें देशों की सीमायें भी बाधक नहीं हैं! वैश्वीकरण ने भी इसको बढ़ावा दिया है! लेकिन बाहर रहने का सबसे बड़ा आकर्षण है वहां की व्यवस्थित जीवन शैली!अपने यहाँ हर छोटी बड़ी चीज के लिए संघर्ष करना पड़ता है जबकि विदेशों में पैसा खर्च करके समस्त सुविधाएँ सुगमता से मिल जाती हैं! उस पर हर कदम पर भ्रष्टाचार! प्रशासनिक मशीनरी आम आदमी को गाजर मूली से अधिक नहीं समझती है! अगर कुछ छोटी-२ बातों को सुधार दिया जाये तो आज भी नौजवान के दिलों में अपने देश के प्रति प्रेम की कमी नहीं है!आखिर ये युवा ही तो हैं जो विदेशों में, सात समंदर पार भी, भारत की मेधा का लोहा मनवा रहे हैं!मैंने अमेरिका में एक संगीत के कार्यक्रम में कुछ भारतियों से बात की! उनमे से कुछ तो आधी सदी से भीज्यादा समय से वहां रह रहे थे! संगीत का कार्यक्रम रात्रि में एक बजे के बाद समाप्त हुआ तो उनमे से एक सज्जन बोले की चलो अब जन गण मन हो जाये! मैंने कहा कि आप सब अमेरिकी नागरिकता लेचुके हैं तो फिर जन गण मन क्यों? इस पर वो बोले कि राष्ट्रगीत के रूप में हमें जन गण मन के अलावा कुछ नहीं आता!क्या यह उनका भारत से लगाव नहीं दर्शाता है?

    • आपसे मैं सहमत हूं , अपने देश में जीवन-यापन थोडा कठिन है , किन्तु इसे घबरा कर अपना देश छोड देना उचित है क्या ? फिर हमारे देश की दशा ठीक करने के लिए हम उन विदेशियों को ही बुलाएं ? यही तो इस शिक्षा-पद्धति के रण्नीतिकारों का उद्देश्य था । आपने संगीत-्गायकों का जो उदाहरण दिया उससे मैं सहमत हूं । विदेशों में रह रहे भारतीय युवाओं में भारत के प्रति लगाव है , ऐसा माना जा सकता है । किन्तु भारतीय युवाओं में बकौल हिन्दुस्तान टाइम्स , बढती पलायनवादिता चिन्ताजनक नहीं है और इसके लिए हमारी यह औपनिवेशिक शिक्षा-पद्धति जिम्मेवार नहीं है ? अगर है , तो इसे देशानुकूल बनाना होगा ।

  9. यह आपकी विचार धारा है,अतः इस पर मैं कुछ ज्यादा बोलना उचित नहीं समझता ,पर कुछ प्रश्न अवश्य करना चाहूँगा.हमारे माननीय प्रधान मंत्री ने क्या यह नहीं कहा था कि मैं भारत में जन्म लेने में शर्मिंदा महसूस करता हूँ.अगर यह सत्य है,तो उन्होंने ऐसा क्यों कहा था?अगर यह शिक्षा पद्धति गलत है,तो अभी तक इसमें सुधार क्यों नहीं किया गया,जब कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार बहुत राज्यों में है और अब तो करीब तीन वर्षों से केंद्र में भी भाजपा की सरकार है? प्रवक्ता.कॉम पर बहुत ऐसे आदरणीय लेखक हैं,जो विदेशों में बसे हुए हैं,आप उनसे आग्रह क्यों नहीं करते कि वे भी इसके कारणों को ढूंढने में मदद करें?अंतिम प्रश्न क्या आपने विदेश/विदेशों में कुछ समय बिताया है?अगर हाँ ,तो आपने क्या उन देशों की विशेषता से प्रभावित नहीं हुए?

    • आदरणीय सिंह साहब !
      मेरी विचारधारा अपनी जगह है , मैं उसे किसी पर थोपना नहीं चाहता । प्रस्तुत लेख में तो मैं हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित सर्वेक्षण के आलोक में युवाओं की ‘भारत-्विमुखता’ के कारणों को रेखांकित करने की चेष्टा है । हमारे प्रधानमंत्री ने जो कहा उसका संदर्भ दूसरा था , अपनी स्थिति पर शर्म करना बुरा नहीं है , किन्तु शर्म के मारे अपनी मां को छोड देना शर्मनाक है । शिक्षा-पद्धति गलत है , यह तो सभी मानते रहे हैं- गांधी से लेकर दीनदयाल उपाध्याय और बाजपीई जी तक । किन्तु , सुधार क्यों नहीं किया गया, यही तो यक्ष-प्रश्न है , जिसकी जरूरत को मैंने रेखांकित किया है । भाजपा की सारी नीतियां और भाजपा की सभी सरकारें सब काम ठीक ही कर रही हैं , ऐसा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता है । प्रवक्ता के लिखकों अथवा अन्य किसी भी भारतीय का विदेशों में रहना चिन्ताजनक नहीं है , स्वामी विवेकानन्द भी विदेश गए थे और महर्षि अरविन्द भी ्विदेश में रह कर पढे थे । चिन्ताजनक तो यह है कि हिन्दुस्तान टाइम्स के अनुसार हमारे ६०% से अधिक शहरी युवा भारत को पसंद नहीं करते , वे विदेशों में जाना-बसना चाहते हैं ; भारतीय संस्कृति के प्रसार के लिए नहीं बल्कि पश्चिम की भोगवादी संस्कृति से आकर्षित हो कर । भारत के प्रति युवाओं की इस उदासीनता का कारण ढूंढने का मेरा आग्रह सभी भारतीयों से हैं । विदेशों की विशेषताओं से प्रभावित होने का मतलब यह कतई नहीं है कि उस प्रभाव में आकर अपना देश ही छोड दिया जाए । कल्पना कीजिए कि युवाओं में ऐसी प्रवृति अगर इसी रफ्तार से बढती गई तो फिर भारत को चाहने वाला कौन बचेगा ?
      मैं आपका पूरा परिचय जान सकता हूं क्या ?

      • मनोज ज्वाला जी, भारत छोड़ विदेशों में बसना चाहते नवजवान द्वारा देश के प्रति उनकी उदासीनता का कारण ढूँढना एक बहुत पेचीदा प्रश्न है क्योंकि कारण एक नहीं अनेक हैं और मैं समझता हूँ कि इस स्थिति का सीधा संबंध अब तक भारतीय समाज में संगठन और कुशल नेतृत्व के अभाव से है| लगभग चार दशक से विदेश में रहते मेरा व्यक्तिगत अनुभव बताता है कि यदि भारतीय समाज में कठिनाइयों को समझते उनकी व्याख्या कम, उनके उपचार अथवा समाधान को नीतिगत कार्यान्वित करने का कुशल प्रयास किया जाए तो प्रस्तुत विषय में देश विदेश का आवागमन पर्यटन बन देश की आर्थिक स्थिति को ही लाभ पहुंचा सकता है| दलित को ही ले लीजिए, कहीं नहीं गया वह सत्तर वर्षों पश्चात भी वहीं बैठा राष्ट्रद्रोहियों द्वारा राजनीति (गुंडागर्दी) खेलने का विषय बना हुआ है| मैं भारत में सर्व-व्यापक गंदगी और गरीबी को शूद्र का अभिशाप समझता हूँ क्योंकि युगों से सफाई का तमाम प्रबंध शूद्रों को सौंप उन्हें समाज से बाहर रखा और अशिक्षित व दरिद्र शूद्र सफाई संबंधी विकास से अनभिज्ञ किसी प्रकार का योगदान देने में असमर्थ रहा है| उसके काम जो कोई दूसरा करने को तैयार नहीं का यदि उसे उपयुक्त पारिश्रमिक दिया जाए तो जाति का भेद भाव ही जाता रहेगा|

      • मेरा परिचय प्रवक्ता.कॉम के मेरे प्रोफाइल में दिया हुआ है,उससे ज्यादा कुछ भी नहीं. रही बात विदेशों में भागने और वहां बसने की,तो मैं आवाहन करता हूँ उन भारतीयों को जो विदेश में बसे हुए हैं और बहुत हीं अच्छी जिंदगी बीता रहे हैं.अगर इस पर एक आलेख डॉक्टर मधुसूदन जैसे गण मान्य व्यक्ति,जो गुजरात जैसे उन्नत राज्य से आते हैं,लिखें तो वह एक प्रामाणिक दस्तावेज होगा.यहाँ मैं प्रवक्ता.कॉम के आदरणीय पर्यवेक्षकों को इस तरफ भी ध्यान दिलाना चाहूँगा कि गुजरात जैसे राज्य इस मामले में भी दूसरों से बहुत आगे है और शायद अमेरिका में हीं नहीं,बल्कि अन्य कई देशों में में भी ये सब से ज्यादा अप्रवासी भारतीय हैं. तुर्रा यह की ,जब दूसरे राज्य वाले गुजरात में पनाह पाते हैं,जिसका अक्सर मजाक भी उड़ाया जाता हैं,वहीँ गुजरात वाले अपना राज्य और देश छोड़ कर विदेशों की तरफ पलायन कर रहे हैं.विदेशों में पलायन का यह पहलू सबसे ज्यादा विचारणीय है.आप अगर विस्तार में जाइएगा ,तो पता चलेगा कि डॉक्टर साहिब की तरह के गुजराती कम हीं हैं.ज्यादातर गुजराती विभिन्न व्यापारों में लगे हुए हैं,जो वे देश में भी कर सकते थे.

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