अमेरिका में भारतीय प्रतिभाओं की जरूरत 

प्रमोद भार्गव
डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति रहते हुए अमेरिका में संरक्षणवादी नीतियों को इसलिए अमल में लाया गया था, जिससे स्थानीय अमेरिकी नागरिकों को अवसर मिलें। किंतु चार साल के भीतर ही इन नीतियों ने जता दिया कि विदेशी प्रतिभाओं के बिना अमेरिका का काम चलने वाला नहीं है। इसमें भी अमेरिका को चीन और पाकिस्तान की बजाय भारतीय उच्च शिक्षितों की आवश्यकता अनुभव हो रही है। क्योंकि एक तो भारतीय अपना काम पूरी तल्लीनता और ईमानदारी से करते हैं, दूसरे वे स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल जाते हैं। जबकि चीनी तकनीशियनों की प्राथमिकता में अपने देशों के उत्पाद रहते हैं। पाकिस्तान के संग संकट यह है कि उसके कई युवा इंजीनियर अमेरिका में आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त पाए गए हैं। इसलिए अमेरिका दोनों ही देशों के तकनीकियों पर कम भरोसा करता है। ऐसे में अमेरिका को विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में चीन के उत्पादों को वैश्विक स्तर पर चुनौती देना मुश्किल हो रहा है। अतएव संरक्षणवादी नीतियों के चलते विदेशी पेशेवरों को रोकने की नीति के तहत ग्रीन कार्ड वीजा देने की जिस सुविधा को सीमित कर दिया था, उसके दुष्परिणाम चार साल के भीतर ही दिखने लगे हैं। नतीजतन अमेरिका इस नीति को बदलने जा रहा है। इससे भारतीय युवाओं को अमेरिका में नए अवसर मिलने की उम्मीद बढ़ जाएगी।  
पेशेवर विज्ञान व इंजीनियरिंग तकनीकियों की कमी के चलते अमेरिका में रक्षा और सेमीकंडक्टर निर्माण उद्योगों पर तो संकट के बादल मंडरा ही रहे हैं, स्टेम सेल (स्तंभ कोषिका) से जुड़े जैव, संचार और अनुवांषिक प्रोद्यौगिकी भी संकट में पड़ते जा रहे हैं। ऐसा तब भी देखने में आया, जब ये उद्योग लाखों डाॅलर का निवेष कर देने के बावजूद उड़ान भरने में विफल रहे। इसके दुष्परिणाम यह देखने में आए कि अमेरिकी राज्य एरिजोना में इंजीनियरों की कमी के चलते ताइवान सेमिकंडक्टर निर्माण कंपनी के उत्पादन का लक्ष्य काफी पीछे चल रहा है। नतीजतन इन कंपनियों को आउटसोर्स से काम चलाने को विवश होना पड़ रहा है। इसलिए पचास से अधिक राष्ट्रीय सुरक्षा अधिकारियों ने अमेरिकी कांग्रेस को पत्र लिखकर वीजा नीतियों में छूट देने की मांग की है। 
इस पत्र में कहा है कि ‘चीन सबसे महत्वपूर्ण तकनीकी और जिओ पाॅलिटिक्स (दूर-संचार) प्रतियोगी है। जिसका अमेरिका ने सामना भी किया है। किंतु अब स्टेम प्रतिभाओं के बिना अमेरिका के लिए आगे यह लड़ाई लड़ना कठिन होगी। इसलिए स्टेम पीएचडी शिक्षितों को मौजूदा ग्रीन कार्ड नीति में छूट दी जाए। यह छूट स्टेम मास्टर डिग्री स्नातकों को भी मिले। साथ ही इसमें यह शर्त जोड़ दी जाए कि उन्हें यह सुविधा केवल सेमिकंडक्टर कंपनियों में काम करने पर ही मिलेगी। इन प्रतिभाशालियों के बिना अमेरिका राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकता है। फिलहाल अमेरिका सेमिकंडक्टर के उत्पादन में चीन से बहुत पीछे चल रहा है। 1990 में अमेरिका ने दुनिया के लगभग 40 प्रतिशत सेमिकंडक्टर बनाए, जबकि आज महज 10 प्रतिशत ही बना पा रहा है। इस बीच चीन ने एक दशक के भीतर ही सेमिकंडक्टर बाजार में अपनी धाक जमा ली है। चीन की इस उत्पादन क्षमता से चिप्स की वैश्विक आपूर्ति को भी खतरा है। वर्तमान में डायनेमिक रैंडम-एक्सेस मेमोरी चिप्स का 93 प्रतिशत उत्पादन ताइवान, दक्षिण कोरिया और चीन में होता है। जिओ पॉलिटिक्स का आधार जिओ तकनीक अर्थात जी-5 दूर-संचार तकनीक का विस्तार करना है। दुनिया के डिजिटल भविष्य का निर्माण इसी से होगा। इस तकनीक का राजनीतिकरण काई नई बात नहीं है। 5-जी की इस ताकत को डोनाल्ड ट्रंप ने अपने कार्यकाल में समझ लिया था, इसलिए वह चीन की इस तकनीकि विस्तार में दखल देने में लगे हुए थे। दरअसल चीन का तकनीकि राष्ट्रवाद ‘टिकटाॅक-कूटनीति‘ के युग में तब्दीन होता जा रहा है। चीन लगातार इस क्षेत्र की कंपनियों की प्रतिद्वंद्विता को चुनौती देता हुआ अपनी घरेलू कंपनियों को बढ़ावा देने में लगा है। इसलिए अमेरिका का चिंतित होना जरूरी है। चीन और अमेरिका की इन नीतियों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले ही समझ लिया था, इसलिए उन्होंने भारतीय दूरसंचार कंपनी और रिलांयस इंस्ट्रीजरीज के माध्यम से पूर्णस्वामित्व वाली सहायक कंपनी ‘जिओ‘ खड़ी की और अब यह कंपनी जिओ-5 से आगे निकलकर जिओ-6 के विस्तार को अमल में ला रही है।  
अमेरिका की संरक्षणवादी नीतियों के चलते भारतीय नागरिकों के हितों पर कुठाराघात हुआ है। नतीजतन अमेरिका में बेरोजगार भारतवंषियों की संख्या बढ़ गई और जो युवा पेषेवर अमेरिका में नौकरी की तलाष में थे, उनके मंसूबों पर पानी फिर गया। राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एच-1-बी वीजा के नियम  कठोर कर दिए थे। ट्रंप की ‘अमेरिका प्रथम‘ जैसी राश्ट्रवादी भावना के चलते अमेरिकी कंपनियों के लिऐ एच-1-बी वीजा पर विदेषी नागरिकों को नौकरी पर रखना मुश्किल हो गया। नए प्रावधानों के तहत कंपनियों को अनिवार्य रूप से यह बताना होगा कि उनके यहां पहले से कुल कितने प्रवासी काम कर रहे हैं। एच-1 बी वीजा भारतीय पेषेवरों में काफी लोकप्रिय है। इस वीजा के आधार पर बड़ी संख्या में भारतीय अमेरिका की आईटी कंपनियों में सेवारत हैं। अमेरिकी सुरक्षा विभाग ने भी अमेरिकी नागरिकता और आव्रजन सेवा (यूएससीआईएस) में एच-1 बी वीजा के तहत आने वाले रोजगारों और विशेष व्यवसायों की परिभाशा को संशोधित कर बदल दिया था। लिहाजा सुरक्षा सेवाओं में भी प्रवासियों को नौकरी मिलना बंद हो गईं। ट्रंप की ‘बाय अमेरिकन, हायर अमेरिकन नीति‘ के तहत यह पहल की गई थी। इन प्रावधानों का सबसे ज्यादा प्रतिकूल असर भारतीयों पर तो पड़ा ही, किंतु अब लग रहा है कि यह नीति गलत थी। इस कारण अमेरिका के उद्योगों में उत्पादन घट गया, नतीजतन वह उत्पादन क्षमता में चीन से पिछड़ता जा रहा है और चीन तकनीक से जुड़े विश्व -बाजार को अपने आधिपत्य में लेता जा रहा है।  
अमेरिका में इस समय स्थाई तौर से बसने की वैधता प्राप्त करने के लिए सालों से छह लाख भारतीय श्रेष्ठ कुशल पेशेवर लाइन में लगे हैं। इस वैधता के लिए ग्रीन कार्ड प्राप्त करना होता है। अमेरिका ने आम श्रेणी के लोगों के लिए 65000 एच-1 बी वीजा देने का निर्णय लिया है, इसके अतिरिक्त 20000 एच-1- बी वीजा उन लोगों को दिए जाएंगे, जो विज्ञान, प्रौद्योगिकी और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अमेरिका के ही उच्च शिक्षण संस्थानों से शिक्षा प्राप्त की है। अमेरिका में जो विदेशी प्रवासियों के बच्चे हैं, उनकी उम्र 21 साल पूरी होते ही, उनकी रहने की वैधता खत्म हो जाती है। दरअसल एच-1 बी वीजा वाले नौकरीपेशाओं के पत्नी और बच्चों के लिए एच-4 वीजा जारी किया जाता है, लेकिन बच्चों की 21 साल उम्र पूरी होने के साथ ही इसकी वैधता खत्म हो जाती है। इन्हें जीवन-यापन के लिए दूसरे विकल्प तलाशने होते हैं। ऐसे में ग्रीन-कार्ड प्राप्त कर अमेरिका के स्थायी रूप में मूल-निवासी बनने की संभावनाएं शून्य हो जाती हैं। दरअसल, अमेरिका में प्रावधान है कि यदि प्रवासियों के बच्चे 21 वर्ष की उम्र पूरी कर लेते हैं और उनके माता-पिता को ग्रीन-कार्ड नहीं मिलता है तो वे कानूनी स्थाई रूप से अमेरिका में रहने की पात्रता खो देते हैं। बहरहाल अमेरिकी संसद उपरोक्त सिफारिशों को मान लेती है तो भारतीय पेशेवरों को अमेरिका में नौकरी मिलने का रास्ता खुल जाएगा। 


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