‘आर्यसमाज की पुरानी पीढ़ी के यशस्वी शीर्ष भजनोपदेशक

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मनमोहन कुमार आर्य,
आजकल श्रीमद्दयानन्द आर्ष ज्योतिर्मठ गुरुकुल, पौन्धा-देहरादून का वार्षिकोत्सव चल रहा है। यह उत्सव 3 जून, 2018 को समाप्त होगा। इस गुरुकुल पौन्धा की स्थापना आर्यजगत के विख्यात संन्यासी स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी ने 18 वर्ष पूर्व सन् 2000 में की थी। श्री ओम् प्रकाश वम्र्मा, युमनानगर स्वामी जी के साथी व सहयोगी रहे हैं। वह बहुत लम्बे समय से स्वामी प्रणवानन्द जी के निमंत्रण पर उनके मुख्य गुरुकुल गौतमनगर व अन्य गुरुकुलों के उत्सवों में भी पधारते रहे हैं। हमने अनेक अवसरों पर उन्हें गुरुकुल गौतमनगर दिल्ली में देखा है। विगत 18 वर्षों से आप गुरुकुल, पौन्धा-देहरादून के प्रत्येक उत्सव में पधारते हैं। आपने अपने व्यय से यहां एक कुटिया भी बनवा रखी है जिसमें एक बड़ा कमरा, शौचालय, आगे व पीछे दो बराण्डे हैं। गुरुकुल की यज्ञशाला और सभा भवन इसके बिलकुल निकट है। आपका एक पौत्र भी इसी गुरुकुल में पढ़ता है और गुरुकुल की सभी प्रकार की गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर भाग लेता है। हमें लगता है कि पं. ओम् प्रकाश वम्र्मा जी की आर्यसमाज को यह एक प्रशंसनीय देन है जो भविष्य में आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार में उपयोगी हो सकती है। वम्र्मा जी का पौत्र अब पूर्ण युवक हो गया है और अनुमान है कि वह स्नातक हो चुका है या होने वाला है। अनेक वर्षों से हम इस बालक वा युवा को गुरुकुल में देख रहे हैं और उसे देख कर हमें प्रसन्नता होती है।

वम्र्मा जी की इस समय 90 वर्ष की आयु है। वह काफी दुर्बल हो गये हैं। उन्होंने बातचीत में बताया कि उन्हें दो बार हृदयाघात हो चुका है। उनकी धर्मपत्नी माताजी साये की तरह हर समय उनके साथ रहती है और इस आयु में भी वम्र्मा जी की बहुत प्रशंसनीय सेवा कर रही है । उन्हीं की सेवा का परिणाम है कि वम्र्मा जी इस आयु में भी प्रत्येक वर्ष आर्यसमाज के प्रति अपनी श्रद्धा व भक्ति के कारण गुरुकुल के उत्सव में सम्मिलित होते हैं और अपनी दिनचर्या सामान्य रूप से व्यतीत करते हैं। विगत नवम्बर, 2018 में श्री वम्र्मा जी ने अपने दायें पैर के घुटने का आपरेशन भी कराया है। इस चिकित्सा में उनकी ढाई लाख से कुछ अधिक धनराशि व्यय हुई है। इस चिकित्सा से उन्हें लाभ हुआ है। अब वह लाठी लेकर गुरुकुल परिसर में थोड़ा सा घूम लेते हैं। हमने सन् 1970 से ही आर्यसमाज धामावाला देहरादून व अन्य अनेक स्थानों पर उनके भजनों को सुना है। हमारे बच्चे भी बचपन से कैसेट व सीडी के माध्यम से उनके भजन सुनते आ रहे हैं। हमारा सौभाग्य है कि एक बार वह हमारे घर पर भी आये थे। वह जब भी गुरुकुल आते हैं तो परिवार के सभी सदस्यों से मिलने की इच्छा व्यक्त करते हैं और मिलते भी है। परिवार के सभी सदस्यों को वह अपने हृदय से आशीर्वाद देते हैं।

श्री ओम् प्रकाश वर्मा जी को हमने लगभग सन् 1970 से आर्यसमाज के उत्सवों में भजनोपदेश सुनाने के लिए आते देखा है। आपका भजन गाने का अन्दाज अपना अलग था। उसमें श्रोताओं को प्रभावित करने की अद्भुद क्षमता थी। गुरुकुल पौन्धा और गुरुकुल गौतमनगर, दिल्ली में भजन के दौरान उनको संस्था की आर्थिक सहायता की अपील करते भी हमनें देखा है और उनकी अपील का अनुकूल असर भी देखा है। वह संस्था की जिस योजना के लिए सहायता की अपील करते थे वह श्रोता उसी समय घोषणायें करके पूरी कर देते थे। हमें स्मरण है कि कुछ वर्षों पूर्व गुरुकुल पौन्धा के वार्षिकोत्सव के अवसर पर नलकूप में अचानक खराबी आ गई थी जिससे गुरुकल आये अतिथियों को असुविधा हुई थी। वर्मा जी ने उत्सव में ऋषि भक्तों को नये नलकूप का बजट बताया और उसके लिए आर्थिक सहायता की अपील की। उन्होंने स्वयं भी एक मोटी राशि दान देने की घोषणा की थी। उनकी अपील का ऐसा प्रभाव हुआ था कि कुछ ही मिनटों में नये नलकूप के लिए पर्याप्त धनराशि एकत्रित हो गई थी। वर्तमान में गुरुकुल के लगभग 150 ब्रह्मचारियों व निवासियों सहित उत्सव में लगभग एक हजार व्यक्तियों के आने पर भी जल की समुचित व्यवस्था रहती है। कभी किसी को किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होता। हमें पुरानी स्मृति है कि जिन दिनों पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु स्मारक पाणिनी कन्या महाविद्यालय, वाराणसी के भवनों का निर्माण कार्य चल रहा था, तब भी वर्मा जी जहां जाते थे वहां उसकी सूचना देते थे और धन-संग्रह करके ने उस गुरुकुल के निर्माण में सहयोग देते थे।
पौराणिक जगत के एक गुरु सुधांशु महाराज आर्यसमाज के भजनोपदेशक व विद्वान रहे हैं। वम्र्मा जी से उनका निकट सम्बन्ध था। कई अवसरों पर सुंधाशु महाराज ने उन्हें अपने निवास पर बुलाकर उनका सम्मान किया। वम्र्मा जी को एक बार गायन के लिए मुम्बई कि सिने जगत में अवसर मिला था परन्तु आपने अपने पिता आदि की सलाह पर ऋषि दयानन्द के कार्य को महत्व दिया और उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।

श्री ओम् प्रकाश वम्र्मा जी विगत लगभग 70-75 वर्षों से आर्यसमाज की सेवा करते आ रहे हैं। उन्हें आर्यसमाज के पूर्व शीर्ष वा चोटी के विद्वानों के साथ काम करने का अवसर मिला है। उनकी वह खट्टी मिट्ठी स्मृतियां उनके पास हैं। यदि कोई लेखक उनके साथ रहे तो उनकी स्मृतियों को संग्रहीत किया जा सकता है। उनकी स्मृतियों का ऐतिहासिक महत्व है। आर्य समाज के दिवंगत शीर्ष विद्वानों के साथ पंडित जी की विगत 60-70 वर्ष पूर्व की स्मृतियों का संग्रह का एक ग्रन्थ भी तैयार हो सकता है। गुरुकुल का कोई ब्रह्मचारी, उनका पौत्र या यमुनानगर का कोई आर्य विद्वान यह कार्य कर सके तो यह आर्यसमाज की प्रशंसनीय हो सकती है। यह भी बता दें कि वम्र्मा जी का पुत्र व पुत्रियों का भरा पूरा परिवार है जो यमुनानगर एवं आसपास के स्थानों पर रहता है।

वम्र्मा जी वर्तमान में प्रायः स्वस्थ हैं। यह आर्यजगत के लिए सन्तोष और प्रसन्नता की बात है। ईश्वर उनको आगे भी स्वस्थ रखे। वह और उनकी धर्मपत्नी माताजी भी स्वस्थ व दीर्घायु हों, यह हमारी ईश्वर से प्रार्थना है।

श्रीमद्दयानन्द आर्ष ज्योतिर्मठ गुरुकुल, पौंधा-देहरादून (गुरुकुल, पौंधा) में तीन दिवसीय सत्यार्थप्रकाश स्वाध्याय शिविर दिनांक 31-5-2018 को भी जारी रहा। डा. सोमदेव शास्त्री सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में ऋषि दयानन्द द्वारा लिखी गई बातों को श्रोताओं से पढ़वाकर उन्हें उनका अर्थ समझाते हैं और उसके समर्थन में अनेक दृष्टान्त व युक्तियां देते हैं। सत्यार्थप्रकाश स्वाधाय शिविर में दिनांक 31-5-2018 को प्रातः सत्र में सत्यार्थप्रकाश का पाठ करते हुए आचार्य जी ने नवीन वेदान्त मत में माया का उल्लेख कर कहा कि माया आवरण और विक्षेप है। माया का अर्थ ढाकना है और विक्षेप का अर्थ पदार्थ का वास्तविक रूप अज्ञान आदि के कारण दिखाई न देकर उससे भिन्न रूप का दिखाई देना है। उन्होंने प्रश्न किया कि माया द्रव्य है या गुण? आचार्य जी ने कहा कि माया द्रव्य नहीं अपितु यह नवीन वेदान्तियों का भ्रम है। माया न स्वयं द्रव्य है और न यह किसी द्रव्य का गुण ही है। उन्होंने कहा कि ईश्वर सर्वज्ञ है और जीव अल्पज्ञ। आचार्य जी ने कहा कि नवीन वेदान्ती उदहारण देते हैं कि सूर्य के जल को अनेक पात्रों में रखने से एक सूर्य के अनेक पात्रों में अनेक प्रतिबिम्ब दिखाई देते हैं परन्तु जल के पात्रों को हटा लेने पर उन प्रतिबिम्बों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है अर्थात् वह दिखाई नहीं देते। इसी प्रकार अविद्या दूर हो जाने पर हम प्रकृति के जिस मिथ्यास्वरूप को देखते व अनुभव करते हैं वह भी दिखाई न देकर ब्रह्म का ही दर्शन वा अनुभव होता है। आचार्य जी ने महाराज भृतहरि के तीन ग्रन्थों नीति शतक, वैराग्य शतक और श्रृंगार शतक की चर्चा भी की और इन ग्रन्थों में विद्यमान सामग्री से श्रोताओं को परिचित कराया। उन्होंने भृतहरि के प्रसिद्ध श्लोक ‘भोगो न भुक्ता वयमेव भुक्ता’ की चर्चा कर कहा कि हम भोगों को नहीं भोगते अपितु भोग हमें भोगतें हैं और हमें जीर्ण कर देते हैं। उन्होंने कहा कि समय के साथ हमारी आयु बढ़ जाती है और भोग्य जीवन की अवधि कम हो जाती है। आचार्य जी ने भृतहरि के वाक्य प्रदीप ग्रन्थ की चर्चा की और कहा कि यह उनका एक महत्वूपर्ण ग्रन्थ है।

डा. सोमदेव शास्त्री ने कहा कि राजा भोज संस्कृत भाषा का प्रेमी था। उसके समय में संस्कृत भाषा की अच्छी प्रगति हुई। उन दिनों संस्कृत देश की लोक भाषा थी। उन्होंने कहा कि उनके समय में चम्पू रामायण ग्रन्थ लिखा गया जो एक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द के शब्दों को स्मरण कर कहा कि राजा भोज के समय में एक ऐसा यांत्रिक यान था जो 1 घड़ी में 11 कोश चलता था। एक यांत्रिक पंखा भी था जो हवा देता था। विद्वान वक्ता ने कहा कि स्वामी जी ने कहा है कि यदि यह यन्त्र अब भी होते तो अंग्रेजों को अपने ज्ञान-विज्ञान का अहंकार न होता। डा. सोमदेव शास्त्री ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने ब्रह्म-समाज की इसलिए आलोचना की कि उनमें स्वदेश भक्ति की कमी थी और वह विदेशी अंग्रेजों के प्रशंसक थे। उन्होंने कहा कि राजा भोज के 150 वर्ष बाद वैष्णव मत प्रचलित हुआ। उन्होंने श्रोताओं को बताया कि स्वामी शंकराचार्य के तीन प्रमुख ग्रन्थ प्रस्थान त्रयी के नाम से जाने जाते हैं। यह ग्रन्थ हैं वेदान्त, गीता और उपनिषदों पर स्वामी शंकराचार्य जी के भाष्य। उन्होंने कहा कि प्रस्थान लक्ष्य प्राप्ति के लिए चलना आरम्भ करने को कहते हैं। इन प्रस्थान त्रयी ग्रन्थों का उद्देश्य भी वेदान्तियों के अनुसार विद्या प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करना है। आचार्य जी ने कहा कि स्वामी शंकराचार्य जी वेदों तक नहीं पहुंच सके। अल्प जीवन काल होने के कारण उनके पास इसके लिए समय नहीं था। आचार्य सोमदेव शास्त्री ने बौद्धों के तीन ग्रन्थों विनय पिटक, सूक्त पिटक और अभिदम्भ पिटक की चर्चा भी की। उन्होंने बताया की पिटक पेटी को कहते हैं और इन ग्रन्थों में बुद्ध के उपदेश व दार्शनिक सिद्धान्त हैं। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द के तीन प्रमुख ग्रन्थ संस्कारविधि, सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका हैं जिन्हें हम बृहदत्रयी कह सकते हंै। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द सभी मनुष्य को आर्य अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्य बनाना चाहते थे।

आचार्य जी ने कहा कि मनुष्य जीवन के निर्माण में अन्धविश्वास मुख्य रूप से बाधक हैं। उन्होंने कहा जैनियों के 18 पुराणों के अनुरूप पौराणिकों ने भी अपने 18 पुराण बनाये हैं। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द वेद और वेदानुकूल मान्यताओं व सिद्धान्तों को ही प्रामाणिक मानते थे और वेद विपरीत मान्यताओं को अप्रामाणिक मानते थे। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द वेदों को स्वतः प्रमाण और वेदानुकूल मान्यताओं केा परतः प्रमाण मानते थे। इस विषय को उन्होंने श्रोताओं को विस्तार से समझाया। आचार्य जी ने कहा कि पुराण ऋषि वेदव्यास जी की रचनायें नहीं हैं। उन्होंने बताया कि रामायण, महाभारत एवं ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में लोगों ने बड़ी संख्या में प्रक्षेप किये हैं। चारवाक का उल्लेख कर आचार्य जी ने बताया कि इसका अर्थ होता है कि जिस मनुष्य की वाणी अच्छी हो। जो चारू अर्थात् अच्छी बातें करता व कहता हो वह चारवाक कहलाता है। उन्होंने कहा कि बौद्धों और जैनियों ने अहिंसा की अति की। आचार्य जी ने वेद के आठ विकृति पाठों की चर्चा की और उसके उदाहरण भी दिये। आचार्य जी ने गायत्री मन्त्र के अनेक प्रकार के विकृति पाठ सुनाये। उन्होंने कहा कि इन विकृति पाठों के कारण ही वेद पूर्णतः सुरक्षित रहे और उनमें विराम व पूर्ण विराम जैसी एक अशुद्धि भी नहीं हुई। आचार्य जी ने कहा कि अथर्ववेद में 28 नक्षत्रों का उल्लेख है। उन्होंने कहा कि एक नक्षत्र अभिजीत सूर्य से इतना दूर चला गया है कि पृथिवी पर उसका प्रकाश आने में 21 वर्ष लगते हैं। आचार्य जी ने कहा कि प्रत्येक नक्षत्र का एक परिवार होता है जिसमें ग्रह व उपग्रह आदि होते हैं। नक्षत्र अपनी धूरी पर ही घूमता है। पृथिवी व अन्य ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते वा परिक्रमा करते हैं। उन्होंने कहा कि चन्द्र पृथवी का उपग्रह है जो पृथिवी के चारों ओर घूमता है और साढ़े उनतीस दिनों में पृथिवी की एक परिक्रमा पूरी करता है। आचार्य जी ने सूर्य, पृथिवी आदि से जुड़ी अनेक प्रकार की ज्योतिषीय घटनाओं का भी उल्लेख किया व उन्हें विस्तार से समझाया। आचार्य जी ने फलित ज्योतिष के अन्धविश्वासों की चर्चा भी की और उससे होने वाली निजी व सामाजिक हानियों को बताया। आचार्य जी ने पुराणों के आपसी झगड़ों का उल्लेख कर कहा कि शिव पुराण में विष्णु की और विष्णु पुराण में शिव की आलोचना है। आचार्य जी ने शैवों व वैष्णवों की परस्पर नफरत के कुछ उदहारण भी दिये। आचार्य जी ने कहा कि संयोगजन्य चीज अनादि कभी नहीं हो सकती। उन्होंने बताया कि उपनिषदें अनेक है। देश में ऐसा समय भी था जब साधारण विद्वान भी संस्कृत में कुछ लिख कर उन्हें उपनिषद का नाम दे देता था। उन्होंने अल्लोपनिषद की भी चर्चा की और उसे अप्रमाणिक बताया। उन्होंने कहा कि सभी उपनिषदों में कुल 11 उपनिषदें ही प्रामाणिक हैं।

वैदिक विद्वान डा. सोमदेवशास्त्री ने कहा कि हमें परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिये कि हम संयमपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए तीन गुणी अर्थात् तीन सौ वर्ष की आयु प्राप्त करें और हमारे शरीर में नेत्र आदि सभी इन्द्रियों की शक्ति पूरी आयु पर्यन्त अक्षुण बनी रहे। आचार्य जी ने कहा कि पाप करने वाले को परमात्मा दण्ड देकर रुलाता है, इसलिये उसे रूद्र कहा जाता है। विद्वान आचार्य ने कहा कि परमात्मा एक है और वह सच्चिदानन्द स्वरूप है। उन्होंने कहा कि जो तीनों कालों में रहता है वह सत्य कहलाता है। ईश्वर, जीव व प्रकृति तीनों कालों में रहते हैं इसलिये यह तीनों सत्य है। ईश्वर को आचार्य जी ने चेतन व ज्ञान स्वरूप बताया। उन्होंने कहा प्रकृति में ज्ञान गुण न होने के कारण वह ईश्वर से पृथक है अर्थात् ईश्वर नहीं है। जीव ईश्वर इसलिए नहीं है क्योंकि वह अल्पज्ञ है और आनन्द स्वरुप नहीं है जबकि परमात्मा आनन्दस्वरुप है। आचार्य जी ने यह भी कहा कि हमारे अन्दर सुख व आनन्द का गुण नैमित्तिक है स्वाभाविक गुण नहीं है। आचार्य जी ने परमात्मा के अनेक गुणों का उल्लेख कर उन पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि अनुकूलता व प्रतिकूलता दोनों को सहन करना तप कहलाता है। इसके उन्होंने आप बीते उदहारण दिये। आचार्य जी ने कहा कि वह युवावस्था में बनारस में एक विद्वान से मिले थे। उन्होंने सात वर्षों से मौन व्रत रखा हुआ था। उनसे पूछा कि क्या आपको बोलने की इच्छा नहीं होती? वह बोले इच्छा तो होती है परन्तु सात साल तक उन्होंने अपनी जुबान नहीं हिलाई इसलिये जिह्वा ने हिलना-डुलना वा बोलना बन्द कर दिया है। अब वह चाहकर भी बोल नहीं सकते और हर बात को सलेट पर लिखकर बता पाते हैं। आचार्य जी ने कहा कि न बोलना वाणी का तप नहीं अपितु अच्छा बोलना, बुरा न बोलना ही वाणी का तप है। विद्वान आचार्य ने आगे कहा कि द्वन्दों अर्थात् सुख व दुख, मान व अपमान आदि को सहन करना ही तप है। इसी के साथ स्वाध्याय शिविर का सत्र समाप्त हुआ। ओ३म् शम्।

गुरुकुल पौन्धा-देहरादून के उत्सव में काशीपुर-उत्तराखण्ड के एक आर्य विद्वान पं. धर्मपाल शास्त्री जी भी आये हुए हैं। आप आर्यसमाज के सिद्धान्तों के मर्मज्ञ हैं और बहुत प्रभावशाली व्याख्यान देते हैं। इस समय शास्त्री जी की आयु 86 वर्ष हो चुकी है। आप हमारे आर्यसमाजी बनने से पूर्व देहरादून के धामावाला आर्यसमाज में सन् 1964 में पुरोहित का कार्य करते थे। तब आप युवक थे। शास्त्री जी का आर्यसमाज के अनुयायी पूर्व प्रधानमंत्री चैधरी चरण सिंह जी से पारिवारिक सम्बन्ध था। आप उनके साथ रहा भी करते थे और उनके विषय में छोटी छोटी बातों को जानते हैं। जिन दिनों श्री चरण सिंह जी उत्तर प्रदेश में मंत्री थे, उन दिनों आपके कहने से वह दीपावली से एक दिन पहले आर्यसमाज धामावाला के उत्सव में आये थे। सम्प्रति अनेक वर्षों से पं. धर्मपाल शास्त्री देश भर में आर्यसमाज के उत्सवों में बुलाये जाते रहे हैं। गुरुकुल पौंधा-देहरादून और गुरुकुल गौतमनगर, दिल्ली के प्रत्येक उत्सव पर आप जाते हैं। विगत दो तीन दशकों से आप प्रत्येक वर्ष दो तीन बार यूरोप के अनेक देशों में जाते हैं और वहां आर्यसमाजों में प्रवचन करते हैं। यूरोप का अधिकांश भाग आपने घूमा हुआ है और वहां के प्रायः सभी वा अधिकांश आर्यसमाजों में आपने व्याख्यान दिये हैं।

जब भी आप देहरादून आते हैं तो आपसे भेंट होती है और आपसे आर्यसमाज के विषय में नई व ताजा जानकारी प्राप्त होती हैं। शास्त्री जी आर्यसमाज के प्रमुख नेता पं. प्रकाशवीर शास्त्री जी के भी अति निकट रहे हैं। प्रकाशवीर शास्त्री जी के दो पुत्र यूरोप में है। एक पुत्र तो आर्यसमाज से निरपेक्ष भाव रखते हैं। छोटे पुत्र से पं. धर्मपाल शास्त्री जी अपनी विदेश यात्रा के दौरान समय निकाल कर मिलने जाते हैं और वह भी उनका सम्मान करते हैं। आयु में वृद्ध होने के कारण शास्त्री जी को भी आर्यसमाज की विगत 60-65 वर्षों की आर्यसमाज की गतिविधियों व विद्वानों के विषय में अच्छी जानकारी है। आप किसी के बारे में भी चर्चा करें तो शास्त्री जी उनके विषय में अपने सम्बन्धों सहित बहुमूल्य जानकारी देते हैं। शास्त्री जी के देहरादून के आर्य विद्वान व नेताओं से निकट सम्बन्ध रहे हैं। इनमें प्रमुख लोग हैं कीर्तिशेष श्री धर्मेन्द्र सिंह आर्य, कीर्तिशेष श्री अनूप सिंह, श्री ईश्वर दयालु आर्य, कीर्तिशेष श्री ठाठ सिंह जी, कीर्तिशेष श्री धर्मपाल सिंह जी, श्री राजेन्द्र कुमार अधिवक्ता आदि।

शास्त्री जी को आर्यसमाज की अनेक संस्थाओं ने समय समय पर सम्मनित भी किया है। दो वर्ष पूर्व स्वामी इन्द्रवेश फाउण्डेशन, रोहतक द्वारा शास्त्री जी को उनकी सेवाओं के लिए आर्य विद्वान के रूप में सम्मानित किया गया था। इस अवसर उन्हें पर ग्यारह हजार की धनराशि सहित शाल व स्मृति चिन्ह आदि भी भेंट किये गये थे। हम भी इस अवसर पर शास्त्री जी के साथ थे। इस स्थान पर शास्त्री जी स्वामी प्रवणानन्द सरस्वती जी के साथ दिल्ली से उनकी ही गाड़ी से पहुंचे थे। मैं भी इनके साथ था। दिल्ली-रोहतक यात्रा के समय स्वामी प्रणवानन्द जी ने हमें कई प्रेरणादायक घटनायें सुनाई थी जिन्हें हमने उन्हीं दिनों लेख के माध्यम से प्रस्तुत किया था। स्वामी जी का हम पर विशेष स्नेह है। स्वामी जी को हमने निकट से देखा है। हमें उनका स्नेहपूर्ण आशीर्वाद अनेक बार मिला है जिसके लिए हम उनके कृतज्ञ हैं और उनके स्वस्थ जीवन एवं दीर्घायु की कामना करते हैं।

पं. धर्मपाल शास्त्री जी आयुवृद्ध हो गये हैं। ईश्वर की कृपा से वह पूर्ण स्वस्थ हैं। वह इसी प्रकार आर्यसमाज की सेवा करते रहें, स्वस्थ एवं दीर्घायु हों, यह ईश्वर से हमारी 1

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