डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
इस बार फिर कश्मीर घाटी में मुसलमानों ने शिया समाज को अमर शहीद इमाम हुसैन की स्मृति में ताजिया निकालने की अनुमति नहीं दी । दरअसल पिछले बीस सालों से जब से घाटी में इस्लामी आतंक का दौर बढ़ा है तब से मुसलमान प्रयास कर रहे हैं कि कोई दूसरा सम्प्रदाय घाटी में अपने मज़हबी कर्मकाण्ड न कर सके। हिन्दुओं को तो इस्लामी आतंकवादियों के संगठित प्रयासों ने घाटी से लगभग बाहर ही कर दिया है और अब घाटी का अल्पसंख्यक शिया समाज इन के निशाने पर आ गया है । कुछ समय पहले बडगाम में शिया समाज मुसलमानों के कहर का शिकार हुआ था और अब पिछले दिनों श्रीनगर में वही वारदात दोहरायी गयी है। नवंबर मास में घाटी में शिया समाज इमाम हुसैन को नमन करने के लिए और उनकी शहादत से प्रेरणा लेने के लिये ताजिया निकालता है । यह ताजिया उनके पारंपरिक विश्वासों का एक हिस्सा ही है और इससे अन्याय से लडने की प्रेरणा भी मिलती है । लेकिन मुसलमान ताजिये को मूर्ति पूजा मानते हैं इसलिये वे ताजिया निकालने का वैचारिक विरोध ही नहीं करते बल्कि यदि संभव हो सके तो उसे शक्ति बल से रोकते भी हैं। कश्मीर घाटी में क्योंकि मुसलमानों का साधारण बहुमत ही नहीं बल्कि प्रचंड बहुमत ही है और सरकार पर भी अप्रत्यक्ष रूप से इसी विचारधारा के लोगों का कब्जा है । यही कारण है कि मुसलमानों के साथ सरकार भी मिल जाती है और शिया समाज को ताजिया निकालने की अनुमति नहीं देती । शिया समाज को अपमानित और प्रताडित करने का यह सिलसिला पिछले दो दशकों से चल रहा है । यदि मुसलमानों के इस तर्क को स्वीकार भी कर लिया जाये कि ताजिया मूर्ति पूजा का ही एक रूप है तब भी लोकतांत्रिक संविधान सम्मत शासन व्यवस्था में सरकार ताजिये की पूजा को कैसे रोक सकती है ? इतिहास इस बात का साक्षी है कि सैकड़ो वर्ष पूर्व कर्बला के मैदान में मुसलमानों ने इमाम हुसैन समेत उनके पूरे परिवार का बेरहमी से कतल कर दिया था । इमाम हुसैन सांसारिक एषणाओं और सत्ता के लोभ से बहुत दूर रहने वाले सात्विक व्यक्तित्व के मालिक थे। उन्हें न सत्ता का लोभ था और ना ही भौतिक सुख-सुविधाओं की चाह। राज्यसत्ता के लोभी मुसलमान सत्ताधीशों ने उन्हें खत्म कर दिया । उस लड़ाई में बहुत से भारतीयों ने भी इमाम हुसैन के पक्ष में लड़ते हुये शहादत प्राप्त की थी । शिया समाज उसी वीर और सात्विक वृत्ति के व्यक्तित्व की पूजा करता है । लेकिन मुसलमान हजारों वर्ष बीत जाने के बाद भी इमाम हुसैन के प्रति अपनी कटुता को भुला नहीं पाये और उनकी स्मृति के रूप में निकाले जाने वाले प्रतीक ताजिये को आज एक बार फिर गिरा देने का प्रयास करते हैं । पाकिस्तान समेत अन्य इस्लामी देशों में शिया समाज को अत्याचार का यह दंश विवशता में झेलना पड़ता है । परंतु भारत तो इस्लामी राज्य नहीं है । इसलिये शिया समाज को अपने ढंग से अपने वीर पुरुषों और पूर्वजों की पूजा करने से कैसे रोका जा सकता है? लेकिन दुर्भाग्य से कश्मीर घाटी में पिछले दो दशकों से ऐसा ही हो रहा है । इस मरहले पर शिया समाज की घेराबंदी करने में मुसलमान और सरकार एक साथ हो जाते हैं।
जम्मू-कश्मीर सरकार ने इस बार बारह नबम्वर को श्रीनगर के शहीद गंज और कर्ण नगर में शिया समाज की परंपरागत पूजा को रोकने के लिये कर्फ्यू लगा दिया । परंतु इसके बावजूद जब शिया समाज के लोग कंधे पर ताजिया उठाये आगे बढ़ने लगे तो सुरक्षा बलों ने अश्रु गैस के गोले छोड़े और उन पर बेरहमी से लाठी चार्ज किया। जिस लाल चौक पर अलगाववादी और पाकिस्तान समर्थक मुस्लिम नेता दिन रात खुलेआम जलसे जूलुसों में भारत निंदा करते रहते हैं उस लाल चौक पर शिया समाज के ताजिये के प्रवेश को कुफ्र मान लिया गया और अनेक युवकों को गिरफ्तार कर लिया गया । इमाम हुसैन की शहादत की स्मृति का सरकार और मुस्लिम समाज द्वारा यह अपमान निश्चय ही निंदनीय है । हुसैन की यह लडाई अन्याय के खिलाफ थी । इसलिये उससे प्रेरणा लेना और अपने तरीके से उसकी याद की पूजा करने का अधिकार उनके अनुयायियों को निश्चित ही है । पुलिस शिया समाज पर किस प्रकार अंधा-धुंध लाठियां बरसा रही थी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक टी.वी. चैनल का संवाददाता पुलिस की गाड़ी से टकराकर बुरी तरह घायल हो गया। शिया समाज इमाम हुसैन की स्मृति में परंपरागत ढंग से नमन न कर सके इसलिये सरकार ने श्रीनगर के सभी प्रमुख हिस्सों लाल चौक, जहांगीर चौक, कोठीबाग, करालखुड, हब्बाकदल , सफाकदल, नवहट्टा, डलगेट और खनियार पर जबरदस्त मोर्चा बंदी की हुई थी । इन भिड़ंतो में अनेकों शिया घायल हो गये और अनेकों को बंदी बना लिया गया।
मुसलमानों का और खासकर सरकार का यह व्यवहार अनेक प्रश्न खड़े करता है । एक ऐसे राज्य में, खासकर कश्मीर घाटी में , जहां मुसलमानों की संख्या 80प्रतिशत के आसपास है, वहां अल्पसंख्यक समाज अपने ढंग और आस्थाओं के अनुसार पूजा-पाठ कर सके, क्या इसकी गारंटी देना सरकार का दायित्व नहीं है? क्या घाटी में सभी अधिकार गिलानियों और यासिन मलिकों के लिये ही सुरक्षित हैं ? घाटी का गुज्जर समाज, शिया समाज, हिन्दू-सिक्ख समाज और बौद्ध समाज आज इन प्रश्नों के उत्तर तलाश रहा है लेकिन दुर्भाग्य से सरकार उसका जवाब शिया समाज के ताजियों को जमीन पर गिराकर दे रही है।
यह ठीक है कि कानून व्यवस्था राज्य सरकार का जिम्मा है और यह होना भी चाहिये । लेकिन जिस प्रकार घाटी से हिन्दु समाज के निष्कासन पर केन्द्र सरकार केवल आंखें बंद करके ही नहीं बैठी रही बल्कि कहीं न कहीं इस निष्क्रमण में अप्रत्यक्ष सहायता भी करती रही , क्या वही इतिहास अब शिया समाज के मामले में दोहराने की तैयारी तो नहीं हो रही ? भारतीय संविधान सभी संप्रदायों को अपने विश्वासों के अनुसार पूजा पद्धति का अधिकार प्रदान करता है । यह भारत सरकार का सांविधानिक कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि देश के सभी राज्यों में इस अधिकार की रक्षा हो । कश्मीर घाटी भी इसका अपवाद नहीं है।
सैकुलर शैतानों से क्या उम्मीद kii ja sakti है