राजस्थान में मनरेगा के खराब दिन

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दिलीप बीदावत

दुनिया के विकसित और धनी देशों में छाई आर्थिक मंदी के बावजूद भारत की आर्थिक स्थिति हिलोरे खाते खाते फिर पटरी पर लौट आने में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कार्यक्रम ‘मनरेगा’ का  बड़ा योगदान है, इसे स्वीकार करना चाहिए। लोगों की जेब से लेकर अब बैंक खातों में जमा मजदूरी की राशि ने गरीबों और मजदूरों को अमीर तो नहीं बना दिया, लेकिन उनकी खरीद और बचत दोनों क्षमताओं को बढ़ाया है, जिसका लाभ बाजार और बैकों को हुआ है। इस कार्यक्रम ने गांवों में महिलाओं और पुरूषों दोनों को कमाने का विकल्प दिया है। पुरूष गांव से बाहर कमाने जाते हैं, तो महिलाएं महात्मा गांधी नरेगा में मजदूरी कर रही होती हैं, जिससे उनकी आजीविका सुरक्षित हुई है। हजारों परिवारों का बैंक खातों से लिंकेज हुआ है। गांवों में ढांचागत विकास संभव हुआ है। विद्यालयों, स्वास्थ्य केंद्रों, आंगनवाड़ी, ग्राम पंचायत भवनों की मरम्मत एवं नवनिर्माण के द्वार खुले हैं। जल एवं भू-संरक्षण को बढ़ावा मिला। अपना खेत अपना काम के तहत किसानों की व्यक्तिगत कृषि भूमि में सुधार एवं वर्षा जल संचय के संसाधनों के निर्माण से रेगिस्तान जैसे जल संकट वाले क्षेत्रों में पेयजल सुरक्षा बढ़ी है साथ ही महिलाओं के दूर-दराज से पानी लाने के कार्य का भार कुछ कम हुआ है।

लेकिन बदलते वक़्त के साथ दुनिया की सबसे बड़ी जॉब गारंटी योजना मनरेगा ग्रहण की शिकार हो चुकी है। देश के अन्य राज्यों की तरह राजस्थान में भी यह कार्यक्रम राजनैतिक इच्छाशक्ति और नौकरशाहों की गैरजवाबदेही का शिकार हो गया है। कानून में तो रोजगार पाने की गारंटी है, लेकिन वास्तव में लोगों को रोजगार उपलब्ध नहीं कराया जा रहा है। महात्मा गांधी नरेगा का काननू बनने और इसके क्रियान्वयन को 15 वर्ष हो चुके है। प्रारंभ में जिस तेजी और उत्साह के साथ इस कार्यक्रम को लागू करने की प्रतिबद्धता थी वह अब धीरे-धीरे मंद होती दिख रही है। इसको लेकर विभिन्न हितधारकों के अलग-अलग विचार भी बने हैं। कुछ लोग इसे मात्र गढ्ढा खोदने और भरने वाला कार्यक्रम बताने लगे हैं, तो कुछ लोग इसे भ्रष्टाचार का माध्यम बताते हुए अर्थहीन व्यय बता रहे हैं।

हालांकि आज भी कुछ प्रगतिशील विचारकों और अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मनरेगा से ग्रामीण क्षेत्र की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है। गरीब तथा पिछड़े तबकों को लाभ हुआ है। जाहिर सी बात है कि उद्योग जगत, व्यवसायी वर्ग और भूपतियों तथा उनकी आवाज में आवाज मिलाने वाले हितेषियों को इस योजना से खुशी नहीं है। उन्हें लगता है कि मनरेगा लागू होने के बाद से सस्ते में मज़दूर मिलने बंद हो गए हैं। लेकिन बीते कुछ वर्षों में मनरेगा के क्रियान्वयन में शिथिलता आई है। रोजगार गारंटी का कानून बन जाने तथा क्रियान्वयन के स्पष्ट दिशा निर्देशों एवं कार्यस्थल पर मैट, रोजगार सहायक से लेकर उच्च स्तर तक कार्मिकों की बड़ी फौज होने के बावजूद गत वर्षों के आंकड़े देखें तो लोगों को रोजगार उपलब्ध कराए जाने एवं सौ दिन का रोजगार प्राप्त करने की दर में गिरावट आई है। यह गिरावट तब और भी चिंता प्रकट करती है जब राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, आसाम, उत्तराखंड, गुजरात जैसे बड़ी जनसंख्या और गरीबी रेखा की ऊंची दर तथा प्राकृतिक आपदाओं से जूझने वाले प्रांतों में भी रोजगार उपलब्ध कराए जाने वाली दर में गिरावट आती जा रही है। आंकड़े बताते हैं कि देश-प्रदेश में बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई की मार झेल रहे ग्रामीण समुदाय को जरूरत के बावजूद रोजगार मुहैया नहीं कराया जा रहा है। राजस्थान भी ऐसे प्रांतों में से एक है। सरकारें बदलती गईं, लेकिन इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन का ढर्रा नहीं बदलता। वास्तव में इस कार्यक्रम को विकास और सतत विकास के वैश्विक लक्ष्यों की पूर्ति और ग्रामीण विकास के अवसर की तरह कभी देखा ही नहीं गया है।

महात्मा गांधी नरेगा कार्यक्रम की निगरानी और समीक्षा के लिए जिस प्रकार का प्रबंध सूचना तंत्र विकसित किया गया है, वैसा शायद ही किसी अन्य कार्यक्रम का होगा। इसके अंतर्गत प्रतिदिन प्रगति डेटा अद्यतन होता है जिससे गांव से लेकर राष्ट्रीय स्तर की स्थिति को देखा जा सकता है। जहां प्रगति नहीं दिख रही है, वहां सुधार के प्रयास किए जा सकते हैं। देश का यह इकलौता ऐसा कार्यक्रम है जिसको चालू करने की चाबी गांव, ढाणी में बैठे उस परिवार के पास है जिसे रोजगार की आवश्यकता है। लेकिन इसके बावजूद इस कार्यक्रम की प्रगति देखें, तो पिछले कुछ वर्षों में कुल पंजीकृत श्रमिकों में से मात्र 3 से 4 प्रतिशत लोग ही 100 दिन के रोजगार के लक्ष्य तक पहुंच पा रहे हैं। राजस्थान जैसे प्रदेश में जहां उद्योग धंधे सीमित हैं, खेती और पशु पालन बरसात पर निर्भर होने के कारण आय की अनिश्चितता रहती है, लोग रोजगार के लिए अन्य राज्यों में पलायन करते हैं, वहां पर महात्मा गांधी नरेगा कार्यक्रम में प्रगति का ग्राफ दिनों-दिन उतार-चढ़ाव ले रहा है। जनवरी 2020 तक प्रदेश में कुल 105.13 लाख लोगों को रोजगार पाने के लिए जारी जाब कार्ड वाले परिवारों में से चालू वित्तीय वर्ष की अंतिम तिमाही तक मात्र 3 लाख 20 हजार 182 लोगों को ही 100 दिनों का रोजगार मिला है।

हकीकत तो यह है कि लोगों को रोजगार की आवश्यकता है। लेकिन सरकार एवं उसके नौकरशाहों की नियत में खौट है। ना तो जनता द्वारा चुनी गई लोकतांत्रिक सरकारें लोगों को 100 दिन का और अकाल जैसी स्थिति में 150 दिन रोजगार उपलब्ध कराने के लिए प्रतिबद्ध नज़र आती हैं और ना ही जनता के टैक्स से वेतन पाने वाले कार्मिक जनता के प्रति जवाबदेह दिखते हैं। असंवेदनशीलता ग्राम पंचायत स्तर पर भी नज़र आती है, जहां अक्सर लोगों के काम की मांग के आवेदन ही स्वीकार नहीं किये जाते हैं। ग्राम पंचायत में मांग का निर्धारित प्रपत्र ही उपलब्ध नहीं होता। आवेदन की मांग करने और गारंटी की पावती रसीद मांगने पर प्रताड़ना के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। तो कहीं गांव से अधिक दूरी पर काम देना और मजदूरी कम देना जैसे तरीके सजा के तौर किये जाने के कारण भी लोग इस कार्यक्रम के प्रति उदासीन होते जा रहे .

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