-अरुण तिवारी-
नीति आयोग ने इस नीति पर काम करना शुरु कर दिया है कि राज्य, केन्द्र की ओर ताकने की बजाय, अपने संसाधनों के विकास पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान कैसे दे ? इसके लिए नीति आयोग के दलों ने राज्यों के दौरे भी शुरु कर दिए हैं। इस नीति से किन राज्यों को लाभ होगा और कौन-कौन से राज्य घाटे में रहेंगे ? इस नीति से पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील राज्यों में विकास और पर्यावास के बीच संतुलन साधना कितना संभव होगा; यह भी एक प्रश्न है। इस नीति में राज्य से आने वाली केन्द्रीय कर राशि के आधार पर केन्द्रीय बजट में राज्य की हिस्सेदारी का विचार भी सुनाई दे रहा है। इससे आप आशंकित हो सकते हैं कि इससे कमजोर आर्थिकी वाले राज्यों में स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन की विवशता बढ जायेगी; जिसके दुष्प्रभाव व्यापक होंगे।
ये सभी प्रश्न और आशंकायें अपनी जगह सही हो सकती हैं। किंतु इस नीति के कारण, मैं स्वावलंबन और स्वनिर्णय का एक अवसर खुलता हुआ देख रहा हूं। यदि मैं इस नीति को ठीक से समझ सका हूं तो इस नीति के कारण, प्रत्येक प्रदेश को अपने भूगोल, अपने मानव संसाधन और अपनी जरूरत के मुताबिक अपने प्रादेशिक विकास का माॅडल खुद तय करने का अवसर ज्यादा खुले तौर पर मिल जायेगा।
हिमालयी राज्यों के नागरिक संगठन, लंबे अरसे से हिमालयी प्रदेशों के विकास की अलग नीति मांग कर रहे हैं। मैं समझता हूं कि नीति आयोग की यह नीति, जाने-अनजाने इसके दरवाजे खोल रही है। खुले दरवाजे का लाभ लेने के लिए जरूरी है कि प्रदेश सरकारें अपने प्रदेश की सामथ्र्य, संवेदना और जरूरत का आकलन कर टिकाऊ विकास का खाका तैयार करने में जुट जाये। इस दृष्टि से उत्तराखण्ड जैसे संवेदनशाली राज्य के टिकाऊ विकास का खाका बेहद सावधानी, समझ, संवेदना, समग्रता और दूरदृष्टि की मांग करता है। इस मांग की पूर्ति के लिए आॅक्सफेम इंडिया ने साझा संवाद आयोजित करना तय किया है।
एक साझी पहल
’उत्तराखण्ड के स्थायी विकास हेतु साझी पहल’ – इस शीर्षक के तहत् आयोजित यह संवाद 23-24 जून, 2015 को डायनेस्टी रिज़ोर्ट, कुरुपताल, नैनीताल, उत्तराखण्ड में होगा। आप इस संवाद को 13 फरवरी, 2014 और 23 दिसम्बर, 2014 में हुए पूर्व संवादों की कङी में अगले कदम के रूप में देख सकते हैं।
चिंता, उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं होने के आकलन से शुरु होती है। उत्तराखण्ड के पास न तो अपनी कोई प्रदेश स्तरीय अधिकारिक जलनीति है, न पुनर्वास नीति और न ही आपदा प्रबंधन तथा टिकाऊ विकास का कोई अधिकारिक खाका। प्राप्त आमंत्रण पत्र में उल्लिखित ऐसे कुछ संकेत स्पष्ट करते हैं कि उत्तराखण्ड शासन को चाहिए कि वह उत्तराखण्ड के निवासियों, संगठनों और विशेषज्ञों के साथ बैठकर जानने की कोशिश करे कि वे कैसा विकास चाहते हैं ? विधानसभा, जनता की राज्य स्तरीय प्रतिनिधि सभा होती है। किंतु न विधानसभा ने यह कोशिश की और न ही शासन ने।
साझे मंच की जरूरत
ऐसा लगता है कि इस स्थिति को देखते हुए ही आॅक्सफेम इंडिया के निर्णायकों ने तय किया है कि एक ऐसा फोरम विकसित किया जाये, जो न सिर्फ टिकाऊ विकास की जनदृष्टि को सामने लाये, बल्कि आपसी सहमति विकसित करने का भी काम करे। इस फोरम के दो अन्य मकसद, उत्तराखण्ड की नीतियों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने व विकास में सहभागिता के लिए नागरिक संगठनों को तैयार व एकजुट करना भी है।
फोरम में विश्वविद्यालयों, संस्थानों, विशेषज्ञों, नागरिक संगठनों, कार्यकर्ताओं, मीडिया, सेवानिवृत अधिकारियों तथा विकास के लाभार्थी पक्षों की सहभागिता पूर्व संवादों में सहमति है। संभवतः इसी दृष्टि से मुझे भी आमंत्रण प्राप्त हुआ है।
उम्मीद है कि प्रकृति की ओर से लगातार मिलते संदेशों के बीच, उम्मीदों का साझा हासिल होगा। सातत्य, सक्रियता, आपसी साझे और जवाबदेही के निजी संकल्प से ही यह संभव होता है। काश! यह हो।