300 सालों से लोकगीतों में जीवित है कृष्ण भक्त चदसखी

आत्माराम यादव पीव

      हिन्दी साहित्यकारों में जितनी प्रसिद्धि कबीर, तुलसी, मीरा,रसखान आदि को प्राप्त है वहीं लोक-गीतकारों में उतनी ही प्रसिद्धि ’चदसखी’’ को प्राप्त है, या यह कहे कि लोक-प्रियता में चदसखी का नाम मीरा से भी ज्यादा है परन्तु यह अज्ञेय ही कहा जायेगा कि चदसखी  महिला कवियित्री थी अथवा कोई, पुरूष कवि थे। उत्तरप्रदेश के विद्धान लेखक प्रभुदयाल जी मीतल उन्हें पुरूष कवि मानते है वही मध्यप्रदेश में उन्हें महिला कवि मानकर उनकी रचनाओं से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है परन्तु उनकी अन्य रचनाओं में यह संशय बना होने से यहॉ दोनों ही दृष्टियों को रखा गया है ताकि पाठक स्वयं इसका निर्णय ले सके। ठेठ ब्रजभाषा, राजस्थानी, मालवी और बुन्देलखण्ड में ’’चदसखी’’ का नाम भले विख्यात नहीं है परन्तु उनकी रचनाओं ने उत्तरभारत सहित मध्यभारत के भूभाग में लोकप्रियता की चर्मोत्कृष्टता की सीमा को लॉघा है। चदसखी की रचनाओं का व्यापक प्रचार-प्रसार है और आये दिन हम कहीं न कहीं उन्हें सुनते-पढ़ते रहे है पर चदसखी कौन है, कहॉ से है, उनके जीवनवृतान्त से हम अनभिज्ञ है। चदसखी’’ की रचनाओं में जो भी भजन-लोकगीत प्राप्त होते है उनमें अंतिम पंक्तियों मे प्रायः चदसखी भज बालकृष्ण छवि’’ अथवा चदसखी ब्रजबालकिसन छवि, आदि शब्दावली प्राप्त होती है जो ब्रज, राजस्थान,  बुंदेली, मालवी, निमाड़ी आदि अनेक बोलियों में जन-साधारण में, विषेषकर स्त्री समुदाय में, या ब्रज के रास मण्डलों को प्रिय है वहीं आजकल श्रीमदभागवत कथा वाचकों द्वारा व्यासपीठों से उन्हें गाया जाता है और करोड़ों नर-नारी की जिव्हा पर ’चदसखी’ के भजन रचे-बसे है और भक्तिभाव से प्रेरित हो भक्तगण गाते समय सामूहिक नृत्य का आनन्द भी प्राप्त करते है।

      कृष्ण के जन्म के बाद वसुदेव जी द्वारा गोकुल में छोड़ने के दरम्यान यमुना जी द्वारा मार्ग देने, नंदबाबा के घर पलने में झूलने तथा पूतना के आने तक की लीलाओं का मधुर चित्रण इस प्रकार देखा जा सकता है-

       अनौखों जायो ललनामैं वेदन में सुनि आई।

      मथुरा में जाने जनम लियो हैगोकुल में झूले पलना।। मैं वेदन में..

      लै वसुदेव चले गोकुल कूं मारग दे गई जमुना।

      कर सिंगार पूतना चालीपलना ते ले लियो ललना।। मैं वेदन में ..

      रतन जटित को बन्यौ पालनोरेसम के लागे फूंदना।

      चदसखी भज बालकृष्ण छविया को घर-घर खेले ललना। मैं वेदन में ..

      कृष्ण जन्म के मंगलमय चरित्र को मंगलाचरण करते चदसखी की दृष्टि में अनेक रूपों एवं भावों का अनूठा स्वरूप देखने को मिलता है और कृष्ण जी की सुबह की आरति का आनन्द एवं गोकुल, मथुरा,  नन्दगॉव, बरसाना, गोर्वधन, आदि ब्रज क्षैत्र की पावन ओर पवित्रता के मंगलमय होने का चित्रण किया गया है-

      मंगल आरति कीजे भोर

      मंगल मथुरा मंगल गोकुलमंगल राधा नन्दकिशोर।

      मंगल लकुट-मुकुट वनमालामंगल मुरली है घनघोर

      मंगल नन्दगॉव बरसानौमंगल गोवर्धन गिरि मोर।।

      मंगल बंशीवट तट जमुनामंगल लता झुकी चहुं ओर।

      चन्द्रसखी भज बालकृष्ण छविमंगल ब्रजवासी की ओर।।

      चदसखी के इसी मंगलमय भाव की झॉकी के दर्शन में कृष्ण के जन्म को मंगलमय बताकर उनके स्वरूपों का सुन्दर बखान एवं मंगलमयी ब्रजवासियों के आनन्द व उल्लास से भरे जीवन में श्रीकृष्ण की आरति का भाव दिल को छू जाता है-

      मंगल आरति नंदकुवर की।

      जसुमति सुत श्रीराधावर की।।

      मंगल जनम-करम कुल मंगल,  मंगल जसुमति माखनचोर।

      मंगल मोरमुकुट-कुंडल छवि,  मंगल मुरलि बजे घनघोर।।

      मंगल ब्रजवासी सब मंगलमंगल गान करें चहुओर।

      मंगल गोपि-ग्वाल सब मंगलमंगल राधा नन्दकिसोर।।

      मंगल श्री हलधर सब मंगलमंगल राधा जुगलकिसोर।

      मंगल ये मूरत मन मोहेचदसखी की लगी चरनन डोर।।

      जब कृष्ण बालक बालरूप में अपने घर के आँगन में मस्ती करते है ओर उनके पॉव में चान्दी की घुन्घरूवाली नेवर पहनी होती है ओर वे छोटे-छोटे कदमों से भागते है तब उनके पैरों से बजने वाली ध्वनि में यशोदा मॉ अपनी सुधबुध खो जाती है। नन्दबाबा के घर दूध-दही की कमी नहीं है लेकिन कृष्ण को घर का दूध दहि भाता नहीं है इसलिये वह माखन और मिश्री खाने तथा घर में एक से एक सुन्दर मखमली वस्त्रों-पीताम्बर, पटबर के रहते उन्हें काले रंग की कामरिया ओढकर सबको सुख पहुचाते है। जब वृन्दावन में रास होता है तब हजारों गोपियों को अकेले कृष्ण द्वारा नचाते देख कवि चदसखी के भाव जाग जाते है ओर वे उन चरण कमलों की बार-बार बलैया लेते लिखते है कि-

      नॉचे नंदलालनचावे बाकी- मैया।

      रूझक-झुमक पॉय नेवर बॉजे ठुमक-ठुमक पॉव धरत कन्हैया।

      दूध न पीवे कान्हादही न खावेमाखन मिसरी को बड़ो री खिवैया।।

      पाट-पटबर कान्हा ओढ़ न जानेकारी कमरिया को बड़ो री औढैया।।

      वृन्दावन में रास रच्यौ हैसहत्र गोपिन में नाचे एक कन्हैया।।

      चदसखी भज बालकृष्ण छविचरन कमल की मैं लेउ रे बलैया।।

      चदसखी ने कृष्ण के साथ  राधा जी के मोहक स्वरूप का वर्णन अनौखे अंदाज में करते हुये उनके परम सौन्दर्यमयी केशों का लौकिक चित्रण करते हुये श्रृंगार पक्ष में उन केशों के घुंघराले होने की विशेषता के अलावा दूसरे पक्ष में उनके उलझे होने पर सुलझाने और उनमें मोतियों की माला के साथ चोटी गुथने पर निखर आये दिव्यतम सौन्दर्य को दर्पण में अवलोकन करने का अनूठा वर्णन किया है-

घूघर वाले बालराधे तेरे घूंघर वाले बाल।

सुरझावे सुरझत है नाहींअपने हाथ संभाल।।

रतन जतन कर बेनी गुह दईमोतिन मॉग संभाल।। राधे तेरे ..

लै दरपन मुख देखन लागीकैसो बन्यौ सिंगार।

चदसखी भज बालकृष्ण छविहरि के चरण बलिहार। राधे तेरे ..

      लीलाधारी कृष्ण गोपियों से मिलने के लिये अनेक बहाने तलाशते है, कभी वे मनिहारी का रूप धर चूड़िया बेचने आ जाते है तो कभी वैद्य बनकर उनकी नाड़ियॉ देखने के बहाने अपने प्रेम को प्रगट करते है। चदसखी ने अपने भावों में राधा जी के एक सुन्दर मोहक प्रसंग का वर्णन करते हुये लिखा है कि राधा जी की अंगुली में काले नाग ने काट लिया तब पूरे प्रसंग में वैद्य के रूप में गोकुल से कृष्ण को बुलवाया जाता है और कृष्ण वैद्य बनकर आते है लेकिन वे राधा जी की नाड़ी देखे बिना उनके नयनों में अपने नयमों का मिलाप करते है –

डस गयो कालियो नाग, राधे जी की अंगुली में।

सात सखी मिल चली बाग मेंकर सोलह सिंगार।।

ऐसो डंक दियो काली नेपीलो पड़ गयो गात।

एक सखी तो करे बिछौनादूजी ढौले ब्यार।

तीजी सखी यू उठि बोलीलाओ न वैद्य बुलाय।

नन्दगॉव से वैद्य बुलाओबैठयों पलंग पर आय

नाड़ी की तो कदर न जानेनैन से नैन मिलाय।

चदसखी भज बालकृष्ण छविहरि चरनन चित्त लाय।।

      जहॉ कृष्ण की अनेक लीलाओं का वर्णन है वहीं पर अगर होली की बात न की जाये तो कृष्ण का चरित्र अधूरा लगता है यह बात चदसखी से छिपी नहीं रही तभी उन्होंने एक गोपी की उलाहना का वर्णन किया है कि कृष्ण की पिचकारी के रंग से उसकी साड़ी पूरी भीग गयी है और जो चोली वह पहनकर आयी थी उसका रंग पिचकारी के रंग से फीका पड़ गया है तथा वह गीली हो जाने के कारण उसका लॅहगा भी गीले रंग के वजन से भारी हो गया, तब वह कृष्ण से निवेदन करती है कि आप जीत गये और मैं हार गयी-

मत मारो पिचकारी, मै तो भीग गयी सारी।

जो मारो तो सनमुख मारोनातर दूंगी में गारी।

सास बुरीमेरी ननद हठीलीपिया दैवे छै गारी।

चोबा,चन्दनअगर अरगजाकेसर की पिचकारी।।

चोली को रंग फीको पड़ गयोलॅहगो हो गयो भारी।

चदसखी भज बालकृष्ण छवितुम जीतेमैं हारी।।

       कृष्ण की बाललीला दधि माखन लूटने का प्रंसग और गोपियॉ का जसोदा जी को उलाहना प्रमुख रहा है जिसमें गोपियॉ कृष्ण की शिकायत कर यह तक कहने से नहीं चूकती है कि अब तुम्हारे लाला के कारण हम ब्रजभूमि को छोड़कर दूसरे नगर में बस जायेंगे ताकि रोज-रोज उसके द्वारा राह रोकने और मटकी फोड़ने से बच सकेंगी। गोपियों से इस तरह के दबाव न देने की बात पर चद्सखी  कहते है और सलाह देते है कि जैसे चकोर-चन्द्र की प्रीत होती है वैसी ही तुम कृष्ण से करो तो परमानन्द प्राप्त होगा-

       जसोदा तेरे लाला नेमेरी दई है मटुकिया फोर

      दही की मटुकी धरे सीस परमैं आई बड़ी भोर। जसोदा तेरे… .

      आन अचानक कुंज गलिन मेंमिलि गयो नन्दकिसोर

      मोसे कहत नाच मेरे संग मेंकरि बिछअन की घोर। जसोदा तेरे ..

      हम न बसेगी अब या ब्रज मेंलियो सबन मुख मोर

      छोटी सी कोई ओर नगरियालेगी अनत टटोर।। यसोदा तेरे…

      गहवर वन और खोर साकरीनित नई लीला होय

      मारग मेरो घेर लियो हैमटकी डारी फोर। जसोदा तेरे…

       ’चदसखी’ यो कहे ग्वालिनीमति जताबे जोर

      प्रीत करो या नदनंदन सेजैसे चन्द चकोर। जसोदा तेरे ..

      एक समय था जब देश के विभिन्न कोनों में रासमंडलों के द्वारा रासलीला मंचन में हर गाँव, हर शहर तथा वहाँ के मंदिरों में इस गीत को गाये बिना आनंद नहीं आता था। चदसखी के इस गीत में उन्होने वृन्दावन की महिमा का गुणगान करते हुये हर घर में कन्हैया की सेवा और दर्शन का महत्व वर्णन करते लिखा है कि वृन्दावन में कृष्ण को हीरा,माणिक,पन्ना आदि नवरत्नों के सिहासनपर विराजमान कर तुलसीदल का मुकुट पहनाया जाता है। यमुना के उस तट का बखान सुखद है जहॉ कृष्ण अपनी मोहक बांसुरी बजाकर सबको मोहित करते है जिसे चदसखी बड़ी ही सहज सरलता से इन स्थानों को ब्रज का तिलक बताती है और इनके आगे सारा संसार नीरस लगता है यह भाव व्यक्त करते है कि वृन्दावन को अपने दिल के पास, अपना सा लगने लगता है-

      लागे वृन्दावन नीको आलीमोहे लागे वृन्दावन नीको।

      घर-घर ठाकुर सेवा विराजै दर्शन गोविन्द जू को।

      रतन सिंहासन ठाकुर विराजैमुकुट धरे तुलसी को।। मोहे लागे….

      बंशीवट जमुनातट सुन्दर,  सब ब्रज को है टीको।

      चदसखी भज बालकृष्ण छविसब जग लागत फीको।। मोहे लागे ..

      कृष्ण की बाललीलाओं का सुन्दरतम चित्रण जिस प्रकार चदसखी के भजनों-गीतों में मिलता है उसका दूसरा स्वरूप कहीं ओर देखने को नहीं मिलता है। बचपन में अपने सखाओं के साथ यमुना के तट पर कालीदह के पास गेन्द खेलने की लीला कर जिस प्रकार गेन्द को कालियानाग के निवास में फैककर अपने सखाओं में गेंद वापिस लाने के लिये जिद ठानने है वह ब्रजवासियों के दिल दहलाने वाली बात थी किन्तु प्रभु ने असंभव को संभव कर कालियानाग को नाथकर यमुना से दूर भेज सभी के प्राणों की रक्षा की, यह चित्रण इस भजन से समझा जा सकता है-

कालीदह पर खैलन आयो री मेरौ बारो सो कन्हैया।

काहे की या ने गेंद बनाईकाहे को डण्डा लायो री।।

पट रेसम की गेंद बनाईचन्दन डण्डा लायो री। मेरौ बारो सो….

मारयो टोल गेंद गई दह मेंवो गेन्द के संग ही धायौ री

नागिन री तू नाग जगाय देवो नाग नाथिवे आयो री। मेरौ बारो सो…

चदसखी’ भज बालकृष्ण छवियह जीवन प्राण हमारो री। मेरो बारो सो….

    आज हम भागवत कथाओं के वक्ताओं द्वारा व्यास गादी से ’चदसखी’ के  जिस रसभरे भजन को सुनकर कथा पांडलों में आनन्द से झूमने नाचने लगते है वह भजन की बानगी से चदसखी की लोकप्रियता का अंदाज लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने कृष्ण के टेढ़ेपन की बात कर जतलाने का प्रयास किया है कि कोई भी उन जैसा नहीं है और यहीं भाव सबको सुखद अनुभूति प्रदान करता है जिसमें व्यक्ति मनरूपी सरिता में भक्ति के गोते लगाने से स्वयं को नहीं बचा पाता है-

      तू टेढ़ौ तेरी टेढ़ी रे डगरिया

      तू टेढ़ो है नन्दबाबा कोमैं टेढ़ी वृषभान-दुलरिया।

      टेढ़ौ ही तेरौ मोर मुकुट हैमेरी तो टेढ़ी लाल! सिर की इडुरिया।

      टेढ़ौ ही तेरे पंचरंग पेचौमेरी तो टेढ़ी लाल ! सुरख चुनरिया।।

      जमुना भी टेढ़ीटेढ़ी कॅलगीऔर टेढ़ी लाल ! गोकुल नगरिया।

      चदसखी’ भज बालकृष्ण छविचिरजीवी रहो स्याम सुन्दरियॉ।।

     कृष्णभक्ति का सुख उनकी  लीलाओं के गायन और आनन्द प्राप्ति के लिये सुखद है। जो भक्ति से विरक्त है उन्हें भी सीख देने के लिये कवि चदसखी लिखते है कि जगत में जो चार वर्ण कहे गये है उन वर्णो-जातियों में वही बड़ा है जो राधा जी के नाम का निरंतर जाप करता है। जो चौबीसों घन्टे कमा-कमा कर धन के अम्बार लगाने और महल-अटारी बनाने में खुद को झौंक चुके है, उन्हें आगाह करते है कि यमराज की खबर आते ही यह सब कमाया यहीं छूट जाना है। यह जगत तथा नाते-रिश्ते सभी झूठे और मतलबी है अपना मतलब निकालने तक वे जुडे़ है जिन्हें त्यागकर तू राधा की शरण में आ जा और राधे का जाप कर ताकि जन्म मरण के चक्करों से मुक्त हो सकेगा-

चार बरन में सोई बड़ाजिन राधा नाम रटा।

काहे को जोड़त माल खजानाकाहे को छॉवत उॅचों अटा।

जब जम की तलबी आयेगीछोड़ जाये सब लटा-पटा।।

यह दम हीरा लाल अमोलकपल-पल में जाये घटा-घटा।

वहॉ से आया कौल कराल कायहॉ फिरत तू नटा-नटा।

अपने कुटुम्ब को ऐसे देखेपलक उठाये पटा-पटा।

जब तेरा हंसा चला जात हैछोड़ जाये तो राज-पटा।।

यह संसार मतलब का गरजीबातें करता झूठ-मठा।

चदसखी भज बालकृष्ण छविकानन कुण्डल मुकुट जटा।।

        लोकप्रिय भजनों की रचयिता चदसखी खुद लोकप्रिय नहीं है उनके प्रति लोगों में अज्ञानता आश्चर्यचकित करने वाली बात है उनके द्वारा भक्ति में अपने इष्ट की स्तुति करने का सुन्दर उदाहरण ओर कहीं देखने को नहीं मिलता है-

      जय जय जसोदा नंदन कीजग वन्दन की।

      भाल विसाल माल मोतियन कीखौर विराजे चन्दन की।।

      पैठि पताल कालिनाग नाथ्योंफन पर निरत करदन की।

      जमुना के नीरे तीरे धेनु चरावेहाथ लकुटिया चन्दन की।।

      इन्द्र ने कोप कियो ब्रज ऊपरनख पर गिरवर धारन की।

      केसी मारे,कंस पछारेअसुरन के दल भंजन की।।

      उग्रसेन को राजतिलक दियोरक्षा करी सब संतन की।

      घटा-ताल पंखावज बाजेगहरि धुनि सब संतन की।।

      आप तो जाये द्वारका छायेपल-पल लहर तरगन की।

      आसपास रत्नाकर सागरसोभा करत किलोलन की।।

      चदसखी’ भज बालकृष्ण छविचरण कमल रज बंदन की।।

    एक ओर भजन है जिसकी ख्याति सभी जगह है जिसमें आराध्य कृष्ण की महिमा को सर्वोच्च स्थान पर रखकर भक्ति की चर्मोत्कृष्टता का आनन्द प्राप्त होता है जिसे गाते समय लोगों की दीवानगी सभी श्रोताओं को आल्हादित करती है –

      मुकुट पर बारि जाऊनागर नन्दा

      सब देवन में कृष्ण बड़े हैज्यों तारन में चन्दा।

      सब सखियन में राधा बड़ी  हैसब ग्वालन में गोविन्दा

      सब पहाडन में हिमालय बड़ो हैसब तीरथ में गंगा।

      चदसखी भज बालकृष्ण छविहरि की सेवा में बड़ो आनन्दा।।

      चदसखी की दो सो से अधिक रचनाओं कि बात कही गई है जिसमें उनकी रचनाओं को मुद्रित रूप से प्रकाशित करने के लिये सर्वप्रथम कृष्णानन्द जी व्यास का नाम आता है जिन्होंने अपने ग्रन्थ राग कल्पद्रुम में 18 गानों को स्थान दिया। इसके बाद राग रत्नाकर तथा भक्त चिंतामणि में उनके 11 भजन प्रकाशित हुये बाद में 1990 में राजस्थान रिसर्च सोसायटी  कलकत्ता द्वारा मारवाडी भजन सागर नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें 54 भजन चदसखी के प्रकाशित हुये तथा कुछ गीत ब्रज में एकादशी जागरण तथा भजनसंग्रहों में प्रकाशित किये गये। राजस्थान के सुप्रसिद्ध विद्धान नरोत्तमदास स्वामी ने सर्वप्रथम राजस्थानी में किया जिसे ठाकुर रामसिंह द्वारा चदसखी रा भजन नाम से किया जिसे मारवाड़ी भजन सागर में अन्यों द्वारा संकलित कर प्रकाशित किया गया। राजस्थान के लेखक विद्धान महावीर सिंह गहलोत ने 84 रचनाओं का प्रकाशन चदसखी पदावली के नाम से 2004 में किया जिसपर सुश्री पद्यावती शबनम ने 2011 में चदसखी और उनका काव्यनामक पुस्तक में उनके 114 भजनों को शामिल किया गया। इसके अलावा अन्य अनेक लेखकों में अनेक स्थानीय बोलियो-भाषाओं में चदसखी के रचे इन लोकगीतों को अपने प्रदेश-स्थान में प्रचलित मिश्रित भाषाओं में किये जाते रहे है।

     चदसखी के जीवनवृत की जानकारी प्रायः नही के बराबर है और हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनके नाम का उल्लेख तो मिलता है किन्तु प्रमाणित जानकारी न मिलने से बात खटकती है। जहॉ एक और उनके यथार्थ काल का निर्णय नही हो सका वहीं यह बात भी निश्चित नहीं है कि वे स्त्री थे या पुरूष । उनके भजनों-गीतों के गाने वालों को भी यह इल्म नहीं कि वे महिला कवियित्री थी अथवा सखी नामधारी कोई पुरूष कवि, चदसखी उनका नाम है, अथवा उनका उपनाम, उनकी रचनाओं में उल्लेखित ’बालकृष्ण’ कौन थे, किस सम्प्रदाय से थे, उनके गुरू या उपास्यदेव कौन थे, उन्होंने भजनों और गीतों की रचना कब और कहॉ की है और कितनी रचनायें उनके नाम से उपलब्ध है और कितनी उनके नाम पर से अन्य व्यक्तियों ने रच डाली, यह सब संशय की स्थिति में है। कारण इसलिये भी है कि ब्रज में रहने वाले ब्रजवासी उन्हें ब्रजवासी बताते है तो राजस्थान के लोग उन्हें राजस्थान का निवासी बतलाकर राजस्थानी समझते है। दूसरी ओर बुन्देलखण्ड और मालवा के लोग उन्हें अपने प्रान्तों का मानते हैं, यह सब भ्रांतिया उनके सम्बन्ध में प्रामाणिक सामग्री प्राप्त न होने से  है और ’चदसखी’ ने अपने विषय में कुछ भी नहीं लिखने के कारण उनके विषय में सभी विद्धानों की अलग राय है और माना जाता है कि उनके समकक्ष व्यक्तियों द्वारा उनके सम्बन्ध में बहुत कम लिखा है और जो लिखा है वह अधिकतर अप्रमाणित है जो प्रामाणित है वह अप्रकट है।

      उत्तरप्रदेश सूचनाविभाग लोक साहित्य समिति द्वारा 1957 में प्रभदुयाल मीतल के सम्पादन में प्रकाशित  ’चदसखी के भजन और लोकगीत’  शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में चदसखी को पुरूष माना है और इस संकलन में सहयोग करने वाले राजस्थान के प्रसिद्ध विद्धान अगरचन्द नाहटा आदि ने चदसखी के भजनों पर प्रकाशित पुस्तकों का पूर्ण विवरण का उल्लेख किया है। प्रभुदयाल जी मीतल ने ’चदसखी’ का जन्म समय संवत 1700 के कुछ पूर्व बुन्देलखण्ड ओरछा में होने का उल्लेख करते लिखा है कि उनका मूलनाम चद या चन्दलाल था, किन्तु मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दुओं को जबरिया मुस्लिम धर्म अपनाने के दरम्यान वे अपने को चदसखी कहने लगे थे। उनकी रचनाओं में चद’, ’चदसखी दोनों मिलते है। उनके आरम्भिक जीवन में ओरछा के निकट मोठ थाना में वे थानेदार भी रहे है और वे अपने जन्मस्थान,पद गौरव तथा घर का मोह त्यागकर वृन्दावन चले गये थे जहॉ राधावल्लभीय सम्प्रदाय के विख्यात संत श्रीबालकृष्ण स्वामी से दीक्षा लेकर वृन्दावन में ही निवास करने लगे और उसी समय उन्होनें भक्ति संबंधी पदों की रचना करना आरम्भ किया। चदसखी की रचनाओं की लोकप्रियता और लय में गायकी को सुनकर उनके गुरू बालकृष्ण स्वामी ने उन्हें कृष्णभक्ति की अलख जगाने के लिये देशाटन की अनुमति दी और वे राजस्थान, मालवांचल, बुन्देलखण्ड में अपने भजनों-लोकगीतों को जन-जन में प्रसारित कर देशाटन से वृन्दावन लौट आये तथा केशी घाट पर अपना निवास बना लिया और वहॉ एक विशाल कुंज बनवाया जो आज चदसखी’ कुंज के नाम से प्रसिद्ध है। प्रोढ़ावस्था में वे वृन्दावन से वापिस औरछा आ गये जहॉ राजा उदोतसिंह ने उनकी बड़ी सेवा-षुश्रुआ की और कहा जाता है कि आसाढ़कृष्ण एकादशी को संवत 1758 में उनका देहान्त हो गया।

    उत्तरप्रदेश पूर्वी राजस्थान और उत्तर-पश्चिमी मध्यप्रदेश के जनसाधारण में, ’चदसखी’ के भजन इतने लोकप्रिय थे कि प्रत्येक अवसर पर उनकी गूज सुनाई देने लगी तथा वे जनजीवन में अनिवार्यरूप से बस गये और मांगलिक, धार्मिक आयोजनों सहित सुबह घरों में चक्की चलाते समय गृहणियॉ, झाडू-बुहारी करती बहिन-बेटियॉ ’चदसखी’ के भजनों को गाती-गुनगुनाती आनन्द व उल्लास महसूस करती रही है। पनघट पर कुओं पर पानी भरने जाना हो या गंगा,यमुना या नर्मदा अथवा किसी भी नदी-तालाब-सरोवर पर पानी भरने-स्नान करने आते जाते महिलायें ’चदसखी’ के गीतों को मधुर ध्वनि में गाते हुये सॉझ के सुखद वातावरण को तथा भोर के सुन्दर स्वाभाविक दृष्य को सुहावना स्वरूप देकर जीवन में आनन्द भर देती थी। मंदिरों में दैनिक आरति-प्रार्थना,कीर्तन हो या अतिरिक्त त्यौहार,व्रत,पर्व का उत्सव हो रात्रि जागरण में संगीतज्ञों और गायकों की मण्डली में ’चदसखी’ की रचनायें सुवासित होती रही और गीत-संगीत में ’चदसखी’ की रचनायें ऐसे जान पड़ती मानो दूध-षकर आपस में घुलमिल गये हो। राजस्थान में जहॉ मीराबाई की रचनाओं का घर-घर प्रचार था वही मीराबाई से अधिक लोकप्रिय ’चंदसखी’ रही है। 

      चदसखी को कुछ विद्धान पुरुष न बता महिलाभक्त मानकर अपने तर्क एवं साक्ष्य प्रस्तुत करते है। आदिवासी लोककला एवं तुलसी साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद भोपाल द्वारा प्रकाशित ’’लोक की भक्ति’’ में कपिल तिवारी के संपादन में डॉ.पूरन सहगल द्वारा संकलित अनुवादित लेख ’’कृष्णभक्त चन्द्रसखी’’  में ’चदसखी को चम्बल नदी के किनारे बसे ग्राम ’बर्रामा’ की बेटी माना है। डाक्टर सहगल ने अपने लेख में ग्राम बर्रामा में  निवास करने वाले लोगों और जातियों में देवड़ा राजपूत,गूजरों, कछेला चारणों, कीरों के आपसी भाईचारे से निवास के साथ अहीरों, गूजरों तथा कछेला चारणों द्वारा गोचारण के जीवनक्रम का वर्णन किया है और कछेला चारण की बेटी रूपकुवर का बाद में नाम परिवर्तन कर चन्दसखी रखे जाने के प्रसंग को विस्तार से लिखा है।

      चन्दसखी नाम के पीछे के तर्क में कहा गया है कि रूपकुवर की मॉ जगकुवर कृष्णभक्त थी जिन्हें गॉव में आयी एक अन्य कृष्णभक्त ने चन्द्रावली का अवतार बताकर उसका नाम चन्दसखी कर दिया। रूपकुवर का विवाह राजस्थान के ढाणी गॉव में होने का उल्लेख करते लिखा है कि चदसखी को उसका भाई ससुराल छोड़ने गया जहॉ रूपकुवर पर इतनी ज्यादा ज्यादतियॉ हुई कि वह घबराकर अपने भाई के साथ घोड़े पर सवार हो बर्रामा निकल पड़ी लेकिन रास्ते में एक पठान जागीरदार ने उसे घेर लिया और द्वन्द युद्ध में भाई वीरगति को प्राप्त हुआ तथा रूपकुवर को पठान ने कालकोठरी में कैद कर लिया। कालकोठरी में रूपकुवर ने भगवान कृष्ण की आर्त वन्दना की तब भगवान कृष्ण उसके भाई के रूप आये और उसे पठान की कालकोठरी से मुक्त कराकर बर्रामा गॉव छोड़ आये तभी से रूपकुवर ने भगवान कृष्ण को भाई रूप में स्वीकार कर उनके भजन गाये और बर्रामा गॉव में निवास करने लगी और बूढ़ी होने पर वृन्दावन चली गयी जहॉ जमुना तट पर उन्होंने अपने प्राण त्यागे। बर्रामा में एक स्थान चन्द्रा की बाडी उनकी स्मृति में आज भी होना बताया जाता है और चन्द्रसखी को बर्रामा में सतीमाता के नाम से पुकारा जाता है।

       चदसखी के जन्म समय को लेकर लेखकों के मतभेद है वही यह निश्चित नहीं कहा जा सकता है कि आरेछा में जन्मे चद, चन्दूलाल जो ओरछा के पास मोठ के पुलिस थाने में थानेदार थे वे ही वास्तविक चदसखी है अथवा बर्रामा गॉव की रूपकुवर ही चदसखी है जिसके भजन-गीतों को पिछले 3 सौ सालों से लोकजीवन में गायन परम्परा में जीवित स्थान प्राप्त है। अगर बर्रामा की चदसखी है तो ओरछा वाले पुरूष चंदसखी से उनका कोई सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता है और ओरछा वाले पुरूष चदसखी को माने तो बर्रामा की चदसखी से उनका कोई साम्य या तालमेल न होने से यह शोध का विषय बनकर रह गया है परन्तु निर्णय जो भी हो, चदसखी तो एक ही है और एक ही रहेगी जिसके संतत्व जीवन से प्रस्फुटित गीत-भजनों की कृष्णमयी भक्ति की अमृतधारा में यह समाज उनके भजनो-गीतों को गाकर, सुनकर, झूमकर परमानन्द की बून्दों से स्नान करता रहेगा।

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