आईने के सामने कांग्रेस-अरविंद जयतिलक

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congressआमतौर पर ऐसा कम ही होता है कि कोई राजनीतिक दल खुद को आईने के सामने खड़ा करने की जुर्रत करे। लेकिन जाने-अनजाने ही सही कांग्रेस ने अपने मुखपत्र ‘कांग्रेस दर्शन’ के जरिए खुद को कठघरे में खड़ा करने का कमाल कर दिखाया है। उसने अपने मंबई इकाई के मुखपत्र में स्वीकार किया है कि अगर प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु तत्कालीन उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की बात सुने होते तो आज कश्मीर, चीन, तिब्बत और नेपाल की समस्याएं नहीं होती। मुखपत्र के एक अन्य शीर्षक ‘कांग्रेस की कुशल सारथी सोनिया गांधी’ में सोनिया गांधी के एयरहोस्टेस बनने इच्छा के अलावा वे किस तरह कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता लेने के महज 62 दिन बाद ही कांग्रेस की अध्यक्ष बन गयी, इस वीरता का भी गुणगान किया गया है। हालांकि यह समझना कठिन है कि मुखपत्र के कर्ता-धर्ताओं की टोली ने सोनिया गांधी के पिता स्टेफनो मायनो को फासीवादी सैनिक होने का खुलासा कर सोनिया गांधी की प्रशंसा की है या कांग्रेस के अस्तित्व के मूल पर आघात किया है। बहरहाल मुखपत्र के विषयवस्तु से कांग्रेस की असहजता और पीड़ा बढ़ गयी है और यह तभी शांत होगी जब मुखपत्र के क्रांतिकारी किस्म के पदधारियों की बलि चढ़ेगी। अब कांग्रेस पार्टी चाहे जितनी सफाई दे लेकिन उसके मुखपत्र ने उसे रोशनी में कपड़े बदलने सरीखे हालात में जरुर ला दिया है। अब वह नेहरु-पटेल तुलनात्मक विमर्श खुद को अलग नहीं कर सकती। दो राय नहीं कि पंडित नेहरु ने सोलह वर्षों तक निरंतर प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए नवअर्जित स्वतंत्रता को सुगठित किया और पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए देश को सुदृढ़ औद्योगिक प्रतिष्ठान पर खड़ा किया। यह भी सच है कि उन्होंने भारत को तत्कालीन विश्व की दो महान शक्तियों का पिछलग्गू न बनकर तटस्थता की नीति का सूत्रपात किया और पंचशील सिद्धांतों के जरिए दुनिया को बंधुत्व और विश्वशांति का संदेश दिया। यह स्वीकारने में भी हर्ज नहीं कि उन्होंने कोरियाई युद्ध का अंत करने, स्वेज नहर विवाद सुलझाने और कांगो समझौते को मूर्तरुप देने जैसे कई अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान की दिशा में शानदार पहल की। पर इस सच को भी कठोरता से स्वीकारना होगा कि देशहित के कतिपय मसलों पर उनके और सरदार बल्लभ भाई पटेल के बीच तनाव था और दोनों ने उस वक्त कई बार इस्तीफा देने की धमकियां दी। दो राय नहीं कि पंडित नेहरु ने अगर सरदार पटेल की दूरदर्शिता का समुचित लाभ उठाया होता तो आज भारत को कई तरह की समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता। सरदार बल्लभ भाई पटेल एक दूरदर्शी राजनेता थे। उन्होंने 1950 में पंडित नेहरु को एक पत्र लिखकर चीन की तिब्बत नीति को लेकर आशंका व्यक्त की। उन्होंने पत्र में कहा कि तिब्बत पर चीन का कब्जा कई नई समस्याओं को जन्म देगा। लेकिन नेहरु ने तवज्जो नहीं दिया और अंग्रेजी दस्तावेजों का हवाला देकर तिब्बत पर चीन की अधीता की बात स्वीकार ली। नतीता माओ के रेडगार्डों ने तिब्बत पर चढ़ाई कर एक वर्ष के अंदर पूरे तिब्बत पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।

कहना गलत नहीं कि नेहरु की अदूरदर्शी नीति ने स्वतंत्र तिब्बत को बलिदान हो जाने दिया। गोवा की स्वतंत्रता को लेकर भी पंडित नेहरु से उनके मतभेद थे। जब उन्होंने कैबिनेट बैठक में कहा कि ‘क्या हम गोवा जाएंगे, सिर्फ दो घंटे की बात है’ तब नेहरु इससे बेहद नाराज हुए। नतीजा पटेल को चुप होना पड़ा। अगर पटेल की चली होती तो गोवा की स्वतंत्रता के लिए 1961 तक इंतजार नहीं करना पड़ता। सांस्कृतिक स्वाभिमान के प्रति आग्रही पटेल ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के विरोध के बाद भी सोमनाथ के भग्न मंदिर के जीर्णोंद्धार का फैसला लिया और पूरा किया। जहां तक कश्मीर रियासत का सवाल है तो देश-दुनिया इसे अच्छी तरह सुपरिचित है कि पंडित नेहरु ने इसे सुलझाने का जिम्मा अपने हाथ में ले रखा था। 1947 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी स्वर्गीय एमके नायर द्वारा मलयालम भाषा में लिखित ग्रंथ में इस बात का जिक्र है कि 1947 में कबायलियों और पाकिस्तान द्वारा जम्मू एवं कश्मीर पर हमले के बाद वहां सेना भेजने के मुद्दे पर नेहरु व पटेल के बीच मतभेद थे। नेहरु नहीं चाहते थे कि इस तरह की कोई कार्रवाई हो। एक बार सरदार बल्लभ भाई पटेल ने नेहरु से पूछ ही डााल कि ‘जवाहरलाल क्या तुम कश्मीर चाहते हो या इसे गंवा देना चाहते हो।’ तब नेहरु को पटेल के दबाव में कहना पड़ा था कि ‘मुझे कश्मीर चाहिए।’ लेकिन 1948 में नेहरु इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि तत्काल सैन्य कार्रवाई व्यवहारिक नहीं होगी। जब 12 सितंबर 1948 को जम्मू-कश्मीर क्षेत्र पर निर्णायक सैन्य कार्रवाई के लिए कैबिनेट की बैठक हुई, उस बैठक में प्रधानमंत्री नेहरु, गृहमंत्री पटेल, रक्षामंत्री बलदेव सिंह, गोपालस्वामी आयंगर, जनरल बुशर, लेफ्टिनेंट जनरल केएम करिअप्पा और एयर मार्शल सर थाॅमस डब्ल्यू सभी मौजूद थे। जैसे ही सैन्य कार्रवाई का निर्णय होने जा रहा था जनरल बुशर ने ऐसा न करने की सलाह देकर सबको हैरान कर दिया। यहीं नहीं उसने यह भी कहा कि अगर उसकी सलाह नहीं मानी जाती है तो इस्तीफा दे देगा। बैठक में सन्नाटा छा गया। निराश और चिंतित नेहरु इधर-उधर झांकने लगे। लेकिन पटेल ने एक क्षण गंवाए बिना जनरल बुशर को दो टुक सुना दिया कि ‘जनरल बुशर आप इस्तीफा दे सकते हैं, लेकिन पुलिस कार्रवाई कल शुरु होगी।’ ऐसा हुआ भी। कहा तो यह भी जाता है कि ब्रिटेन ने पंडित नेहरु को जम्मू-कश्मीर में हस्तक्षेप न करने के लिए मना लिया था। दरअसल ब्रिटेन नहीं चाहता था कि पूरा जम्मू-एवं कश्मीर भारत के साथ जाए। ब्रिटेन में यह धारणा थी कि यदि भारत के नियंत्रण में पाकिस्तान से लगे क्षेत्र रहे तो पाकिस्तान जिंदा नहीं रह पाएगा। बहरहाल सच जो भी हो पर कश्मीर मामले में पंडित नेहरु की भूमिका हैरान करने वाली रही और अगर सरदार पटेल सख्त रुख नहीं अपनाए होते तो आज जम्मू-कश्मीर का जो हिस्सा भारत के पास है, वह भी नहीं होता। आचर्य यह कि जब पाकिस्तान ने कबायली और अपने छद्म सेना के जरिए जम्मू-कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा कब्जा लिया उस समय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने मोहम्मद अली जिन्ना से विवाद जनमत संग्रह से सुलझाने की कोशिश की। जिन्ना ने उस समय इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। भारतीय सेना ने जब जम्मू-कश्मीर का बड़ा हिस्सा बचा लिया उस समय भी पंडित नेहरु ब्रिटिश सराकर के बहकावे में आकर इस विवाद को संयुक्त राष्ट्र में ले गए। पंडित नेहरु के इस भूल का ही नतीजा है कि पाकिस्तान बार-बार इस मसले को संयुक्त राष्ट्रसंघ में उठाता है।

दुर्भाग्यपूर्ण यह कि नेहरु के जिद् के कारण जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत विशेष राज्य का दर्जा भी दिया गया जो आज पूरी तरह नासूर बन चुका है। उस समय डा0 अंबेडकर जैसे कई नेताओं ने धारा 370 का विरोध किया था लेकिन नेहरु नहीं माने। धारा 370 ने जम्मू-कश्मीर का जितना भला नहीं किया उससे कहीं ज्यादा देश की संप्रभुता को नुकसान पहुंचाया है। यह देश-दुनिया से छिपा नहीं कि इस संवैधानिक प्रावधान के कारण ही आजादी के साढ़े छः दशक बाद भी भारतीय संविधान जम्मू-कश्मीर तक नहीं पहुंच पाया है। अलगाववादी शक्तियां मजबूत हुई हैं और पाकिस्तान को अराजकता फैलाने का मौका मिला है। यह संवैधानिक सत्य है कि अगर जम्मू-कश्मीर की सरकार राष्ट्रीय एकता और अखंडता के विरुद्ध कार्य करती है तब भी राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्खास्त करने का अधिकार नहीं है। यहां के उच्च न्यायालय को भी किसी कानून को असंवैधानिक घोषित करने का अधिकार नहीं है। भारतीय संविधान की भाग 4 जिसमें राज्यों के नीति-निर्देशक तत्व हैं और भाग 4ए जिसमें नागरिकों के मूल कर्तव्य हैं वह भी जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होता। संविधान की धारा 356 और धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है वह भी यहां लागू नहीं है। 1976 का शहरी भूमि कानून भी लागू नहीं है। यानी भारत के दूसरे राज्य के लोग यहां जमीन खरीद कर बस नहीं सकते और न ही कोई उद्योग-धंधा चला सकते। निःसंदेह अगर सरकार पटेल को जम्मू-कश्मीर के मामले को सुलझाने को दिया गया होता तो विलय के समझौते में इस तरह के प्रावधान नहीं होते। अच्छी बात है कि कांग्रेस ने गलतीवश ही सही नेहरु और पटेल के तुलनात्मक विमर्श को आगे बढ़ाते हुई नेहरु के ऐतिहासिक भूलों को स्वीकार लिया है।

 

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