अप्रिय सदा अभिमान मुझे,पर
प्राणों से भी प्रिय स्वाभिमान।
मुझे मिले सम्मान नहीं,पर
रक्षित रहे आत्मसम्मान ।।
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मिथ्या-गौरव नहीं चाहिये,
मुझे हो जीने का अधिकार ।
चाहे मुझे मिले न आदर,
क्यों दे कोई तिरस्कार।।
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चाहे सुयश कभी न पाऊँ,
अपयश रहे सदा ही दूर।
नहीं प्रशंसा की इच्छा,पर
निन्दा मन को करे न चूर।।
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निज कुटिया ही प्यारी मुझको,
भव्य भवन की चाह नहीं।
मुझको प्रिय स्वदेश ही अपना,
पर विदेश का स्वर्ग नहीं।।
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सन्तति की ममता ही मुझको
खींच यहाँ ले आई है।
स्वस्थ सुखी ये रहें सदा,
बस यही मुझे सुखदायी है।।
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मर्यादा में रहें सदा ही,
सादा जीवन उच्च विचार।
मातृभूमि को कभी न भूलें,
चाहें विश्व बने परिवार।।
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– शकुन्तला बहादुर
बहुत सुन्दर और शार्थक गीत है आदरणीय शकुन्तला जी का! कुछ पंक्तियाँ मन में रह जाने वालीं:
मिथ्या गौरव नहीं चाहिए, मुझे हो जीने का अधिकार
नहीं प्रशंसा की इच्छा पर, निंदा मन को करे न चूर
वाह!
कविता पढ़कर सुखद अनुभूति हुई दीदी स्वदेश ही अपना स्वर्ग है …अप्रतिम अभिव्यक्ति
“मुझे प्रिय स्वदेश ही अपना,
पर विदेश का स्वर्ग नहीं.”
कवयित्री सुश्री शकुंतला बहादुर की इन पंक्तियों पर कितने लोग खरे उतरेंगे?
Santulit Abhivyakti ki kavita-Ise kahate hai- “Swarn Madhya.” kavayitri ko Dhanyavad.
Shakuntalaji ke panditya hum roj sunte hai aur ascharyachakit ho jata humn.
सुन्दर – इसे पढ़ते समय याद आयी – एक भारतीय आत्मा की –
‘मुझे तोड़ लेना बनमाली…….. मात भूमि को शीश झुकाने जिस पथ जाते वीर अनेक ………