तपोभूमि मासिक पत्रिका का प्रशंसनीय विशेषांक ‘शंकर-सर्वस्व

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ईश्वर
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मनमोहन कुमार आर्य

शनिवार 2 अप्रैल, 2016 को हमें उपर्युक्त उपहार प्राप्त हुआ है। हमने कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसा कोई ग्रन्थ प्रकाशनाधीन है जो हमें मिल सकता है। पोस्टमैन ने लाकर यह ग्रन्थ दिया तो  प्रसन्नता होना स्वाभाविक था। हमने पूर्ण ग्रन्थ का शीघ्रता से अवलोकन कर डाला। इसके प्रथम कवर पृष्ठ की प्रति हम प्रस्तुत कर रहे हैं। यह बता दें कि यह ‘‘शंकर सर्वस्व” ग्रन्थ प्रसिद्ध, प्रौढ़ व सुविख्यायत कालजयी आर्यकवि नाथूराम शंकर शर्मा ‘शंकर’ की समस्त कविताओं वा पद्यों का संग्रह है। पुस्तक में कुल 416 पृष्ठ हैं। पुस्तक के अन्दर के कवर पृष्ठ पर अमर शहीद स्वर्गीय श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी के शंकर जी पर विवेचनात्मक संक्षिप्त विचार हैं। उन्होंने लिखा है कि ‘कवि शंकर में जबरदस्त मौलिकता है। अपनी कविताओं में उन्होंने जो भाव प्रकट किये हैं, उनसे विद्युत-वेग और उनकी प्रतिभा देखते ही बन पड़ती है। साधारण से साधारण समस्या में दार्शनिक भाव भर देना आपकी सब से बड़ी खूबी है। आपका अध्ययन बहुत विशाल है। आपने अपने काव्य-रत्नों द्वारा हिन्दी-साहित्य-भंडार को जिस श्रेष्ठता से भरा है, उसके लिए हिन्दी-संसार सदा आपका आभारी रहेगा। महाकवि शंकर अपनी काव्य-कृतियों द्वारा हमारे मानस-भवन में सदैव विचरण करते रहेंगे।’

 

यहां हम इस पुस्तक के प्रकाशक सत्य प्रकाशन, मथुरा के प्रमुख आचार्य स्वदेश जी जो कि तपोभूमि पत्रिका के सम्पादक भी हैं, उनके इस ग्रन्थ के विषय में कहे गये कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘महाकवि शंकर हिन्दी, उर्दू, फारसी तथा संस्कृत भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। जीवन की प्रभात वेला से ही वे साहित्यानुरागी थे। शंकर जी ने आर्यसमाज की बड़ी सेवा की। वह महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त थे। आर्यसमाजी होने के नाते शंकर जी हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों की उपेक्षा के शिकार भी हुए। जो सम्मान इस महाकवि को मिलना चाहिए था, वह उन्हें नहीं मिला और हिन्दी साहित्य के अध्येता छात्र उनके अत्यन्त उपयोगी साहित्य से सर्वथा वंचित हो गये। सामाजिक जीवन को सर्वथा वासनामय बना कर मनुष्य जीवन का भी विनाश करने वाली रचनायें हमारे विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्थान पा गयी जिनको पढ़कर न तो नई पीढ़ी में कोई उत्तम संस्कार बने और न भाषा सम्बन्धी ज्ञान में बढ़ोतरी हुई और न अपनी प्राचीन गौरवमयी संस्कृति का ज्ञान ही हुआ। न ही नवयुवकों में ये रचनायें राष्ट्रभक्ति का संचार कर सकीं और ठीक इसके प्रतिकूल महाकवि नाथूराम शंकर ‘‘शर्मा” के इस अत्युत्तम सब प्रकार से उपयोगी साहित्य की उपेक्षा मात्र इसलिए की गयी क्योंकि शंकर जी आर्यसमाजी थे। बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि जिस आर्यसमाज के कारण उन्होंने बड़ी-बड़ी हानियां सहीं, वर्षों जाति से बहिष्कृत रहे हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में भी एक प्रकार से बहिष्कार के पात्र बने, उसी आर्यसमाज ने उन्हें बिल्कुल विस्मृत कर दिया। आर्यसमाज के क्षेत्र में जब मैंने (आचार्य स्वदेश) प्रवेश किया तो अनेकों कवियों की रचनाओं को पढ़ा पर शंकर जी की कोई विशेष रचना देखने को नहीं मिली। हमारे सत्य प्रकाशन, मथुरा से निकलने वाली नित्यकर्म विधि में पूज्य आचार्य प्रेमभिक्षु जी ने उनकी कुछ रचनाओं को अवश्य दे रखा है परन्तु अन्यत्र कुछ पढ़ने को नहीं मिला।

 

गुरुकुल कालवां जीन्द हरियाणा में पूज्य आचार्य श्री बलदेव जी महाराज के चरणों में बैठकर विद्याध्ययन करते समय हरियाणा के एक वृद्ध साधु स्वामी जगतमुनि जी से, जो अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे, शंकर जी के रचित सवैया सुनें। उन रचनाओं के भाव गाम्भीर्य भाषा की विलक्षणता व दार्शनिक भाव की पराकाष्ठा को देख मैं आश्चर्य चकित रह गया। साहित्य से मुझे बचपन से ही प्रेम था। अतः इस महाकवि की रचनाओं से मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ। सौभाग्य से एक व्यक्ति के पास दीमक द्वारा खाई हुई सड़ी-गली अवस्था में शंकर जी के साहित्य संग्रह की अनूठी कृति ‘‘शंकर सर्वस्व” हाथ लगी जिसे मैंने बड़े ही मनोयोग से पढ़ा। ऐसा पढ़कर प्रतीत हुआ कि ऐसे साहित्य का सृजन सामान्य मानव के द्वारा तो सम्भव नहीं है, प्रत्युत अच्छी-अच्छी काव्य प्रतिभाओं के लिए भी कठिन कार्य है। महाकवि ‘शंकर’ जी की रचनाओं को देख ऐसा लगता है कि मानों प्रकृति ने स्वयं उनका प्रणयन किया है।’ कविता में शंकर-सर्वस्व का महत्व बताते हुए आचार्य स्वदेश जी कहते है कि ‘‘ये ‘शंकर सर्वस्व’ है, ‘शंकर’ का सन्देश। पढ़ सुधार होवे सरल, सुदृढ़ बने स्वदेश।” यहां यह भी बता दें कि आचार्य स्वदेश जी और पतंजलि योग पीठ के स्वामी रामदेव जी दोनों आचार्य बलदेव जी के गुरुकुल कालवां में अन्तेवासी शिष्य रहे हैं। आप भी बहुत अच्छे प्रतिष्ठित प्रौढ़ हिन्दी कवि हैं। विदुर नीति पर आपका एक संग्रह सत्य प्रकाशन की ओर से प्रकाशित हुआ है। पद्य में अन्य भी अनेक रचनायें आपने की हैं। हमें बहुत पहले दो या तीन बार आपके गुरुकुल में रहने व आपसे वार्तालाप का अवसर मिला है।

 

यह भी बता दें कि यह ग्रन्थ ‘‘शंकर सर्वस्व” सत्य प्रकाशन द्वारा स्व. श्री अशोक आर्य, रामामण्डी बठिण्डा, पंजाब की पावन स्मृति में प्रकाशित किया गया है। यह पंक्तियां लिखते हुए हमें यह विचार आया है कि यदि कभी किसी सम्पन्न परिवार में किसी वृद्ध की मृत्यु हो जाये तो उस परिवार को उस दिवंगत व्यक्ति की स्मृति में इस प्रकार के किसी दुर्लभ महत्वपूर्ण ग्रन्थ का प्रकाशन कराना चाहिये। यह कार्य धर्म व संस्कृति का रक्षक व विद्वान देवों का सच्चा श्राद्ध तथा तीर्थ में जाने से फल की प्राप्ति के तुल्य होगा। इस ग्रन्थ में स्व. श्री अशोक आर्य का विस्तृत परिचय दिया गया है जो कि स्वाभाविक व आवश्यक भी है। इस पुस्तक के पृष्ठ 11 से 23 तक के 13 पृष्ठों में महाकवि शंकर शीर्षक से श्री राम शर्मा, तत्कालीन सम्पादक, विशालभारत, आगरा का दिनांक 15 अगस्त 1951 का लिखा हुआ महत्वपूर्ण एवं सारगर्भित परिचय प्रकाशित किया गया है जिससे इस पुस्तक की उपयोगिता में चार चांद लग गये हैं। इस पूरे विवरण को हमें पढ़ने का अवसर मिला और हम इसे पढ़कर स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं। यहां यह भी बता दें कि कविवर शंकर जी का जन्म चैत्र शुक्ल 5, संवत् 1916 (सन् 1859) को हरदुआगंज, अलीगढ़ में हुआ था। उनकी मृत्यु 21 अगस्त, सन् 1932 को अलीगढ़ के निकट हरदुआगंज में ही हुई थी। यह वही स्थान है जहां कभी स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती जी के द्वारा आचार्यप्रवर पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी ने एक गुरुकुल चलाया था जिसमें पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी और आचार्य भद्रसेन जी आदि ब्रह्मचारी पढ़ते थे। पंडित नाथूराम शंकर जी ने सन् 1932 में अपना जन्म दिवस मनाते हुए लिखा था ‘आयु तिहत्तर हायन भोगी, वर्षगांठ अब और न होगी।’ यह पंक्तियां सत्य सिद्ध हुईं और इसके लगभग 5 मास बाद आपका देहान्त हुआ। यह भी एक संयोग है कि आपका जन्म आर्यसमाज के स्थापना दिवस के ही दिन स्थापना से 16 वर्ष पूर्व हुआ था। आपने अपने जन्मस्थान हरदुआगंज, अलीगढ़ में ही महर्षि के दर्शन किये थे तथा कानपुर में आपको महर्षि दयानन्द क साक्षात् उपदेशों को सुनने का सौभाग्य मिला था। महर्षि के दर्शन और कविता करने के अपने गुण को आप ईश्वर प्रदत्त अपना सौभाग्य मानते थे।

 

आपने कानपुर में अपने मौसा जी के पास रहकर 7 वर्ष 6 महीनों तक सरकारी नौकरी की थी और एक बार स्वाभिमान बीच में आ जाने के कारण नौकरी छोड़ दी थी। इसके बाद अनूपशहर आकर आपने आयुर्वेद का अध्ययन किया और हरदुआगंज आकर लोगों की चिकित्सा करने लगे। गरीबों की चिकित्सा आप निःशुल्क करते थे और समर्थ लोगों से भी पैसे मांगते नहीं थे। जो स्वेच्छा से दे देता, तो ले लेते थे। यही कारण था कि एक सफल वैद्य जिसने हजारों लोगों को स्वस्थ किया और सफल व उच्च कोटि का कवि था, उसने निर्धनता व अभावग्रस्त रहकर जीवन व्यतीत किया। विवरण मिलता है कि आप एक साधारण टूटे फूटे छप्पर के घर में रहे। आपने अपने काव्य संग्रह ‘अनमोल रत्न’ को हिन्दी साहित्यकार आचार्य पद्मसिंह शर्मा जी को समर्पित किया। प्रकाशन से पूर्व सन् 1913 में आपको निकटवर्ती एक नरेश से प्रस्ताव मिला कि यदि वह ‘‘अनमोल रत्न” ग्रन्थ को उन नरेश महोदय को समर्पित कर दें तो वह उसका प्रकाशन भी करायेंगे और शंकर जी को पांच सहस्र रूपया भी देंगे। आचार्य पद्मसिंह शर्मा सहित अन्य मित्रों ने भी शंकर जी पर दबाव डाला परन्तु आप सहमत नहीं हुए। यह घटना आपके त्यागी स्वभाव व सच्चे आर्य होने की पुष्टि करती है। श्री राम शर्मा जी ने आपके विषय में लिखा है कि ‘शंकर जी ने प्रायः सभी विषयों पर और सभी छन्दों में कविताएं की हैं। आप रससिद्ध कवि थे। रसों पर आपका पूरा अधिकार था। किसी समस्या की सब रसों में सुन्दर पूर्ति कर देना आपके लिए एक साधारण सी बात थी। सभी रसों में आपने बड़ी सरलता से रचनाएं की हैं। ‘अनमोल-रत्न’, ‘शंकर-सरोज’, ‘गर्भ रण्डा-रहस्य’ आदि आपके प्रकाशित काव्य ग्रन्थ हैं। ‘भारतभट्टभणन्त’ नामक व्यंग्य-साहित्य की पुस्तक भी आपने लिखी थी, जो प्रकाशित नहीं हो सकी।’ शंकर जी ने ‘कलित कलेवर’ नामक एक काव्य-ग्रन्थ की रचना भी की थी जिसमें बड़ी सुन्दरता से नख-शिख का वर्णन किया गया था। यह पुस्तक श्री शंकर शर्मा जी ने स्वयं ही नष्ट कर दी। नष्ट करने का कारण यह था कि वे बुढ़़ापे में श्रृंगार-रस की कविताओं को अपने नाम से प्रकाशित कर उनका प्रचार होना पसन्द न करते थे। यदि आज ‘कलित-कलेवर’ होता तो निःसन्देह वह हिन्दी काव्य साहित्य के लिए शंकरजी की एक अनुपम देन सिद्ध होता। यह भी उल्लेखनीय है कि उनकी पत्नी शंकरा, एक पुत्री महाविद्या, पोती शारदा व दो पुत्र उमाशंकर और रविशंकर उनके जीवन काल में ही काल कवलित हुए जिसकी असहनीय वेदना उनको रही होगी। आचार्य शंकर जी का मूल्यांकन कर हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें ‘प्रतिभा-पारावार’ और ‘कविता-कानन केसरी’ कहा है तथा आचार्य पद्मसिह शर्मा ने उन्हें ‘कविता-कामिनी कान्त’ की उपाधि दी है।

 

पुस्तक के पृष्ठ 24 से 43 तक डा. श्रीकान्त मिश्र का ‘पिंगल-परम्परा के अभिनव आचार्य: महाकवि शंकर’ शीर्षक से उपयोगी लेख भी प्रकाशित किया है। लेख के अन्त में श्री मिश्र जी ने लिखा है कि ‘हिन्दी कविता के उषःकाल में आविर्भूत होकर उसे भास्तरता प्रदान करनेवाले प्रतिष्ठित साहित्यकारों में शंकरजी शीर्षस्थानीय है। भारतेन्द हरिश्चन्द्र जो चाहते हुए भी नहीं कर सके, उसे कवि पुंगव ने सहज साध्य बनाकर दिखा दिया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, जार्ज ग्रियर्सन, काशीप्रसाद जायसवाल, लाला लाजपतराय आदि समर्थ व्यक्तित्व जिसकी प्रशंसा से तृप्त नहीं होते हैं, ऐसे शंकरजी का महत्व सदा अक्षुण्णय रहेगा। आस्था, विश्वास और प्रेरणा का जो प्रबल स्रोत उनके साहित्य में सन्निहित है, वह आने वाली पीढ़ी के लिए सदा प्रकाश स्तम्भ बना रहेगा।’ पुस्तक में पृष्ठ 44 से 416 तक शंकर जी की कवितायें दी गईं हैं। उनकी कुछ प्रसिद्ध पंक्तियां देकर लेख को विराम देते हैं:

 

आनन्द सुधासार दयाकर पिला गया,

भारत को दयानन्द दोबारा जिला गया।

शंकर दिया बुझाय दिवाली को देह का,

कैवल्य के विशाल बदन में विला गया।।

-मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

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