अशोक “प्रवृद्ध”
सिर पर खड़ी शिखा, हाथ में वीणा, मुख से नारायण-नारायण शब्द की अनवरत निकलती ध्वनि, पवन पादुका पर सर्वत्र विचरण करने वाले देवर्षि नारद ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक माने गये हैं। पुरातन ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में सर्वोच्च, स्वयं वैष्णव और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक नारद प्रत्येक युग में भगवद्भक्ति भक्ति और भगवद्महिमा का प्रसार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के आद्याचार्य नारद की वीणा भगवन जप महती के नाम से विख्यात है। जिससे नारायण-नारायण की ध्वनि सदैव निकलती रहती है। कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास,बाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरु, वीणा के आविष्कारक और कुशल मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाले नारदमुनि की गति अव्याहत है। ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति को देखने वाले नारद अजर–अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है। उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। धर्म के प्रचार एवं लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहने वाले नारद का सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी नारद को सदैव ही आदर दिया है और समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है।
वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियाँ, सभी ग्रन्थों में देवर्षि नारद का उल्लेख अंकित है। आदिग्रन्थ ऋग्वेद के मंडल में आठ और नौ के कई सूक्तों के दृष्टा नारद हैं। अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण, मैत्रायणी संहिता आदि में नारद का उल्लेख हुआ है। पुराणों में तो महर्षि नारद एक अनिवार्य भूमिका में प्रस्तुत हैं, और उन्हें देवर्षि की संज्ञा से विभूषित किया गया है, परन्तु उनका कार्य देवताओं तक ही सीमित नहीं था, अपितु वे दानवों और मनुष्यों के मध्य भी मित्र, मार्गदर्शक, सलाहकार और आचार्य के रूप में उपस्थित हैं। नारद श्रुति-स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष, योग आदि समस्त शास्त्रों में पारंगत थे। नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, वीणा द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी, निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, सूर्य के समान, त्रिलोकी पर्यटक, वायु के समान सभी युगों, समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किये हुए मन वाले नीतिज्ञ, अप्रमादी, आनन्दरत्त, कवि, प्राणियों पर नि:स्वार्थ प्रीति रखने वाले, देव, मनुष्य, राक्षस सभी लोकों में सम्मान पाने वाले देवता तथापि ऋषित्व प्राप्त देवर्षि थे। नारद ने ही प्रह्लाद, ध्रुव, राजा अम्बरीष आदि महान भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये भागवत धर्म के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले, ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वयंभुव मनु आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित भक्तिसूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है। नारद पांचरात्र,नारद के भक्तिसूत्र, नारद महापुराण, बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता-(स्मृतिग्रंथ), नारद-परिव्राजकोपनिषद आदि देवर्षि नारद रचित ग्रन्थ हैं।नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं। देविर्षि नारद के सभी उपदेशों का सार है- सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितै: भगवानेव भजनीय:। अर्थात-सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए। नारद को अपनी विभूति बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता 10/26 में कहते हैं- अश्वत्थ: सर्ववूक्षाणां देवर्षीणां च नारद:। महाभारत के आदि पर्व में नारद के पूर्ण चरित्र का उल्लेख करते हुए वेदव्यास ने कहा है-
अर्थनिर्वाचने नित्यं, संशयचिदा समस्या:।
प्रकृत्याधर्मा कुशलो, नानाधर्मा विशारदा:।।
महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि परमात्मा के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान करने वाले दार्शनिक नारद आदर्श व्यक्तित्व हैं। श्री कृष्ण ने उग्रसेन से कहा कि नारद की विशेषताएं अनुकरणीय हैं। महभारत कथा के अनुसारनारद युधिष्ठिर की राजसभा में उपस्थित हुए थे और उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर को पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का पूर्ण ज्ञान प्रदान किया था। पुरातन भारतीय साहित्य में भी सर्वत्र नारद द्वारा प्रतिपादित स्वधर्म, तंत्र, विधान, राजस्व प्राप्ति, शिक्षा, उद्योग इत्यादि पर दर्शन का विपुल साहित्य उपलब्ध है।
वैदिक साहित्य में ब्रह्मा के पुत्र के मानस पुत्र के रूप में उल्लिखित नारद का पौराणिक ग्रन्थों में बड़ा ही अतिरंजित और अतिरेक वर्णन किया गया है और उनके सन्दर्भ में भान्ति-भान्ति के अतिरंजित कथाएँ कही गई हैं।पौराणिक ग्रंथों में नारद के आविर्भाव की तिथि बैसाख शुक्ल द्वितीय बतलाई गई है और बैशाख शुक्ल द्वितीय को नारद जयन्ती भक्तगण भक्ति-भाव से मनाते हैं। महाभागवत पुराण में विष्णु के बैस अवतारों में नारद को चतुर्थ अवतार बतलाया गया है। पुराणादि ग्रन्थों में नारद को भागवत संवाददाता के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि नारद की ही प्रेरणा से वाल्मीकि ने रामायण जैसे महाकाव्य और व्यास ने श्रीमद्भगवद्गीता जैसे सम्पूर्ण भक्ति काव्य की रचना की थी। पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्यापन होता है कि नारद कई रूपों में श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदर्शित करते हैं। संगीत में अपनी अपूर्णता ध्यान में आते ही उन्होंने कठोर तपस्या और अभ्यास से एक उच्च कोटि के संगीतज्ञ बनने को भी सिद्ध किया। उन्होंने संगीत गन्धर्वों से सीखा और नारद संहिता नामक ग्रन्थ की रचना भी की। घोर तप करके विष्णु से संगीत का वरदान प्राप्त किया। नारद के अगणित कार्य हैं। नारद के उल्लेखनीय कार्यों में भृगु कन्या लक्ष्मी का विष्णु के साथ विवाह करवाना, इन्द्र को समझा बुझाकर उर्वशी का पुरुरवा के साथ परिणय सूत्र में बंधवाना, महादेव द्वारा जलंधर का विनाश, कंस को आकाशवाणी का अर्थ समझाना, बाल्मीकि को रामायण की रचना करने की प्रेरणा देना, व्यास जी से भागवत की रचना करवाना, प्रह्लाद और ध्रुव को उपदेश देकर महान भक्त बनाना ,बृहस्पति और शुकदेव जैसों को उपदेश देकर उनकी शंकाओं का समाधान, इन्द्र, चन्द्र, विष्णु, शंकर, युधिष्ठिर, राम, कृष्ण आदि को उपदेश देकर कर्तव्याभिमुख करना आदि शामिल हैं। भक्ति का प्रसार करते हुए वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों का सहयोग करते रहते हैं। नारद को भगवान के विशेष कृपापात्र और लीला-सहचर माना गया ही। जब-जब भगवान का आविर्भाव होता है, नारद उनकी लीला के लिए भूमिका तैयार करते हैं, लीलापयोगी उपकरणों का संग्रह करते हैं और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं, वस्तुतः इनका जीवन मंगल के लिए ही है।
तत्व ज्ञानी महर्षि नारद के भक्ति सूत्रों में उनके परमात्मा व भक्त के सम्बन्धों की व्याख्या से वे एक दार्शनिक के रूप में परिलक्षित होते हैं। परन्तु नारद अन्य ऋषियों, मुनियों से इस अर्थ में भिन्न हैं कि उनका कोई अपना आश्रम नहीं है, और वे निरन्तर प्रवास पर ही रहते हैं। परन्तु नारद का यह प्रवास व्यक्तिगत नहीं है। इस प्रवास के कर्म में भी वे समकालीन महत्वपूर्ण देवताओं, मानवों व असुरों से संपर्क करते हैं और उनके प्रश्न, उनके वक्तव्य व उनके कटाक्ष सभी को दिशा देते हैं। उनके हर परामर्श में और प्रत्येक वक्तव्य में कहीं-न-कहीं लोकहित झलकता है। दैत्य अंधक को भगवान शिव द्वारा मिले वरदान को अपने ऊपर इस्तेमाल करने की सलाह देने, रावण को बाली की पूंछ में उलझने पर विवश करने और कंस को देवकी के बच्चों को मार डालने का सुझाव देने, कृष्ण के दूत बनकर इन्द्र के पास जाने और उन्हें कृष्ण को पारिजात से वंचित रखने का अहंकार त्यागने की सलाह देने आदि के अनेक कार्य व परामर्श नारद के विरोधाभासी व्यक्तित्व को उजागर करते परिलक्षित होते हैं, परन्तु गहराई से अध्ययन करने से पत्ता चलता है कि इनमे कहीं भी नारद का कोई निजी स्वार्थ नहीं दिखता है। वे सदैव सामूहिक कल्याण, विश्व मंगल की नेक भावना रखते प्रतीत होते हैं। उन्होंने आसुरी शक्तियों को भी अपने विवेक का लाभ पहुँचाया। जब हिरण्यकशिपु तपस्या करने के लिए मंदाक पर्वत पर चला गया तो देवताओं ने दानवों की पत्नियों व महिलाओं का दमन करना प्रारम्भ कर दिया, परन्तु दूरदर्शी नारद ने हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु की सुरक्षा की जिससे प्रहृलाद का जन्म हो सका। परन्तु फिर उसी प्रहृलाद को अपनी आध्यात्मिक चेतना से प्रभावित करके हिरण्यकशिपु के अन्त का साधन बनाया। नारद की एक अन्य प्रमुख गुण अर्थात विशेषता है, वह है उनकी संचार योग्यता व क्षमता। नारद ने वाणी का प्रयोग इस प्रकार किया, जिससे घटनाओं का सृजन हुआ और नारद द्वारा प्रेरित हर घटना का परिणाम लोकहित, विश्व कल्याण में निकला। इसलिए तो वर्तमान संदर्भ में भी नारद को विश्व का सर्वश्रेष्ठ लोक संचारक की संज्ञा से विभूषित कर बुद्धिजीवी वर्ग धन्य हो उठता है। नारद के हर वाक्य, हर वार्ता और हर घटनाक्रम का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि वे एक अति निपुण व प्रभावी संचारक थे। दूसरा उनका संवाद शत-प्रतिशत लोकहित में रहता था। वे अपना हित तो कभी नहीं देखते थे, उन्होंने समूहों पर जातियों आदि का भी अहित नहीं साधा। उनके संवाद में हमेशा लोक कल्याण की भावना रहती थी। तीसरे, नारद द्वारा रचित भक्ति सूत्र में चौरासी सूत्र हैं। प्रत्यक्षतः तो भक्तिसूत्र के इन सूत्रों में भक्ति मार्ग का दर्शन अंकित किया गया है और भक्त के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने के साधन बतलाए गए हैं, परन्तु इन्हीं सूत्रों का सूक्ष्म अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि इनमे सिर्फ पत्रकारिता ही नहीं वरन पूरे मीडिया के लिए शाश्वत सिद्धांतों के प्रतिपालन का उल्लेख दृष्टिगत होता है।