सती प्रथा और पुरातत्व से जुड़े चिह्न

satiडा. राधेश्याम द्विवेदी
ऋषि-मुनियों और अवतारों की भूमि ‘भारत’ एक रहस्यमय देश है। भारत में अस्मत बचाने के लिए सती प्रथा की शुरुआत हुई। सन् ५१०- ११ ई. में लिखित एरण अभिलेख के द्वारा अभिलेखों के माध्यम से पहली बार सती प्रथा की जानकारी मिलती है। इस अभिलेख के कथनानुसर गोपालराजा, जब घमासान युद्ध के दौरान मारा गया, तब उसकी पत्नी, उसके चिता के साथ सती हो गयी। कुछ अभिलेखों के माध्यम से हमें किसी व्यक्ति- विशेष द्वारा उल्लेखित जाति व गोत्र के संबद्ध में जानकारी मिलती है। इस तरह की जानकारियाँ सामाजिक इतिहास की जानकारी को समृद्ध करती है। भारत में मुगलों का आक्रमण होने के बाद देश में सती प्रथा की शुरुआत हुई। मुगल शासक जहां भी आक्रमण करते। उस राजा के राज्य पर कब्जा करने के साथ ही वहां की महिलाओं के साथ भी दुर्व्यवहार करते। इससे बचने के लिए महिलाएं खुद ही आग में जलकर सती होने लगी। शुरुआत में यह काम सामूहिक रूप से शुरू हुआ। जो बाद में कुप्रथा बनी और व्यक्तिगत रूप से सती होना शुरू हो गई। कुप्रथा इतनी बढ़ गई कि बाद में महिलाओं को जबरदस्ती पति की चिता में धकेल दिया जाता था। 1830 में सती प्रथा का अंत हुआ। राजाराम मोहन राय के अथक प्रयासों के बाद 4 दिसंबर 1829 ई. के 17वें नियम के अनुसार विधवाओं को जीवित जिंदा जलाना अपराध घोषित कर दिया। पहले यह नियम बंगाल प्रेसीडेंसी में लागू हुआ, परन्तु बाद में 1830 ई. के लगभग इसे बंबई और मद्रास में भी लागू कर दिया गया। दो-तीन दिन के भीतर ही इस कानून का हुक्म मजिस्ट्रेटों के पास भेज दिया गया और अनगिनत विधवाओं की जान बच गई।
सती के स्मारक: –रानियों, महारानियों अथवा सामान्य स्त्री द्वारा किसी तरह के सर्व जन हिताय बनाये गये सरोवर, कूप आदि के किनारे उनकी छतरी आदि बनाकर उसके अंदर उनके पदचिन्ह स्थापित कर उस पर समय, वार, तिथि, संवत् आदि नाम अंकित किये जाते हैं । अनूपसागर में अनूपबाव के आगे बना स्मारक जो महारावल जसवंतसिंह की माता अनूपदे की स्मृति में निर्मित करवाया ।
सती प्रतिमाएं :-सतियों की स्मृति में सती स्तंभ बनवाने की परंपरा रही है । सती स्तंभों पर प्रायः अभिलेख भी रहता है । जोधपुर के दक्षिण-पश्चिम मे लगभग 4-5 मील की दूरी पर स्थित पाल में बारहवीं तेरहवीं शदी के सती स्तंभ लेख उपलब्ध है । सती स्तंभों पर सतियों के पति की प्रायः अश्वारूढ़ प्रतिमा रहती है जो लोक देवताओं की प्रतीमा के समान ही होती है । तथा अश्व के सामने सती की स्थानक प्रतिमा रहती है । सती स्थानीय बनावट के घाघरा, ओढ़ना, कंचुकि व आभूषण धारण किये हुए करबद्ध रूप में प्रदर्शित की जाती हैं । एक पुरुष के साथ जितनी सतियां होती हैं उतनी ही सती प्रतिमाएं पुरुष के साथ दिखाई जाती हैं । उदाहरण के लिये जोधपुर के महाराजा चन्द्रसेन के स्मारक अभिलेख को लिया जा सकता है । पाली जिले में सारण स्थित इस स्मारक पर राव चंन्द्रसेन की अश्वारूढ़ प्रतिमा के साथ पांच स्त्रियां की स्थानक प्रतिमाएं हैं । साथ ही अभिलेख में यह कहा गया है ‘ सती कुल पंच हुई’ ।

एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि यहां मात्र पति की मृत्यु पर ही सतियां नहीं होती थीं वरन् कई पुत्रों के पीछे अथवा किसी अन्य निकटतम संबंधी की मृत्यु पर भी सती हो जाती थीं । जोधपुर में सिंघाडि़यों की बारी के बाहर स्थित स्मारकों में से एक पुत्र के पीछे हुई सती की प्रतिमा है । इसी प्रकार की एक प्रतिमा जोधपुर के भोपालगढ़ तहसील में सेवकी के तालाब की पाळ पर भी देखने मे आई है । पुत्र के पीछे होने वाली सतियों की प्रतिमा भिन्न प्रकार की होती हैं । इसमें सती की स्थानक प्रतिमा होती है तथा उसके हाथों पर पुरुष की लेटी हुई प्रतिमा उपलब्ध होती है ।….इन प्रतिमाओं के साथ साथ सतियों के हाथ व स्वर्गलोक को प्राप्त व्यक्ति अथवा देवता के चरणतल ‘पगलिया’ की प्रतिमाएं उपलब्ध होती हैं । जैसलमेर में अढ़ाई साके हुए । उनमें कई स्त्रियां सती हुईं पर उनकी पूजा नहीं है । परचे दिये उन सतियां की पूजा है। गंगरार के शिव मंदिर के अहाते में और भी कई लेख मिले हैं । इनमें महाराणा सांगा के शासनकाल के कुछ लेख उल्लेखनीय हैं।इन लेखों और चित्तोड़ दुर्ग पर भीम गौड़ी के आसपास मिले सतियां के लेखों से पता चलता है कि मध्यकाल में वि.सं.स 1500 के बाद सतियों के लेख अत्यधिक प्राप्त होते हैं । इस समय सती प्रथा का यहां अन्य राज्यों की तरह काफी जोर रहा था । इन लेखों में ऊपर कहीं कहीं पुरुष की घोड़े के ऊपर और सतियों को उसके साथ खड़ा हुआ दिखाया गया है और कहीं कहीं पुरुष और स्त्रियों को एक साथ ही खड़ा हुआ दिखाया गया है (विश्वम्भरा पृ.27, वर्ष-8 अंक-2, 1974.)
सतियों का गांव रंथभंवर:-प्राचीन समय से ग्राम रंथभंवर सतियों की नगरी रहा है। गांव के हर चौराहे पर अब भी सतियों के स्मारक बने हैं। कुछ स्मारक ऐसे हैं, जिनके वंशज आज भी गांव में रहते हैं और कोई भी शुभ काम शुरू करने से पहले सती स्मारक स्थल पर पूजा करने पहुंचते हैं। सती स्मारक के साथ ही गांव में पुरातत्व से जुड़े और भी कई लेख भी हैं, जो गांव की महत्ता को दर्शाते हैं। गांव के 92 वर्षीय सेताबसिंह पाटीदार और 90 वर्षीय मांगीलाल नारेलिया ने बताया गांव में 16 सतियों के स्मारक आज भी स्थापित है। मेला चौराहा, मस्जिद चौक, नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर के समीप सहित गांव की गलिया में भी कई जगह सतियों के स्मारक देखे जा सकते हैं। यहां सती होने वाली महिला का नाम आदि भी दर्ज है। हालांकि जिस लिपि में नाम आदि लिखा है, वह ग्रामीण नहीं जानते। हालांकि कई सतियों के स्मारकों को वहां रहने वाले ग्रामीण सती माता के रूप में पूज रहे हैं। बुजुर्ग भी अपने गांव की महत्ता गिनाते हुए नहीं थकते।
पुरातत्व से जुड़े और चिह्न:- गांव में पुरातत्व से जुड़े और भी कई प्रतीक हैं। सैकड़ों साल पहले बनी गांव के चारों तरफ की 60 इंच की दीवार आज भी है। 4 दिशाओं में अलग-अलग दरवाजे हैं। जिन्हें ग्रामीणों ने नीलकंठेश्वर, श्रीराम, गणेश और नागचंद्रेश्वर द्वार नाम दिया है। गांव की पुरातन मान्यताओं को समेटते हुए सालों पहले शोध कार्य भी हुआ। खाचरौद निवासी राजेंद्रप्रसाद लहरी जो पोलायकलां में पढ़ाते थे, ने रंथभंवर की महत्ता बताते हुए एक पुस्तक भी लिखी। गांव में पुरातत्व से जुड़े कई प्रतीक चिह्न व स्मारक हैं। स्मारकों पर उस समय की भाषा में कुछ लिखा है। पुरातत्व विभाग को इसकी जांच करना चाहिए। अशोक पाटीदार, सरपंच ग्रापं रंथभंवर चारों ओर ऐसे प्रवेश द्वार बने हैं। गांव के चारों तरफ ऐसे दीवार बनी है। गांव के हर चौराहे पर ऐसे सतियों के स्मारक बने हैं ।

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