निरंतर ह्रास की ओर बढ़ रहा वामपंथ

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मजदूर हितों के नाम पर अपनी पूरी की पूरी राजनैतिक रोटियाँ सेंकनें वाले वामपंथी ट्रेड यूनियनों को एक बड़ी असफलता का सामना करना पड़ा है. अंततः वामपंथी मजदूर संगठनों व वामपंथी राजनैतिक दलों द्वारा घोषित 2 सितम्बर का भारत बंद विफल हो ही गया. इसमें नया कुछ नहीं क्योंकि इस भारत बंद के विफल होनें की संभावना प्रारंभ से ही बलवती थी. केरल और पश्चिम बंगाल को छोड़कर शेष भारत के लगभग सभी राज्यों में वामपंथी ट्रेड यूनियनों द्वारा काल किया गया भारत बंद बुरी तरह पिट गया. वामपंथियों द्वारा आव्हान किये गए भारत बंद के विफल होनें का यह अर्थ तो कतई कोई भी नहीं निकालेगा कि भारत के वृहद मजदूर वर्ग में गरीबी, असमानता व असुरक्षा जैसे रोग समाप्त हो गए हैं. गरीबी, असमानता, रोजगार असुरक्षा के विषय अब भी अपनें पूर्ण रूप में जीवित हैं किन्तु इस भारत बंद की विफलता से यह सिद्ध होता है कि इन बीमारियों से लड़नें के लिए अब हड़ताल और बंद और इस जैसे विशुद्ध वामपंथी तरीकों को कालबाह्य माना जानें लगा है. एक समय में रोजगार मूलक समस्याओं के सहारे अपनी पैठ जमानें वाला वामपंथी आन्दोलन अब रोजगार सम्बंधित समस्याओं के संदर्भ में संदर्भ हीन माना जानें लगा है. अब यह स्पष्ट हो चला है कि अपनी विभिन्न समस्याओं के लिए मजदूर वर्ग बंद व हड़ताल जैसे तरीकों से ईतर कुछ रचनात्मक विरोध के तरीकों पर शिफ्ट होना चाहता है. भारत बंद की विफलता यह तथ्य भी उद्घाटित करती है कि मजदूर संघों में अब यह बात घर कर गई है कि वामपंथी ट्रेड यूनियनों के पास वर्तमान समस्याओं का कोई विकल्प या रोडमैप है ही नहीं. वामपंथी आन्दोलन को अब मात्र बातों का भूत खड़ा करनें वाला एक वाचाल बेताल माना जा सकता है जिसके पास करनें को कोई नियतबद्ध कार्यशैली है ही नहीं.

वर्तमान आर्थिक माडल के विरोध के नाम पर वितंडा खड़ा करनें वाले वामपंथियों के पास वस्तुतः कोई नया या तर्कसंगत आर्थिक माडल है ही नहीं; बल्कि अब वे भी उसी प्रकार की या उसी माडल की बात घुमा फिराकर करनें लगे हैं जो आर्थिक माडल उदारवादियों का है. वामपंथियों के पास किसी भी प्रकार के आर्थिक रोडमैप का अभाव होनें ने ही उन्हें वर्तमान दौर में अप्रासंगिक होनें के कगार पर ला खड़ा करता है.

केंद्र सरकार पर ‘एंटी लेबर’ होने का आरोप लगाते हुए वामपंथी ट्रेड यूनियनों  नें 2 सितम्बर को देशव्यापी हड़ताल का आव्हान किया था. इसके पूर्व कुछ दिन पूर्व ही केंद्र सरकार ने अप्रशिक्षित कामगारों की न्यूनतम मजदूरी 246 रुपये से बढ़ाकर 350 रुपये करने की घोषणा की थी. वामपंथी मजदूर यूनियनों के नेताओं नें हास्यास्पद ढंग से एक मुद्दा बनाया कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर आधारित सरकार ने न्यूनतम मजदूरी को लेकर जो घोषणा की उसे लेकर किसी तरह की विस्तृत जानकारी नहीं उपलब्ध कराई कि आखिर किस आधार पर रोजाना की न्यूनतम मजदूरी 350 रुपये तय कर दी गई. जबकि कई मजदूर संघ व ट्रेड यूनियन कह रहे हैं कि उनका प्रस्ताव इंडियन लेबर कॉन्फ्रेंस के द्वारा स्वीकार किया गया स्टैंडर्ड मेथड है और यह स्पष्टतः सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर आधारित है. स्पष्ट है कि विशुद्ध रूप से पालिटिकल माइलेज लेनें के लिए इस भारत बंद को आकार देनें का असफल प्रयास किया गया.

देश भर में सिमट्नें की भूमिका में आ गई वामपंथी विचारधारा केवल वोटों के गणित में ही नहीं पिछड़ी है. सोवियत संघ के टूटने के बाद पूर्वी यूरोप के देशों ने जिस तरह इस विचारधारा को दरकिनार किया, उसने पूरी दुनिया का साम्यवादी, वामपंथी आन्दोलन बोरिया बिस्तर समेट लेनें की स्थिति में आ खड़ा हुआ है. भारत में भी ठीक यही स्थिति है. साढ़े तीन दशक तक के पश्चिम बंगाल में वाम शासन देखने के बाद वहां के लोगों ने वामपंथी दलों को परास्त कर दिया. केरल व त्रिपुरा में भी अभूतपूर्व चुनौती का सामना कर रहे वामपंथ की भूमिका अब केवल इस प्रकार के बंद व हडतालों का आव्हान करना ही रह गया है. अब यह विकराल प्रश्न है कि आखिर लोगों के अधिकारों के लिए जूझने का ढिंढोरा पीट्नें वाले वामपंथी दल विफल क्यों होते जा रहे हैं? संगठनात्मक रूप से तो वामपंथी सदा से सुदृढ़ रहें हैं, उनका केडर आधारित संगठन उनकी विशिष्ट विशेषता रही है; फिर विफलता के क्या कारण हैं? वस्तुतः सैद्धांतिक रूप से पूरा का पूरा कार्लमार्क्स का विचार ही गलत है!! वैचारिक नेतागिरी की नई पौध के अभाव में वामपंथी आन्दोलन का यह हश्र होगा यह स्वाभाविक ही था. पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार द्वारा सिंगुर में टाटा की नैनो कार परियोजना के लिए किये विशाल जमीन अधिग्रहण को हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धोखाघड़ी बताते हुए अधिग्रहण को रद्द कर दिया गया है. यह मामला ज्वलंत उदाहरण है इस बात का कि सर्वहारा के नाम पर संघर्ष करनें वाले वामपंथ का मूल चेहरा क्या है?! स्पष्ट है कि मजदूरों की रोजगार असुरक्षा, असमानता, गरीबी जैसे वामपंथियों के मुद्दों पर उनकी छदम लड़ाई अब समाप्त हो गई है. इन मुद्दों पर अब अन्य संगठन भी काम कर रहें हैं जो स्पष्टतः मार्क्सवादी नहीं है किन्तु इन मुद्दों पर ईमानदार अवश्य हैं!!

 

2 COMMENTS

  1. वामपंथ भौतिकतावादी विचारधारा है, भावना का उनके दर्शन में स्थान नही, इसलिए ऊंचाई पर जाने के बाद वामपंथियों का पतन हो जाता है, क्योंकि उस जगह पर पहुंचने के बाद उन्हें भौतिक अभीष्ट प्राप्त हो जाता है. दुःख की बात यह है कि आई एन जी ओ भारतीय वामपंथ पर हावी हो गया है और वह आत्मघात के राह पर चल पड़ा है.

  2. (१) संघर्षवादी वाम पंथी संघर्ष ही जानते हैं। समन्वयवादी रचनात्मक कार्य उनकी विशेषता नहीं है। जो इनके नेता जीवन भर विरोध पर आजीविका पाते रहे, उन्हें रचनात्मक समन्वयवादी तरीकों से काम लेना नहीं आता।
    (२) और भारत में राजनीति, इतिहास का पन्ना पलट रही है।
    (३) संघर्षवादियों को इस पलटते पन्ने के साथ तालमेल बिठाना होगा।
    (४) मौलिक चिन्तन और बदलाव करेंगे, तो स्वयं समाप्त हो जाएँगे।
    (५)भारतीय संस्कृति और जनमानस गत छः सात दशकॊं में संघर्षवादियों से (वाम, समाजवादी, ब. स. पा.इत्यादि) प्रभावित रहा है। कुछ अब भी बिहारी जैसे मूर्ख मतदाता अवश्य बचे हैं।
    (६)पर, अब शासन तालमेल और समन्वयसे काम ले रहा है।
    (७)तो सारे संघर्षवादी किंकर्व्यविमूढ हो गए हैं।
    विषय चयन के लिए, लेखक को साधुवाद।

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