डॉ. मयंक चतुर्वेदी
भारत के लिए उसके एक प्रधानसेवक की गलती कितनी भारी पड़ी है, इसका यह एक जबरदस्त उदाहरण है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की गलतियां ऐसी ही रही हैं जिन्हें भारत आज 69 साल बीत जाने के बाद भी लगातार भुगत रहा है। कश्मीर के मुद्दे को यूएन में ले जाने का एलान हो, देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने के स्थान पर हिन्दू कोड बिल लागू करना, अमेरिका की भारत से सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के तौर पर शामिल होने की पेशकश को ठुकराकर उसमें चीन को शामिल करने का आग्रह हो या तिब्बत पर चीन के हक को मंजूरी दिया जाना नेहरू की उन बड़ी भूलों में शामिल है, जिनके कारण से भारत आज भी रोजमर्रा के जीवन में कष्ट महसूस कर रहा है।
चीन लगातार यह दावा पेश कर रहा है कि अरुणाचल प्रदेश चुंकि तिब्बत से लगा क्षेत्र है, इसलिए वह भारत का नहीं उसका हिस्सा है, जबकि सत्य यही है कि चीन का क्षेत्र तो तिब्बत भी नहीं है, वहां की निर्वासित सरकार भारत में शरणार्थी के रूप में इजरायलियों की तरह अच्छे दिन आने का इंतरजार करते हुए स्वतंत्र तिब्बत इस दिशा में विश्व जनमत तैयार करने के लिए प्रयास कर रही है। दूसरी ओर अरुणाचल प्रदेश हिन्दुस्थान के उन तमाम राज्यों की तरह ही एक राज्य है, जहां भारतीय संविधान लागू है और यहां से चुने हुए प्रतिनिधि देश की संसद का प्रतिनिधित्व करते हैं।
वस्तुत: ताजा विवाद तिब्बती धर्मगुरु दलाईलामा के अरुणाचल प्रदेश दौरे पर चीन की आपत्ति से खड़ा हो गया है। अभी कुछ दिन पूर्व ही सीमा विवाद पर चीन के पूर्व विशेष प्रतिनिधि दाई बिंगुओ का मीडिया में एक इंटरव्यू आया था जिससे भारत अपना कोई इक्तफाक नहीं रखता। उसके बाद अब चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग कह रहे हैं कि भारत का दलाईलामा को अरुणाचल प्रदेश की यात्रा के लिए अनुमति देने का अर्थ यह है कि इससे दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों और विवादित सीमा क्षेत्र में शांति को नुकसान पहुंचेगा। इसी के साथ ही चीन ने एक बार फिर यह दावा प्रस्तुत किया है कि अरुणाचल तिब्बत का एक हिस्सा है और वह किसी शीर्ष नेता, अफसर और डिप्लोमैट के इस क्षेत्र की यात्रा पर अपनी आपत्ति दर्ज करता है।
इस पर आगे चीन की हुड़की देखिए कि वह कह रहा है, भारत-चीन सीमा विवाद के पूर्वी क्षेत्र पर चीन की स्थिति निरंतर और साफ है, दलाई गिरोह लंबे समय से चीन विरोधी अलगाववादी क्रियाकलापों में लिप्त है और सीमा से जुड़े सवाल पर इसका रिकॉर्ड अच्छा नहीं है, इसलिए उन्हें अरुणाचल पहुँचने से भारत को रोकना चाहिए। गेंग यही नहीं रुकते वे आगे यह भी कह गए कि ऐसी पृष्ठभूमि में अगर भारत दलाई को संबंधित क्षेत्र का दौरा करने के लिए आमंत्रित करता है तो यह सीमा क्षेत्र और चीन भारत संबंधों की शांति और स्थिरता को गंभीर क्षति पहुंचाएगा। वस्तुत: यहां समझने वाली बात है कि यह पहली बार तो है नहीं कि दलाईलामा अरुणाचल प्रदेश की यात्रा पर जा रहे हैं। यहां रहने वाले बौद्ध दलाईलामा में अपनी आस्था रखते हैं और इसलिए इन सब के धर्मगुरू अपने अनुयायियों से मिलने यहां आते रहते हैं, इस पर चीन को इतनी आपत्ति क्यों हो रही है ?
चीन की इस मानसिकता का सबसे पहले तो निर्वासित तिब्बती सरकार ने कड़ा विरोध किया है। निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रतिनिधियों ने कहा कि यह पहली बार नहीं है जब चीन ने इस तरह की आधारहीन बयानबाजी की है। जब भी दलाईलामा के विदेशी दौरों के दौरान कार्यक्रम होते हैं तो चीन इस तरह की बयानबाजी करता है। लेकिन वह शायद यह भूल गया है कि भारत में सभी को घूमने-फिरने की आजादी है। निर्वासित तिब्बती सांसद डोलमा शेरिग भी दलाईलामा के अरुणाचल प्रदेश दौरे को लेकर आज सही कह रहे हैं कि तिब्बत की आजादी को लेकर दलाईलामा के मध्यमार्गीय प्रयास से चीन को भय सताने लगा है। वस्तुत: सत्य यही है कि तिब्बती धर्मगुरु दलाईलामा के अरुणाचल दौरे को लेकर चीन के विरोध को भारत सरकार ने नजरअंदाज कर दिया है। चीन की घुड़की पर सरकार ने कहा है कि दलाई लामा एक धार्मिक यात्रा के लिए अरुणाचल प्रदेश जा रहे हैं। । केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने भी स्थिति पूरी तरह साफ करते हुए कह दिया है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है दलाईलामा एक धर्मगुरु के तौर पर अरुणाचल प्रदेश जा रहें है इसलिए उन्हें रोकने का कोई कारण नहीं है।
इन सब स्थिति के बीच आखिर यह प्रश्न बार-बार अवश्य उभरता है कि आखिर यह परिस्थितियां बनी ही क्यों हैं ? आजादी के 69 सालों बाद भी चीन के साथ हमारे सीमा विवाद यथावत हैं। इसके पीछे देश की जनता को यह जरूर जानना चाहिए कि यदि राष्ट्र का प्रधानसेवक अपने निर्णय लेने में नेहरू की तरह गलती करता है तो पीढ़ियों तक को उसकी सजा भुगनी पड़ती है। वस्तुत: चीन और भारत का मसला भी यही है। नेहरू चीन से दोस्ती के लिए इतने अधिक उत्सुक रहे कि उन्होंने पहले 1953 में अमेरिका की भारत से सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के तौर पर शामिल होने की पेशकश को ठुकराते हुए इसकी जगह चीन को सुरक्षा परिषद में शामिल करने की सलाह दे डाली थी। वास्तव में नेहरू यह गलती नहीं करते तो देश का इतिहास इतने वर्षों में कुछ ओर ही लिखा जाता। भारत कई दशकों पहले ही सामरिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दुनिया के अत्यधिक मजबूत देश के रूप में उभर चुका होता।
जवाहर लाल नेहरू इतना होने के बाद भी रुक जाते तो भी गनीमत थी, किंतु उन्होंने 29 अप्रैल 1954 को चीन के साथ पंचशील के सिद्धांत का करार कर लिया। इस समझौते के साथ ही भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया था। यह कदम नेहरू ने चीन से दोस्ती की खातिर तिब्बत को भरोसे में लिए बिना उठाया। सच पूछिए तो अरुणाचल की समस्या यहीं से आरंभ हो जाती है। भारत के इस समझौते ने आगे हिमालय में भू-राजनैतिक हालात हमेशा के लिए बदल दिए। तिब्बत में चीन के पांव पसारने का नतीजा यह हुआ है कि आज उसके हौसले बुलंद हैं वह अरुणाचल प्रदेश को तिब्बत का दक्षिणी हिस्सा बताता है। हमने अपने और चीन के बीच की दीवार तिब्बत को एक अंतहीन वक्त तक के लिए खो दिया। जिसका परिणाम यह है कि चीन जब मर्जी आए तब भारत पर चढ़ा जाता है और अपनी आंखें ततेरता है। वस्तुत: अंत में यही कि पं. जवाहर लाल नेहरू की गलतिया एक राष्ट्र के प्रथम सेवक के रूप में भारत पर आज भी बहुत भारी पड़ रही हैं।