सरकारी रिपोर्टस पर धूल चढ़ने क्यों देते हैं देश के नीति निर्धारक!
(लिमटी खरे)
हिमालय का क्षेत्र अब पहले की तरह सुरक्षित नहीं रह गया है। पिछले दिनों जोशीमठ में आई आपदा को कौन नहीं जानता है। जोशी मठ मानो उजड़ गया है। जैसे ही सोशल मीडिया पर जोशीमठ की तस्वीरें और वीडियो वायरल हुए वैसे ही सरकारी और निजि संस्थाओं की तंद्रा टूटी और वे एक साथ एक्टिव मोड में नजर आने लगे। जोशी मठ से लोगों को विस्थापित करना ही इकलौता विकल्प वर्तमान में दिखाई दे रहा है
ऋषि मुनियों, तपस्वियों की धरा कहा जाता है भारत को और भारत का मुकुट है हिमालय। हिमालय क्षेत्र को लेकर लगभग एक दशक से जिस तरह की आशंकाएं और चिंताएं जताई जाती रहीं हैं, वे निर्मूल नहीं मानी जा सकती हैं। हिमालय की पर्वतमालाओं का विस्तार एक दर्जन से ज्यादा (13) राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में है। इन स्थानों पर पांच करोड़ से ज्यादा लोग निवास करते हैं।
हिमालय का अपना महत्व है। हिमालय में ग्लेशियर हैं जो धरा का तापमान नियंत्रित करने में महती भूमिका अदा करते हैं। अब अगर ये तापमान को नियंत्रित कर रहे हैं तो जाहिर सी बात है कि यह इलाका जलवायु परिवर्तन के मामले में बहुत संवेदनशील भी साबित होता है। याद पड़ता है कि कुछ साल पहले नीति आयोग के द्वारा अध्ययन के लिए योजना बनाई थी, जिसका विषय था कि पर्वतों में पर्यावरण के अनुकूल पर्यटन विकास कैसे हो!
उस समय किए गए अध्ययन में आधा सैकड़ा बिंदुओं का शुमार किया गया था, जिसमें पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों को वहीं आजीविका उपलब्ध कराकर उनका पलायन किस तरह रोका जाए! इसके अलावा जल संरक्षण और जल संचयन की रणनीति भी तैयार करने का विषय इसमें शामिल किया गया था।
जोशी मठ के वर्तमान हालातों को देखकर यही प्रतीत हो रहा है कि अन्य मसलों पर सरकार के द्वारा बनवाई जाने वाली रिपोर्ट की तरह यह रिपोर्ट भी ठण्डे बस्ते के हवाले कर दी गई होगी, जिसका अंजाम जोशी मठ के वर्तमान हालात के रूप में सामने आ रहा है।
गोविंद वल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान के द्वारा पिछले साल (जून 2022) को एक रिपोर्ट जारी की गई थी। इस रिपोर्ट में दो टूक शब्दों में कहा गया था कि पर्वतीय विशेषकर हिमालय वाले क्षेत्र में पर्यटन की गतिविधियों के चलते हिल स्टेशन्स पर बहुत ज्यादा दबाव है। इसके अलावा हिल स्टेशन के आसपास के क्षेत्र में भूमि के उपयोग में बहुत तेजी से बदलाव दर्ज किया जा रहा है जो आने वाले समय की बड़ी समस्या बन सकता है। क्षेत्र में तेजी से फैल रहे कांक्रीट जंगलों के कारण वन क्षेत्र कम हो रहा है, वनों की कटाई हो रही है जो इकोसिस्टम पर बहुत ज्यादा असर डाल रही है।
जैसे ही यह रिपोर्ट प्रकाश में आई वैसे ही राष्ट्रीय हरित अधिकरण अर्थात नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने संज्ञान लिया और इसे वन, पर्यावरण और जलवायू मंत्रालय को भेजने के निर्देश दिए गए। वहीं हिमाचल प्रदेश में हुए एक अध्ययन से चौंका देने वाली जानकारी सामने आई है।
इसके अनुसार यहां कांक्रीट जंगलों (भवन बनाने का काम) के काम में विस्फोटक वृद्धि दर्ज की गई है। इसके अनुसार 1989 में मनाली में भवन निर्मित क्षेत्र 4.7 फीसदी था। राज्य सरकारों की लापरवाही ही कही जाएगी कि यह तीन गुना से ज्यादा बढ़कर 2012 में 15.7 फीसदी होगया। इतना ही नहीं 1980 की पर्यटक संख्या में विस्फोटक बढ़ोत्तरी दर्ज की जाकर वर्तमान में यह तादाद पांच हजार 600 गुना बढ़ चुकी है।
अब आप समझ सकते हैं कि पर्वतों की ओर पर्यटक आकर्षित तो हो रहे हैं, पर दबाव किस कदर बढ़ता जा रहा है। पर्यटक आते हैं तो उनके रूकने के लिए आश्रय स्थलों (होटल्स) की तादाद भी बढ़ी है। पर्यटकों के लिए पेयजल, खानपान की मांग बढ़ी है तो मल मूत्र आदि के निस्तारण की तादाद भी बहुत ज्यादा बढ़ी है। आज मनाली भी धसने की कगार पर है तो दूसरी ओर जोशी मठ में भूगर्भ में कटाव भी साफ दिखाई दे रहा है।
कुल मिलाकर एक बात साफ है कि पर्यटन अपनी जगह है पर पर्यावरण को बचाना अपनी जगह। सरकारों को चाहिए कि पहाड़ी इलाकों में जिस तरह से दबाव बढ़ रहा है उसे पर्यटन के साथ कम कैसे किया जाए इस पर विचार किया जाए। इन क्षेत्रों का ड्रेनेज सिस्टम भी फूलप्रूफ होना चाहिए। अन्यथा आने वाले समय में लोग पर्वतीय इलाकों में पर्यटन के लिए तरसते नजर आएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।