शिबन कृष्ण रैणा
प्रायः लोग कहते हैं कि अपने दुःख को बांटने से कोई फायदा नहीं है।लोग एक कान से सुनते हैं और दूसरे से निकाल देते हैं।ऐसे लोग रहीम का वह दोहा भी कोट करते हैं जिसमें रहीम कहते हैं कि ‘रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय। सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय।अर्थात रहीम कहते हैं कि अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए।दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला लेंगे,उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।
बहुत पहले की बात है।मुझे अपने किसी ज़रूरी काम से दिल्ली के शास्त्री-भवन स्थित मानव-संसाधन-विकास मंत्रालय जाना पड़ा।मेरा कोई काम रुका हुआ था और सम्बंधित अधिकारी से मेरा मिलना ज़रूरी था।दिल्ली में जिस बस में मैं बैठा,ठीक मेरी बगल वाली सीट पर एक बुजुर्गवार पहले से बैठे हुए थे।बात चली और जब उनको पता चला कि मैं शास्त्री-भवन जा रहा हूँ और अमुक अधिकारी से मुझे मिलना है, तो उनका स्नेह जैसे मुझ पर उमड़ पड़ा।बोले “हो जायेगा”,हो जायेगा।काम हो जायेगा।” इससे पहले कि मैं उनसे कुछ पूछता, वे उधर से बोल पड़े “मेरे घर से हो के जाना।उनके लिए एक चिठ्ठी और प्रसाद दे दूंगा।वे दोनों चीज़े उन्हें दे देना।” बड़े शहरों की चालाकियां मैं ने सुन-पढ़ रखी थीं।सोचा इन महाशय के साथ उनके घर जाना ठीक रहेगा कि नहीं?तभी ख्याल आया मेरे पास ऐसा कौनसा खजाना है जो यह बुज़ुर्ग आदमी मुझ से छीन लेगा।दो-दो हाथ करने की नौबत भी अगर आन पड़ी तो भारी मैं ही पडूँगा।
बस रुकी और मैं उनके साथ हो लिया।उन्होंने अपने फ्लैट की बेल बजायी।भीतर से एक महिला ने दरवाज़ा खोला।’बहू,जल्दी से चाय बनाओ,इनको शास्त्री-भवन जाना है।दूर से आए हैं।वहां इनका कुछ काम है’।इस बीच उन्होंने फोन पर किसी से बात की।भाषा बंगला थी।मैं ने अंदाज़ लगाया कि ज़रूर मेरे बारे में ही बात की होगी क्योंकि जिस अधिकारी से मुझे मिलना था उसका सरनेम भी बंगाली था।
समय तेज़ी से बीत रहा था।चाय पीकर मैं वहां से चलने को हुआ।वे महाशय मुझे नीचे तक छोड़ने आए और हाथ में एक लिफाफा पकडाया यह कहते हुए कि इसमें चिट्ठी भी है और प्रसाद भी।यह सम्बंधित महानुभाव को दे देना।काम हो जाएगा।यह भी ताकीद की कि लौटती बार मुझ से मिल कर जाना।अब तक सवेरे के लगभग ग्यारह बज चुके थे।ओटो-रिक्शा लेकर मैं सीधे शास्त्री-भवन पहुंचा।आवश्यक औपचारिकतायें पूरी करने के बाद मैं सम्बंधित अधिकारी से मिला।वे मेरा केस समझ गये।उन्होंने मेरी फाइल भी मंगवा रखी थी।मेरे केस पर सकारात्मक/अनुकूल कार्रवाई चल रही है,ऐसा आश्वासन उन्होंने मुझे दिया।जैसे ही मैं उठने को हुआ, मुझे बुज़ुर्ग-महाशयजी का वह लिफाफा याद आया।सोचा, दूँ कि नहीं दूँ।मन मैं खूब विचार करने के बाद निर्णय लिया कि नहीं,यह सब ठीक नहीं रहेगा।जो होना होगा हो जाएगा।
शास्त्री-भवन से निकल कर मैं सीधे उन बुजुर्गवार से पुनः मिलने गया।वे जैसे मेरा इंतज़ार ही कर रहे थे।मुझे सीधे खाने की मेज़ पर ले गये।इस से पहले कि मैं कुछ कहता वे मेरे लिए थाली सजाकर उसमें तरह-तरह के पकवान रखने लगे।साग,पूड़ी,खीर,लड्डू आदि-आदि।मेरे से न कुछ कहते बना और न ही कुछ सुनते।वे मग्न-भाव से मुझे खिलाते रहे और मैं भी मग्न-भाव से खाता रहा।इस बीच मेरे कार्य की प्रगति सुनकर प्रसन्न हुए और दुबारा बोले कि काम हो जायेगा।जब उन्होंने मुझ से यह पूछा कि वह लिफाफा मैं ने दिया कि नहीं तो मेरे मुंह से ‘नहीं’ सुनकर वे मुस्कराए और बोले बहुत संकोची-स्वभाव के लगते हो।
वे मुझे एक बार फिर नीचे छोड़ने के लिए आए।मेरे यह कहने पर कि आपने बहुत कष्ट उठाया मेरे लिए,मैं आभार व्यक्त करता हूँ और ऊपर से इतना बढ़िया भोजन कराया,इसे मैं भूल नहीं सकता।उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए जो बात कही वह मुझे अभी तक याद है: ’वह व्यक्ति ही क्या जो दूसरों के काम न आए। सेवा-भाव से बढ़कर और कोई धर्म नहीं है इस संसार में।रही बात भोजन की।वह भी एक संयोगमात्र है।दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है।आज मेरे पिताजी का श्राद्ध था।