प्रवक्ता न्यूज़

एक नया ‘बुखारी’ पैदा कर रहा है ‘प्रवक्ता’

-पंकज झा

किसी व्यक्ति की तारीफ़ या निंदा में किये गए लेखन सामान्यतः निकृष्ट श्रेणी का लेखन माना जाता है. लेकिन 2 दिन में ही अगर यह लेखक दुबारा ऐसा निकृष्ट काम करने को मजबूर हुआ है तो इसके निहितार्थ हैं. खैर. पहले चतुर्वेदी जी को पढ़-पढ़ कर बोर हुए पाठकों के लिए एक चुटकुला. मेरे एक वामपंथी मित्र हैं. बात सच है या झूठ ये वो वामपंथी ही बेहतर जानते होंगे. लेकिन ‘मामला’ रोचक है. बकौल वे मित्र, उनका समाजशास्त्र का पेपर चल रहा था. मित्र ने तैयारी कुछ खास नही की थी. पेपर देख कर एकबारगी काँप गए लेकिन तुरत उन्होंने एक तरकीब निकाली. उन्होंने ‘साइकिल’ के हर पार्ट का स्मरण किया और लगे पेलने. महान समाजशास्त्री मिस्टर ‘स्पोक’ ने यह कहा तो मिस्टर ‘ब्रेक’ का ऐसा मानना था. रॉबर्ट ‘चेन’ ने ऐसा कहा तो भयंकर समाजशास्त्री ‘हेंडल’ महाशय की स्थापना इससे उलट थी वे मोटे तौर पर ‘पैडल’वादी थे आदि-आदि. और बकौल वो मित्र इन्ही ‘उपकरण’ की बदौलत वो प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए.

महान व्याख्याता पंडित चतुर्वेदी जी के बारे में अपन यह तो नहीं कह सकते. निश्चय ही उनका ‘लुकास’ या पेचकस का अस्तित्व रहा होगा इतना भरोसा तो किया ही जा सकता है. लेकिन यह ज़रूर है कि जब भी इन लोगों को अपना कुतर्क थोपना होता है तो ये तत्व भी इन्ही उद्धरणों की मदद लेकर मुद्दे की ‘साइकिल’ को बड़े ही कुशलता से पगडंडी से उतार दिया करते हैं. गरीब के भूखे पेट को अपना उत्पाद बना कर बेचने वाले इन दुकानदारों को ‘अपचय, उपचय और उपापचय’ पर बात करने के बदले सीधे ‘थेसिस, एंटीथेसिस और सिंथेसिस’ तक पहुचते हुए देखा जा सकता है. क्रूर मजाक की पराकाष्ठा यह कि ‘भूखे पेट’ को मार्क्स के उद्धरण बेच कर इनके एयर कंडीशनर का इंतज़ाम होता है. इन लोगों ने कोला और पेप्सी की तरह ही अपना उत्पाद बेचने का एक बिलकुल नया तरीका निकाला हुआ है. जिन-जिन कुकर्मों से खुद भरे हों, विपक्षी पर वही आरोप लगा उसे रक्षात्मक मुद्रा में ला दो. ताकि उसकी तमाम ऊर्जा आरोपों का जबाब देने में ही लग जाय. आक्रामक होकर वे इनकी गन्दगी को बाहर लाने का समय ही न सकें.

इस बारे में केवल दो उदहारण पर गौर कीजिये. राष्ट्रवादी-राष्ट्र भक्त समूहों के लिए दो विशेषण हमेशा इनके जुबान पर ही होता है. पहला साम्प्रदायिक और दूसरा फासीवादी होना. थोड़ी गंभीरता से सोचने पर ही ताज्जुब हो सकता है कि न तो कम्म्युनिष्टों से ज्यादा साम्प्रदायिक आज तक कोई पैदा हुआ है और फासीवाद-तानाशाह व्यवस्था का समर्थन तो इनके मूल में है. इनकी तो जात ही ऐसी है कि हर उस लोकतांत्रिक व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट करो जो मानव को मानवीय गुणों से विभूषित करता हो. अभी अरुंधती पर लिखे इनके एक लेख में इनके शब्द हैं….लेखक के विचारों को आप कानून की तराजू में रखकर तौलेंगे तो बांटे कम पड़ जाएंगे…..!

अब आप सोचें….. फासीवाद का इससे भी बड़ा नमूना कोई हो सकता है? यह उसी तरह की धमकी है जब कोई आतंकवादी समूह कहता है कि मुझे गिरफ्तार करोगे तो जेल के कमरे कम पड जायेंगे. क्या कोई भी लेखक समूह अपने लिए ऐसी स्वतंत्रता चाहेगा जो हर तरह के क़ानून से मुक्त हो? इस बात से कौन इनकार करेगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे बेहतर नमूना हमारा यह प्यारा ‘लोकतंत्र’ प्रस्तुत करता है. इन कठमुल्लों के स्वर्ग माने जाने वाले किसी भी देश में आप ऐसी आज़ादी नहीं पायेंगे. लेकिन बावजूद इसके अपने यहाँ भी क़ानून द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देते हुए भी कुछ युक्ति-युक्त निबंधन भी लगाया गया है. इस विषय पर प्रवक्ता पर भी अतिवादी लाल, दलाल और वाम मीडिया से पिसता अवाम काफी विमर्श हो चुका है. तो इस पर ज्यादा विमर्श न करते हुए भी इतना ज़रूर कहूँगा कि संविधान ने जिन अभिव्यक्तियों को दंड की श्रेणी में रखा है उनमें राज्य के विरुद्ध, उनको नुकसान पहुचाने वाले कृत्यों को सबसे प्रमुखता दी है.

तो अगर पंडित जी की बात मान ली जाय तो देश रसातल में पहुचेगा ही साथ ही कुत्सित मानसिकता का परिवार से लेकर राष्ट्र तक में कोई आस्था नहीं रखने वाला हर वामपंथी, स्वयम्भू लेखक ‘मस्तराम’ की तरह बन बाप-बेटी, भाई-बहन तक में सम्‍बन्ध स्थापित करने वाला लेख लिख वैचारिक हस्तमैथुन कर मस्त रहेगा.

इसी तरह एक दूसरा इनका उत्पाद है साम्प्रदायिकता का झांसा देना. आप अगर इनके घिनौने चेहरे पर नज़र डालेंगे तो पता चलेगा कि इन जैसा साम्प्रदायिक आज तक पैदा नहीं हुआ. आखिर आपने कभी भी ‘हिंदू’ के साथ ‘सम्प्रदाय’ विशेषण नहीं सुना होगा. वास्तव में हिंदू कोई सम्प्रदाय हो ही नही सकता है. सम्प्रदाय का आशय होता है ‘सम्यक प्रकारेण प्रदीयते इति सम्प्रदायः’ भावार्थ यह कि एक़ गुरु के द्वारा समूह को सम्यक प्रकार से प्रदान की गयी व्यवस्था ‘सम्प्रदाय’ कहलाता है. इस अर्थ में रामानंदी, निम्बार्की, शैब, शाक्त, वैष्णव, उदासी आदि या फ़िर मुस्लिम, सिक्ख, इसाई पारसी आदि तो सम्प्रदाय हो सकते हैं क्युकी यह सभी एक गुरु द्वारा दुसरे तक प्रदान की गयी व्यवस्था है. लेकिन हिंदुत्व तो सभी सम्प्रदाय रूपी नदियों को स्वयं में समेत लेने वाला समुद्र ही है. हिंदू कैसे सम्प्रदाय हो सकता है जिसका न कोई इकलौता गुरु या पैगम्बर है और न ही एक पूजा पद्धति.

हां यह ज़रूर है कि अगर सम्प्रदाय के शाब्दिक अर्थों में सोचा जाय तो दुनिया के घिनौने सम्प्रदाय में से एक है माओवादी सम्प्रदाय. इससे ज्यादा सांप्रदायिक आज-तक इसलिए कोई पैदा नहीं हुआ क्योंकि दुनिया ने भले ही इक्कीसवीं सदी में छलांग लगा दी हो, ये अपने पिता मार्क्स और माओ की स्थापना से रत्ती भर भी आगे जाने को तैयार नहीं हैं. न केवल इस मामले में अरियल हैं अपितु अपने (कु)पंथ के निमित्त खून की किसी भी दरिया को किसी जेहादी की तरह फांद लेने को तत्पर भी हैं. तो ऊपर के तथ्यों के बावजूद जब चतुर्वेदी जैसे लोग विषवमन कर अपना ज़हर राष्ट्र के खिलाफ उडेलते हैं, राष्ट्रवाद को सारी बुराइयों की जड बताते हैं तब स्वाभाविक रूप से खून खौलने लगता है….खैर.

अब सवाल यह पैदा होता है कि जैसा शुरुआत में कहा गया है कि इन जैसे तत्वों पर लिखने का निकृष्ट काम आखिर किया क्यूँ जाय? इनकी क्यूँ न जम कर उपेक्षा की जाय. इन तत्वों की समाप्ति का सबसे बड़ा उपाय तो यही है न कि इन्हें नज़रअंदाज़ किया जाय. लेकिन अफ़सोस यही होता है कि प्रवक्ता जैसा ईमानदार माना जाने वाला साईट भी शायद सस्ती लोकप्रियता के मोह से बच नहीं पा रहा है. अन्यथा पंडित जी द्वारा उड़ेली जा रही इतनी गंदगी का प्रवक्ता पर स्थान पाना कहां संभव होता. आप गौर करें….किसी एक ही लेखक का बाबा रामदेव पर सप्ताह में भर में सात लेख प्रकाशित करते आपने किसी साईट को देखा है? वो भी तब, जबकि कोई विशेष नहीं हुआ है रामदेव जी के साथ अभी. इसी तरह किसी भी साईट पर आपने अयोध्या मुद्दे पर एक ही लेखक के दर्ज़न भर आलेख देखे? वामपंथ पर इस तरह का सीरीज लेखन और राष्ट्रवाद को गरियाने की सुपारी अगर प्रवक्ता जैसे खुद को राष्ट्रवाद का सिपाही मानने वाले साईट ने जगदीश्वर जी को दे रखी हो तो आखिर किया क्या जाय?

अभी हाल में विभिन्न साइटों पर बुखारी से संबंधित लेख में एक लेखक ने अच्छा तथ्य उजागर किया है. उसके अनुसार एक सामान्य से मुल्ला, बुखारी को ‘बुखारी’ बनाने का श्रेय संघ परिवार को है. आपातकाल के बाद नसबंदी के कारण मुस्लिम, कांग्रेस से काफी नाराज थे. तब लेखक के अनुसार संघ समर्थित राजनीतिक दलों ने यह नारा लगाना शुरू किया था. ‘अब्दुल्ला बुखारी करे पुकार, बदलो कांग्रेस की सरकार.’ यह सन्दर्भ देते हुए लेखक का कहना था कि मुस्लिम तो कांग्रेस से तब नाराज़ थे ही अगर बुखारी का नारा नहीं लगवाया जाता तब भी चुनाव परिणाम वही होने थे. लेकिन बुखारी की मदद लेकर संघ ने बिना मतलब उसको मुसलमानों का रहनुमा बना दिया. यही निष्कर्ष प्रवक्ता के बारे में भी निकालते हुए संपादक से यह कहना चाहूँगा कि अगर वे निष्पक्ष दिखने के चक्कर में देश को इतनी गाली नहीं भी दिलवाएंगे तो भी उनकी पठनीयता क़म नही होगी. ज़ाहिर सी बात है कि जब आज वामपंथी अप्रासंगिक होते जा रहे हैं. संसद से लेकर सड़क तक, केरल के पंचायत से लेकर बंगाल के निगम से जब ये गधे की सिंग की तरह गायब होते जा रहे हैं तो किसी एक भड़ासी की क्या बिसात. तो किसी एक अनजाने से चतुर्वेदी जी को इतना भाव दे कर जाने-अनजाने प्रवक्ता एक नये बुखारी को ही जन्म दे रहा है. ये नए अब्दुल्ला भी ताकतवर हो कर सबसे पहले पत्रकारिता के मुंह पर ही तमाचा मारेंगे. भष्मासुर के कलियुगी संस्करणों ने खुद को असली राक्षस से ज्यादा ही खतरनाक साबित किया है. संपादक बेहतर जानते होंगे कि नया मुल्ला प्याज ज्यादे खाता है.