आज कोई जग ख़िताब !

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आज कोई जग ख़िताब, 

चह कहाँ हैं पा रहे;

मन हमारे आज ख़्वाब,

आ कहाँ हैं पा रहे !

जो भी कुछ गा पा रहे,

मुक्त भव से आ रहे;

अलूनी सी आत्म ध्वनि में,

सलौनी छवि दे रहे ! 

पढ़ न पाते हम किताब,

रह न पाते रख रख़ाव;

रख न पाते कोई हिसाब,

चलाते ना कोई दाब !

कर आदाब हर ही रूह,

राह चले बेनक़ाब;

ऊह पूह छोड़ छाड़,

विस्मृति की रेख ताड़ !

तड़के तिन तरजि जात,

जो चाहत दे देवत;

‘मधु’ व्यापक ब्रह्म लखे,

टेरत तट झाँके रहे ! 

✍? गोपाल बघेल ‘मधु’ 

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