आपकी हँसी बिन सके ,आपकी ख़ुशी बिन सके
बे-तनख़्वाह बस इसी काम पर रख लीजिए हमें
आपको सँवारने में हम भी कुछ तो सँवर जाएँगे
मत सोचिए, किसी भी दाम पर रख लीजिए हमें
जल कर भी आपकी शफ़क़त* को रोशन रखेंगे
अपने घर में लौ के नाम पर ही रख लीजिए हमें
कोई भी कमी तो नहीं आपके हुश्न में या खुदाया
होंठों के छलकते जाम पर ही रख लीजिए हमें
निगाहें उठे तो दशहरा, निगाहें झुके तो दिवाली
निगाहों के ऐसे सुबह -शाम पर रख लीजिए हमें
शफ़क़त*-मोहब्बत
सलिल सरोज
कार्यकारी अधिकारी
लोक सभा सचिवा
5.
जिस्मों की हिस्सेदारी में
मेरा और उसका
ये अनुपात था कि
उसको
मेरे बाल,होंठ,गाल,स्तन,पेट,नितम्ब,जाँघ,योनि और टाँगों से
खेलने और उनको खोलने की पूरी आज़ादी थी
और मेरे हिस्से में थी
उसके किए प्यार के उपरान्त की
थकान, पीड़ा, कष्ट,दर्द और निशब्द लाचारी
क्योंकि
अनुपात के गणित को
मर्द और औरत का फर्क
पता नहीं होता
और यह गणित हमेशा से ही
पुरुष प्रधान समाज द्वारा तय किया जाता रहा है
जिसमें स्त्री मात्र शून्य है
या है कुछ भी नहीं
जिसमें कुछ भी गुना या भाग कर लो
उसकी पीड़ा में
या उसके स्त्री होने में
कोई फर्क नहीं पड़ता है
सलिल सरोज