तख्तापलट का पुनर्पाठ

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Manish-Tiwariअरविंद जयतिलक

कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री मनीष  तिवारी ने संप्रग सरकार के दौरान सेना के दिल्ली कूच की खबरों को सही बताकर एक बार फिर अनावश्यक बहस को जन्म दिया है। उन्होंने एक समारोह कहा है कि उस समय मैं रक्षा मामलों पर संसद की स्थायी समिति में था और यह खबर दुर्भाग्यपूर्ण थी लेकिन सही थी। मजे की बात यह कि कांग्रेस पार्टी ने उनके बयानों से स्वयं को अलग करते हुए इस खबर को निराधार बताया है वहीं तब के सेनाध्यक्ष और मौजुदा समय में एनडीए सरकार के मंत्री जनरल वीके सिंह ने उन पर तंज कसते हुए अपनी किताब पढ़ने की सलाह दी है। समझना कठिन है कि जब कांग्रेस पार्टी बार-बार इस खबर को निराधार बता रही है और खुलासा यह भी हो चुका है कि स्वयं मनीष  तिवारी भी सुरक्षा पर कैबिनेट समिति के सदस्य नहीं थे फिर वे इस मसले का हवा देकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं? कहीं उनका मकसद तख्तापलट का पुनर्पाठ कर वीके सिंह की घेराबंदी करना तो नहीं? यह यह समझा जाए कि पार्टी में किनारे लगने से वे हतोत्साहित हैं और अपनी प्रासंगिकता जताने के लिए तख्तापलट का पुनर्पाठ कर रहे हैं? बहरहाल सच्चाई जो भी हो पर उनके द्वारा बार-बार इस खबर को सच बताना सेना को कठघरे में खड़ा करने जैसा है जो किसी भी लिहाज से देशहित में नहीं है। वह भी ऐसे समय में जब पठानकोट आतंकी घटना में देश ने सात जवानों को खोया है। बेहतर होता कि मनीष  तिवारी अगर सेना का मनोबल बढ़ाने में सक्षम नहीं हैं तो कम से कम झूठ प्रसारित कर सेना का मनोबल न गिराए। अखबार को भी अपने खबर पर इतराने की जरुरत नहीं कि वह सनसनी फैलाने में कामयाब रहा और अब मनीष  तिवारी से उसे सच होने का प्रमाणपत्र मिल रहा है। बता दें कि जनवरी 2012 में एक अंग्रेजी अखबार ने दावा किया था कि 16-17 की रात को सरकार को पूर्व सूचना दिए बिना ही हिसार हरियाणा और आगरा स्थित सेना की दो इकाई ने अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ दिल्ली की तरफ कूच किया। अखबार ने यह दावा किया कि सेना के इस संदेहास्पद मूवमेंट पर एक ‘टेरर अलर्ट’ घोषित किया गया और प्रधानमंत्री को इसकी जानकारी दी गयी। साथ ही डायरेक्टर जनरल मिलिट्री आॅपरेशन्स से इन टुकड़ियों को वापस जाने का आदेश देने को कहा गया। गौरतलब है कि यह खबर आग की तरह फैली और सेना की भूमिका पर सवाल उठने शुरू हो गए। हाालंकि तत्क्षण ही सेना ने साफ कर दिया कि यह उसका रुटीन अभ्यास था और इसे दूसरे रुप में नहीं देखा जाना चाहिए। किंतु अखबार ने इस खबर की बुनियाद में जिस तरह कई घटनाओं के सिरों को जोड़कर कहानी गढ़ी वह जरुर चैंकाने वाला रहा। दरअसल जिस दिन सेना अपने रुटीन सैन्य अभ्यास में जुटी थी उसी दिन सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने उम्र विवाद मामले में उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। अखबार ने इन दोनों घटनाओं को आपस में जोड़कर तरह-तरह के तर्क पेश किए और समझाने की कोशिश की कि सेना का मकसद तख्तापलट करना है। देश आश्चर्यचकित रहा कि सेना की डिवीजन जो सामान्य तौर पर हर तीसरे महीने अभ्यास करती है उस अभ्यास को तख्ता पलट की साजिश के रुप में कैसे देखा जा सकता? वैसे भी सामान्य अभ्यास के लिए सरकार की मंजूरी की आवश्यकता नहीं होती। किंतु अखबार ने इसे एक साजिश के तौर पर देखने की कोशिश की। मजेदार बात यह कि जब 16-17 जनवरी का अभ्यास सेना के कैलेंडर में दर्ज था फिर उसे दिल्ली पर धावा के रुप में क्यों देखा जाना चाहिए? सबसे बड़ा हास्याद्पद तो यह रहा कि सेना की एक छोटी टुकड़ी भला दिल्ली पर कब्जा कैसे कर सकती? वह भी तब जब उस समय वहां गणतंत्र दिवस की तैयारी में पहले से ही कई टुकड़ियां मौजूद थी। सच तो यह कि अखबार की पूरी रिपोर्ट सत्य से परे थी जिससे सेना एवं सरकार के बीच गलतफहमी पैदा हुई। अच्छा रहा कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग इस बेबुनियाद खबरों के प्रभाव में नहीं आया और वह असलियत तक पहुंचने की कोशिश की। देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह और रक्षा मंत्री एके एंटनी ने भी अखबार की खबर को बेबुनियाद बताया। रक्षा मंत्री ने कहा कि सीमा पर जान देने वाले सैनिकों की देशभक्ति पर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए। दुनिया के दूसरे हिस्से में जो होता है उसकी अपेक्षा यहां नहीं हो सकती। बावजूद इसके अगर मनीष  तिवारी इस खबर को सच बता रहे हैं तो उस समय की कुछ घटनाओं पर ध्यान देना जरुरी होगा। याद करना होगा कि जनरल वीके सिंह ने जब सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम तेज की उसी समय वे यूपीए सरकार के निशाने पर आए। सबसे पहले मनमोहन सरकार ने उनके उम्र विवाद को तूल दिया और मामला अदालत तक जा पहुंचा। उसके चंद दिनों बाद ही रक्षा मंत्री एके एंटनी के दफ्तर में जासूसी का मसला उठा। शक की सुई फिर जनरल की ओर घुमायी गयी। अफवाह फैलाने की कोशिश की गयी कि उम्र विवाद में मात खाने के बाद जनरल जासूसी करा रहे हैं। किंतु आइबी ने जांच-पड़ताल के बाद पाया कि रक्षा मंत्री का दफ्तर खुफिया उपकरणों की मौजूदगी से मुक्त है। उसके कुछ दिन बाद जनरल वीके सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह को सेना की बदहाली के बारे में पत्र लिखा और अचानक यह पत्र उजागर हो गया। इसका ठीकरा भी सेनाध्यक्ष के माथे पर फोड़ा गया। यहां तक कि संसद में कई सियासतदानों ने सेनाध्यक्ष को पद से हटाने की मांग कर डाली। हालांकि आइबी ने इस मामले में भी सेनाध्यक्ष को क्लीन चिट दिया। फिर सवाल उठा कि पत्र की गोपनीयता किसने भंग की? रक्षामंत्रालय या प्रधानमंत्री कार्यालय? आज तक इस सवाल का उत्तर नहीं मिल पाया है। उस सवाल का जवाब भी आना बाकी है कि सेना का मनोबल गिराने और सेनाध्यक्ष को बदनाम करने के पीछे कौन-सी शक्तियां काम कर रही थी? माना गया कि इसके पीछे हथियार लाॅबिस्टों की ताकत हो सकती है जो येन केन प्रकारेन सेनाध्यक्ष को पथ से हटाना चाहते थे। सच्चाई जो भी हो। पर मीडिया को ऐसे बेबुनियाद खबरों को जनमानस में लाने से पहले उसका परीक्षण करना चाहिए। खबरों को सनसनी बनाकर बेचने से न तो पत्रकारिता धर्म का पालन होता है और न ही राष्ट्रधर्म का। याद करना होगा कि आजादी की लड़ाई के दौरान सीएफ एंड्रयूज ने लाला लाजपत राय से आग्रह किया था कि वह अपना ध्यान भारत को एक ऐसा दैनिक पत्र देने के लिए केंन्द्रित करें, जो भारतीय जनमत के लिए वैसा ही करे जैसा सीपी स्काॅट के ‘मांचेस्टर गार्डियन’ ने ब्रिटिष जनमत के लिए किया। बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रवादियों ने भी इस दिशा में सक्रिय पहल की और अनेकों ऐसे समाचार पत्रों का संपादन किया जो आजादी की जंग में हथियार की तरह काम आया। पत्रकारिता के अग्रदूत राजाराम मोहन राय ने ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरातुल अखबार’ जैसे पत्रों का संपादन कर भारतीय जनमानस में चेतना भरी। समाचार पत्रों की भूमिका तब और प्रासंगिक हो जाती है जब राष्ट्र संक्रमण के दौर से गुजर रहा हो। लेकिन जब समाचार पत्र अपनी विश्वसनीयता पर खुद कुठाराघात करेंगे और सत्य के उद्घाटन की जगह प्रायोजित झूठ को स्थापित करेंगे तो फिर पत्रकारिता का उद्देश्य और मूल्य दोनों नष्ट होगा।

 

 

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  1. सबलोग अपने अपने कोण से बातो को कह रहे है, कुछ झूठ और कुछ सच। लेकिन कांग्रेस जिन अपुष्ट बातों की बुनियाद पर झूठ का महल खड़ा कर रही है उससे देश के संवैधानिक लोकतांत्रिक मान्यताओ को ठेस पहुंचती है, गलत चीजो को प्रश्रय और हौसला मिलता है। अगर मनीष तिवारी जो कह रहे है वह सत्य है तो फिर उस समय की सरकार ने उसे उस समय क्यों नही स्वीकार किया। भारत में लोकतन्त्र की जड़े गहरी है। सेना और सरकार संतुलन में रहे।

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